आदरणीय साथियो,
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आ.उस्मानी जी,कथ्य और तथ्य में मैंने किसी कमी का जिक्र नहीं किया,वरन इतना कहा कि जो कहा गया और उसका जो भाव/संकेत हुआ,वह महज यह कि दोनों पीढ़ियों में बस विचारों का टकराव है,कड़वाहट है।वैसे यह मेरा मानना है।आप इस पर गौर नहीं भी कर सकते हैं।
अपनी टिप्पणी और स्पष्ट करने हेतु शुक्रिया जनाब मनन कुमार सिंह साहिब। यह हमारे लिए मार्गदर्शन ही है।
आ. भाई शेख शहजाद जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
आदाब। आपको रचना पसंद आई। शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण धामी.'मुसाफ़िर' जी।
बाज़ार की अवधारणा
उस दिन वह खाली हाथ लौट रहा था। वह सोचता, "यहाँ सब कुछ ख़रीदा और बेचा जाता है, आजकल मेहनत हमारी मेहनत क्यों नहीं ।"
"हाँ, अवश्य," उसने फिर स्वयं को उत्तर देते हुए कहा कि उस दिन मास्टर जी ने भी यही बात कही थी। "
"यहाँ मानसिक प्रयास को अब शारीरिक प्रयास की तरह कोई महत्व नहीं दिया जाता है।" , यह बात उस दिन मास्टर जी ने अपनी नौकरी न मिलने के बारे कही थी।
क्योंकि अगर बाज़ार खरीदने या बेचने के लिए तैयार है, तो वही बिकेगा, जो बाज़ार बेचना या खरीदना चाहेगा , कीमत भी बाज़ार की अपनी मर्ज़ी पर होगी, अब तो यह बाज़ार हमारी मेहनत खरीदने को भी तैयार नहीं है।
"विक्रेता सिर्फ बेचने के लिए बाज़ार में आता है और अंततः वह बेचा जाएगा।" मास्टर ने कहा।
मानसिक और शारीरिक श्रम, अब दोनों, क्योंकि एक ऐसी अवधारणा बनाई और बेची जा रही है, जिसने मज़दूर के हाथ और सोच दोनों को पंगु बना दिया है।
"हमारे जैसे कुछ दिमाग अवधारणाएं बनाते हैं, उन्हें बाज़ार में बेचते हैं, उन्हें बताते हैं कि बाज़ार कैसे चलाना है, इसमें पैसा कैसे निवेश करना और बढ़ाना है।" मास्टर जी उसे अपने विचार बता रहे थे।
"लेकिन हम इस अवधारणा को नहीं समझते हैं। हमारे श्रम की कीमत नहीं बढ़ रही है, अब हमें काम नहीं मिल रहा है," दोनों ने कहा।
काश! बाज़ार की ऐसी कोई अवधारणा नहीं है, हमें खाली हाथ घर नहीं आना है, हम खाली रसोई के बर्तन और बच्चों के उदास चेहरे नहीं देखना चाहते हैं और इस अर्थहीन अवधारणा को हमारे घर को बर्बाद नहीं करने देना है।
"अब आपको खुद से पूछना होगा और अपने दोस्तों को इस बाज़ार के बारे में बताना होगा।" मास्टर जी ने अपनी बाइक आगे बढ़ाते हुए कहा।
"मौलिक व अप्रकाशित"
सादर नमस्कार। विषयांतर्गत अवधारणाओं और सोच पर बढ़िया रचना। हार्दिक बधाई प्रविष्टि हेतु आदरणीय मोहन बेगोवाल जी। संवादों में भी विवरणात्मक हो जाने से वैसा प्रभाव नहीं लगा।
जनाब मोहन बागोवाल जी, सुन्दर लघुकथा हुई है, मुबारक बाद कुबूल फरमाएं
आ.मोहन जी,सहभागिता हेतु बधाई। हां,जहां तक अवधारणा की बात है,तो देखा यही जा रहा है कि एक की अवधारणा किसी दूसरे के पास गिरवी है;चाहे वह आर्थिक कारण से हो,जातिगत या किसी अन्य कारण से।बस "जय -जयकार" वाली परंपरा को बढ़ावा मिल रहा है।"मेहनत की मलाई से मुफ्त की सूखी रोटी भली" लगने लगी है।
आ. भाई मोहन जी, अच्छी लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
संदेश परक सुन्दर रचना के लिए बधाई।
आ. मोहन बेगोवाल साहब, लघुकथा बाजार की अवधारणा पर आपका मत अधिक और कथानक नगण्य है ! मुझे क्षमा करें प्रस्तुति आलेख ज्यादा और लघुकथा कम लगी!
