परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 135वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा जनाब हसरत मोहानी साहब की गजल से लिया गया है|
"अब तुम से दिल की बात कहें क्या ज़बाँ से हम "
221 2121 1221 212
मफ़ऊलु फ़ाइलातु मफ़ाईलु फ़ाइलुन
बह्र: मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 24 सितंबर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 25 सितंबर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आ. भाई अनिल जी, अब अंतिम निष्कर्ष क्या लिया जाय ?
आदरणीय अनिल कुमार सिंह जी, आपने बिल्कुल उचित सम्दर्भ लिया है.
हम हिन्दी भाषा के आलोक मेंं, देवनागरी लिपि की सीमाओं में ही बातें करते हैं. यही समीचीन भी है.
मेरा आशय वचन मात्र का न हो कर हिन्दी के लगातार परिवर्तित स्वरूप की ओर इशारा करना है. यह हर सार्थक, सचेत तथा जीवित भाषा के लिए सत्य है.
पुराने समय में भाषा के वाक्यों का विन्यास भिन्न हुआ करता था, जिसमें क्रिया के मूल शब्द को अव्यय की तरह स्थावर रख क्रियापद में लिंगानुरूप परिवर्तन होता था. जैसे, देना होगी हर कुर्बानी, या, हर किसी से यह बात कहना होगी.
किन्तु, कालान्तर में यह विन्यास परिवर्तित हो गया. अब, देनी होगी हर कुर्बानी, या, हर किसी से यह बात कहनी होगी, जैसे विन्यास आम हैं.
यही कुछ पटने में रहता हूँ, या कलकत्ते-सा लगता है के साथ हुआ है. वह दौड़ते हुए आया, या, वह दौड़ता हुआ आया में कोई अंतर नहींं रहा. किसी एक को सही मान कर दूसरे को गलत नहीं कह सकते. बस धुआँ का सम्दर्भ इसी आलोक में लिया गया है. अतः, धुआँ-सा या धुएँ-सा का विवाद अन्यथा है.
सादर
यह सही है कि भारतेन्दु युग से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी और आधुनिक काल तक भाषाई सलिल प्रवाह ने कई मोड़ लिए, कई तटों को छुआ और भाषा परिमार्जित होती गई उच्चारण लेखन और वाचन के दृष्टिकोण से . किन्तु व्याकरण के जो सूत्र पाणिनि ने स्थापित कर दिए उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ . यही बातें हिन्दी व्याकरण के संबंध में भी लागू होती है . बोलचाल की भाषा और संप्रेषण सुविधा के लिए कुछ लोगों ने नव प्रयोग अवश्य किए किन्तु इसे व्याकरण सम्मत नहीं कहा जा सकता . पाणिनि ने अष्टाध्यायी में शब्दों के जिन सूत्रो का निरूपण कर दिया आज तक उनसे एक भी शब्द न तो संस्कृत या हिन्दी व्याकरण में बढ़े हैं न कम हुए हैं
सञ्ज्ञा च परिभाषा च विधिर्नियम एव च ।
अतिदेशोऽधिकारश्च षड्विधम् सूत्रं मतम् ॥
हिन्दी में जिसे हम भाषाई विकास के नाम पर अपना कर नव क्रांति उत्पन्न पंकज कह कर आत्ममुग्ध होते हैं उसे व्याकरण कतई स्वीकार नहीं करता .यह अभिजात्य अधिरोपित कुंठायें हैं जिसे साहित्य का सर्वहारा ये भी सही वो भी सही कहकर अपनी छुटटी पा लेता हैं . सत्य सिर्फ़ एक होता है.. ये दो हो ही नहीं सकता .
आकारंत संज्ञा के बाद यदि कर्ता का चिन्ह ' ने ' कर्म का ' को ' करण का 'से संबोधन का ' का के की अधिकरण का में पर पे आदि तथा तुलनात्मक उदाहरणात्मक आदि शब्द आते हैं तो उसे एकरांत होना ही व्याकरणिक शुद्धता है . अन्य को हम ने अपनी सुविधा के लिए मान्यता प्रदान कर दीं हैं.
अस्तु , मेरा मानना है कि 'धुएँ से' ही शुद्ध रूप है.
आ. भाई सौरभ जी व समर जी , सादर अभिवादन। आपके विचारों से दुविधा दूर हुई और नया कुछ सीखने को मिला । इसके लिए हार्दिक आभार ।
आ. भाई दण्डपाणि जी, सादर अभिवादन।गजल पर उपस्थिति व सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय लक्ष्मण जी,नमस्कार
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई,बधाई स्वीकार कीजिए
सादर।
आ. रिचा बहन, सादर अभिवादन।गजल पर उपस्थिति व सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय लक्ष्मण जी, अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें। चर्चा भी बहुत ज्ञानवर्धक रही
आ. भाई संजय जी, सादर आभार..
भाई लक्ष्मण धामी मुसाफ़िर जी आपकी ग़ज़ल पर धुआँ पर अच्छी चर्चा चली।इसके "धुएँ" की चपेट में आकर मैं भी आ गई।:^) इसलिए अपने विचार रखना चाहती हूँ।
अनिल कुमार सिंह जी की बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि हम भाषा
के बिगड़े रूप को मान्यता नहीं दे सकते।
आप ही बताइए क्या मैं ग़ज़ल या छंद में
"जोल खाइबो" लिख दूँ तो क्या वो स्वीकार्य होगा।
सादर।
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आपके तथ्यों के प्रति सादर भाव रखते हुए इतना ही जानना चाहूँगा, हिन्दी भाषा का व्याकरण संस्कृत के व्याकरण या पाणिनी की नियमावलियों पर पूर्णत: आधारित है क्या ? फिर कौरवी क्या है ? क्यों है ? हिन्दी से इसका क्या सम्बन्ध है ?
आदरणीय अनिल सिंह जी, बहुत ही गहन विवेचन की आवश्यकता बन पड़ेगी. आयोजन के इस पटल की सीमाओं का अन्यथा अतिक्रमण होगा.
तभी मेरा निवेदन है कि मेरे कहे को पढ़ जायँ. किसी संदर्भ को रूढ़ बना कर संदर्भ दिया जाना विकासोन्मुख चर्चा का पर्याय नहीं होता.
मैं किसी एक को सही मान कर दूसरे को शुद्ध न कह सकूँगा. कहना भी नहीं है. भाषा को लेकर मैं सचेत हूँ.
पुन:, किसी एक को सही मान कर दूसरे को गलत नहीं कह सकते. और, धुआँ का सम्दर्भ इसी आलोक में लिया गया है.
अब जिसे जो मानना है, माने, स्वयं को अन्यथा आरोपित न करे.
शुभ-शुभ