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इस बार का तरही मिसरा 'बशीर बद्र' साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई"
वज्न: 212 212 212 212
काफिया: ई की मात्रा
रद्दीफ़: रह गई
इतना अवश्य ध्यान रखें कि यह मिसरा पूरी ग़ज़ल में कहीं न कही ( मिसरा ए सानी या मिसरा ए ऊला में) ज़रूर आये|
मुशायरे कि शुरुवात शनिवार से की जाएगी| admin टीम से निवेदन है कि रोचकता को बनाये रखने के लिए फ़िलहाल कमेन्ट बॉक्स बंद कर दे जिसे शनिवार को ही खोला जाय|

इसी बहर का उदहारण : मोहम्मद अज़ीज़ का गाया हुआ गाना "आजकल और कुछ याद रहता नही"
या लता जी का ये गाना "मिल गए मिल गए आज मेरे सनम"

विशेष : जो फ़नकार किसी कारण लाइव तरही मुशायरा-2 में शिरकत नही कर पाए हैं
उनसे अनुरोध है कि वह अपना बहूमुल्य समय निकाल लाइव तरही मुशायरे-3 की रौनक बढाएं|

Views: 8804

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Replies to This Discussion

समयाभाव के चलते मै कोई ग़ज़ल नहीं लिख सका हूँ, लेकिन चाह कर भी खुद को इस मुशायरे से दूर नहीं कर प् रहा हूँ| ये चन्द पंक्तियाँ आप की नज़र कर रहा हूँ|

क्या क्या न मिला ज़िन्दगी से मुझे,
कहीं आँखों में एक नमी रह गयी|
वज्म-ए-जिंदगानी सजी तो मगर,
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गयी||

मुझको लम्बे सफ़र में यहाँ जो मिला;
पास तुम ही रहे, उनसे था फासला|
राह जिस पर कभी साथ गुजरे थे हम;
आँख उस राह को ताकती रह गयी||
वज्म-ए-जिंदगानी.........................
मुशायरा मे शिरकत किये यह भी कम नहीं है , शाबाश आशीष !
Mumtazji kmaal kr diya. har shabd dil se nikla hai. dil ko chu gai sayri. lagta hai jmane ne ghree jakhm diye hai jo shabdo ke roop me samne aye. saduwaad.
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मुक्तिका:

क्यों?.....

संजीव 'सलिल'
*
मुक्त से मुक्ति ही क्यों छिपी रह गई?
भक्त की भक्ति ही क्यों बिकी रह गई?

छोड़ तन ने दिया, मन ने धारण किया.
त्यक्त की चाह पर क्यों बसी रह गई?

चाहे लंका में थी, चाहे वन में रही.
याद मन में तेरी क्यों धँसी रह गई?

शेष कौरव नहीं, शेष यादव नहीं..
राधिका फाँस सी क्यों फँसी रह गई?

ज़िंदगी जान पाई न पूरा जिसे
मौत भी क्यों अजानी बनी रह गई?

खोज दाना रही मूस चौके में पर
खोज पाई न क्यों खोजती रह गई?

एक ढाँचा गिरा, एक साँचा गिरा.
बावरी फिर भी क्यों बावरी रह गई?

दुनिया चाहे जिसे सीखना आज भी.
हिंद में गैर क्यों हिन्दवी रह गई?

बंद मुट्ठी पिता, है हकीकत यही
शीश पर कुछ न क्यों छाँव ही रह गई?

जिंदगी में तुम्हारी कमी रह गई
माँ बिना व्यर्थ क्यों बन्दगी रह गई?

बह रहा है 'सलिल' बिन रुके, बिन थके.
बोल इंसान क्यों गन्दगी रह गई?

**************************************
बेहतरीन शेअर कहे हैं अपने आचार्य जी ! हर शेअर एक अलग रंग लिए हुए मगर हर लिहाज़ से मुकम्मिल ! वाह वाह!
धन्यवाद, प्रभाकर जी. कोशिश है कि कुछ अछूते पहलुओं को सामने ला सकूँ.
मूड नहीं नवीन भाई जी - आचार्य जी "रंगत" में आ गए है !
भूतकाल, वर्तमान काल को समेटे और भविष्य की तरफ इशारा करती यह ग़ज़ल बिलकुल अलग कलेवर मे है, मैं तो यही कहूँगा कि हर हर महादेव, अदभुत संयोग है हम सब के लिये, बहुत बहुत बधाई आचार्य जी, आप से हम सब को अभी बहुत सीखना है |
भाई ये मुक्तिकाएँ कुछ कह भी पाती हैं या नहीं? अभी तो मैं ही सीखने की कोशिश कर रहा हूँ.
नमस्ते,
आपकी मुक्तिकाओं ने बरबस ध्यान खींचा है और मैं प्रसन्न हूँ सलिलजी.

>>मुक्त से मुक्ति ही क्यों छिपी रह गई?
भक्त की भक्ति ही क्यों बिकी रह गई?
आपकी इन पंक्तियों में वह सारा कुछ कहा हुआ दिख रहा है जो मन में कई-क।ई दिनों से घुमड़ रहा था.

>>छोड़ तन ने दिया, मन ने धारण किया.
त्यक्त की चाह पर क्यों बसी रह गई?
’कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरण..’ का बेजोड़ प्रारूप सलिलजी. बहुत-बहुत बधाई..

>>चाहे लंका में थी, चाहे वन में रही.
याद मन में तेरी क्यों धँसी रह गई?
अद्भुत्.. विकलांग विवशताओं का अद्भुत् चित्रण.
युद्ध हुआ.. लायी गयी.. और फिर चली गयी.. कह न सका एक बार भी वो अभागा.. ’रे, मन के मूढ़!.. विद्या से विलग!! संतुलित हो कर बोल..’ .. बस मन में बोझ लिए जीता चला गया..
इसी श्रेढ़ी की शृंखला में आगे ...>>शेष कौरव नहीं, शेष यादव नहीं.. //राधिका फाँस सी क्यों फँसी रह गई?

और, सितम्बर के महीने में इस तर्ज का आना लाजिमी था -
>>दुनिया चाहे जिसे सीखना आज भी.
हिंद में गैर क्यों हिन्दवी रह गई?

इस बंद को मेरा नमन -
>>जिंदगी में तुम्हारी कमी रह गई
माँ बिना व्यर्थ क्यों बन्दगी रह गई?

बह रहा है 'सलिल' बिन रुके, बिन थके.
बोल इंसान क्यों गन्दगी रह गई?>>
वाह.. कुल मिला कर एक मनसायन यात्रा रही.. पुनः बधाई.
bahut bahut shukriya janab
मोहतरम दोस्तों, पांच और ताज़ा शेअर आपकी नजर कर रहा हूँ, मुलाहिजा फरमाएं :

देश की बात से, कौम की बात से
आज की शायरी दूर ही रह गई !

लाज को ढांपती,कौरवों में घिरी,
कृष्ण को ढूँढती द्रौपदी रह गई !

हो सकी दूर ना देश से भूख ही,
देश की उन्नति कागज़ी रह गई !

जा सकी ना कभी ये ज़मीं छोड़ के,
हिन्दवी में बसी फ़ारसी रह गई !

कोठड़ी चू रही, पेट में भूख भी ,
बूढी माँ भीगती, सूखती रह गई !

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