ङील
संयुक्त परिवार के मुखिया चौधरी जगपाल सिंह का बेटा हरपाल य़ूँ तो परिवार में सबसे बड़ा था लेकिन युवा होते उसका व्यक्तित्व और शारीरिक विकास उसके चचेरे भाईयों से बिल्कुल अलग था । बह सवसे अलग-थलग अकेला रहता और गुमसुम बना रहता। अन्य ग्रामीण युवकों की तरह उसे गाँव के रास्तों पर
खड़े होकर लड़कियों को अनयान्य तरीकों से गुदगुदाना अथवा चुहुलबाजी करना बिल्कुल पसन्द नहीं था । हाँ सुघड़ शरीर वाले गाँव के अखाड़े के उभरते पहलवानों में उसकी विशेष रुचि थी, खासकर बाल- पहलवानों में..... उन्हें अपने घेर में ले आता । खुद गायों को दुहकर कच्चा दूध पिलाता । घेर में रखे सरसों के तेल से उनका मसाज करता ।या फिर उनके चले जाने पर गुमसुम पड़ा रहता। परिवार मे सब अपने- अपने कामों मे वयस्त रहते । उसके पिता को तो अपनी चौधराहट, गाँव की राजनीति से फुरसत नहीं थी। और, हुक्के पर दोस्तों के साथ गप-शप करते उनका सारा समय कब बीत जाता था, उन्हें पता ही नहीं चलता था ।
खेत-खलिहान की सारी जिम्मेदारी चार छोटे भाईयों ने सँभाल रखी थी।
एक दिन अचानक पास के गाँव से कुछ लोग आकर चौ.जगपाल सिंह से मिले और अपनी अठारह वर्षीय बेटी का विवाह प्रस्ताव हरपाल के लिए लाये। चौ. साहब की तो जैसे तन्द्रा टूटी । उन्होंने इसकी सूचना नौकर के माध्यम से घर पर चौधरन के पास पहुँचवाई। चौधरन और चौ. जगपाल सिंह ही नही पूरा संयुक्त परिवार खुशी से सराबौर हो उठा । जल्दी ही मुहूर्त निकलवाकर हरपाल की शादी मानसी से कर दी गयी। इन्टर पास बहू ग़जब की खूबसूरत थी ।
सुहागरात की घड़ी भी आ पहुँची । लेकिन हरपाल को आश्चर्यजनक रूप से मानसी मे कोई आकर्षण नहीं दिखायी पड़ा।मानसी हैरान थी, स्कूल में किस तरह उसके सहपाठी लड़के उसकी एक नज़र पड़ जाय तो गद़गद हो जाया करते थे । कई तो बहाने से शरारत करते उसके अंगों को छू जाते थे । और, यहाँ सुहागरात को उसका पति गाँव के मेलो- ठेलों , नदी-मुहानों पर तैराकी और खेत-खलिहान की सौ-सौ बातें कर रहा था, लेकिन एक बार, उसने, "मानसी, तुम बहुत खूबसूरत हो", नहीं कहा। उसके तन-बदन में आग लग रही थी, बोड़म पति बर्फ सा पानी बाल्टी भर-भर उस पर उँडेले जा रहा था, निरा पागल......।
पीहर लौटते ही उसने अपना दुखड़ा सहेलियों को बताया तो उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ ।
बात माँ-बाप तक पहुँची तो वे भी हैरान...परेशान.... क्योंकि उन्होंने हरपाल के विषय में खूब जाँच-पड़ताल की थी, सभी जानकारों ने चौ. जगपाल सिंह के खानदान, घर-परिवार और लड़के हरपाल के चाल-चरित्र के बारे में पूरी तरह उन्हे आश्वस्त रहने को कहा था।
होली के बाद चौ. जगपाल सिंह ने हरपाल और उसके चचेरे भाइयों के साथ पहुँचने और गौना कराकर मानसी को पुनः ससुराल ले आने की सूचना दी। लकिन मानसी के पिता ने खुद मानसी की ससुराल पहँचकर अपनी और चौधरी जगपाल सिंह की इज़्जत का हवाला देकर हरपाल की जाँच कराने की ज़रूरत पर जोर दिया ।
स़युक्त परिवार को पहले तो यह बहुत नागवार गुजरा, लेकिन बेटे के पुरुषत्व को ललकारा गया था। शहर के अलग- अलग डाँक्टर्स की जाँच के बाद सही बात का पता चला। केवल युवा सुघड़ शरीर वाले पुरुष ही हरपाल की पहली और अन्तिम पसंद थे । स्त्रियों में उसे कोई रुचि नहीं थी। अब जाकर हरपाल की माँ पर राज़ खुला, आखिर क्यों हरपाल उभरते बाल-पहलवानों को स्वयं गाय़ दुहकर कच्चा दूध पिलाता और उनका मसाज किया करता था ।
दोनों परिवारों ने इस गम्भीर समस्या पर गहन चिन्तन किया और पूर्व निश्चित कार्यक्रमानुसार हरपाल और उसके चचेरे भाई मानसी का गौना कराकर ले आये ।और, ससुराल आने पर मानसी को समस्या का हल बता दिया । असल में, सबसे बड़े चचेरे भाई अमरपाल के घर मानसी को बैठा दिया गया।
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