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वाह ... सतीश जी इस गैर मुर्दाफ ग़ज़ल ने मौसम बाँध दिया है ... लाजवाब ...
अच्छा प्रयास.
अच्छा प्रयास। बधाई
अच्छे ख़यालात , ज़रा मेहनत करके गज़ल की तकनीक ( छंद ग्यान) सीखी जा सकती है
जिससे आपकी तहरीर मुमताज सी नज़र आयेगी। बधाई।
सतीश भैया OBO पर आपका इन्तजार हमेशा रहता है , अच्छी प्रस्तुति |
अब कैसे करें इस बात पे शिकायत
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत
बात बन गयी बिन किये कुछ महनत
बरस पड़ी थी शायद उसी की रहमत
तू सामने हो और बयां हो हालत
इतनी कहाँ हमने पाई है हिम्मत
जो ग़ज़ल देती थी मेरे दिल को रहत
महफ़िल में बन गयी वो मसला ऐ इज्ज़त
करूंगा में सम्हाल कर चलने की जुर्रत
होगी मुझे जब लड़खड़ाने से फुर्सत
नींद में रहकर जब ख्वाब करते हैं खिदमत
फिर क्यों जागूं में मुझे क्या है ज़रुरत
उसी का खेल था सब,थी उसी की शरारत
हर हाल में था हार जाना जो करता में हरकत
गिरा सकती थी मुझे इस ज़माने की शोहरत
अगर न थामती मुझे तेरे हाथों की हरारत
अच्छी कोशिश. पहले से बेहतर...
bhaskar bhai...umda khayalat hain..badhai
तू जब सामने हो बयां हो न हालत
कहां हमने पाई है इतनी भी हिम्मत।
आपके कहे शे'र को मैंने कुछ हेर फ़ेर करके छंद में पिरोया है, तव्व्जो दें।
आपके ख़यालात बेहद मजबूत है, थोड़ी सी मेहनत से बहर ग्यान प्राप्त
कर सकते हैं फ़िर देखियेगा क्या मज़ा आता है।
पहले से बेहतर प्रयास भास्कर भाई !
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