रामाख्यानो में राम को चाहे विष्णु के अवतार के रूप मे प्रतिष्ठित किया गया हो या उन्हें सामान्य मानव दर्शाया गया हो, दोनों ही स्थितियों में राम –रावण युद्ध के दौरान उन्हें कदाचित पराभव की सम्भावना से कहीं भी उद्विग्न नहीं दर्शाया गया है I मानस में तो राम इतने आश्वस्त है कि वे सुग्रीव से कह उठते है – ‘जग मंहि सखा निसाचर जेते I लछिमन हतहिं निमिष मह तेते I’ ऐसा दुर्धर्ष अनुज यदि साथ है तो बड़े भाई को क्या फ़िक्र I जब रावण का सिर कटने पर फिर उनका अभ्युदय होने लगा तब राम चिंतित तो हुए पर भयाक्रांत नहीं हुये I लक्ष्मण को जब शक्ति लगी तब राम चिंतित भी हुए और शोकाकुल भी हुए पर भय की भावना उनके मन में कभी नहीं आयी I राम की यही अप्रतिहत मानसिक स्थिति और उनका संकल्प–कान्त मुख सदैव उनकी विलक्षण सेना के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा है I किन्तु ‘राम की शक्ति पूजा’ में महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने राम को तो पराजय के भय से शंकित और आक्रांत दर्शाया ही उनकी सेना के बड़े-बड़े वीर भी उतने ही घबराये और चिंतित दिखते हैं I सायं युद्ध समाप्त होने पर जहाँ राक्षसों की सेना में उत्साह व्याप्त है वही भालु-वानर की सेना में खिन्नता है I वे ऐसे मंद और थके-हारे चल रहे हैं मानो बौद्ध स्थविर ध्यान-स्थल की ओर प्रवृत्त हों –
लौटे युग-दल ! राक्षस-पद-तल पृथ्वी टलमल’
विंध महोल्लास से बार –बार आकाश विकल I
वानर वाहिनी खिन्न,लख-निज-पति-चरण-चिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविर-दल ज्यों बिभिन्न
निराला ने राम को उनकी परंपरागत दिव्यता के महाकाश से उतार कर एक साधारण मानव के धरातल पर खड़ा कर दिया है, जो थकता भी है, टूटता भी है और जिसके मन में जय एवं पराजय का भीषण द्वन्द भी चलता है I वानरी सेना की जो दशा है वह तो है ही स्वयं राम की स्थिति दयनीय है I वे एक ऐसे विशाल पर्वत की भांति है जिनपर छितराए हुए केश जाल के रूप में रात्रि का सघन अंधकार छाया हुआ है और प्रतीक योजना से यह अंधकार उस पराजय-संकट को भी रूपायित करता है जो राम के हृदय में किसी प्रचंड झंझावात की भांति उमड़ रहा है और तारक रूपी आशा की किरणें वहां से बहुत दूर नीले आकाश से आ रही है I निदर्शन निम्न प्रकार है –
श्लथ धनु-गुण है, कटि-बंध त्रस्त-तूणीर-धरण
दृढ जटा-मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर विपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार
चमकती दूर ताराएँ त्यों हो कहीं पार !
संकट की ऐसी घडियो में प्रायशः आगामी रणनीति पर चर्चा हेतु सभाएं की जाती हैं I राम श्वेत शिला पर आरूढ़ हैं I सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान, नल –नील, गवाक्ष सभी उपस्थित हैं I लक्ष्मण राम के पीछे हैं I हनुमान कर-पद प्रक्षालन हेतु जल लेकर उपस्थित हैं I सेना को विश्राम का आदेश दे दिया गया है I निराला जी यहाँ फिर प्रतीकों का सहारा लेते है और आसन्न पराजय-संकट का एक डरावना चित्र उभरता है –
है अमा निशा, उगलता गगन घन-अंधकार
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन–चार
इतना ही नहीं सागर अप्रतिहत गर्जन कर रहा है I मशाले संशय की भांति लपलपा रही है I राम स्वयं हैरान है कि जो ह्रदय अयुत–लक्ष सेना के सामने भी न थका न दमित हुआ वह क्यों भावी युद्ध के प्रति असमर्थ भाव लेकर असहाय सा खड़ा हो गया है –
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय
रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय-भय
जो नहीं हुआ है आज तक ह्रदय रिपुदम्य-श्रांत
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार
असमर्थ मानता मन उद्दत हो हार-हार !
सभा अभी आरम्भ नहीं हुयी I अचानक राम के हृदय में सीता की स्मृति कौंधती है I जब पराजय का सकट हो तो उसकी याद आना स्वाभाविक है जिसके निमित्त युद्ध लड़ा जा रहा है, क्योंकि युद्ध के परिणाम का सर्वधिक प्रभाव तो उसी पर पड़ना है I पर यदि आलंबन प्रेयसि है और प्रेम प्रथम-दृष्टि-मिलन (Love at first sight) से प्रोद्भूत हुआ है तो प्रथमतः उस क्षण की याद आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है I निराला इस स्वाभाविक मानव वृत्ति को नही भूलते I
नयनों का- नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान पतन
कांपते हुए किसलय –झरते पराग समुदय
गाते खग नव-जीवन-परिचय तरु मलय-वलय
ज्योतिः प्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय-
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन-तुरीय
लेकिन कवि-प्रयोजन इतने मात्र से सिद्ध नहीं होता I सीता स्मृति के बहाने राम उन गौरवशाली क्षणों की भी याद करते हैं, जब-जब जय ने उनका वरण किया था I आसन्न पराजय के संकट से उबरने के लिये और नवीन आत्म विश्वास अर्जित करने हेतु काव्य में इस प्रसंग की योजना अपरिहार्य थी I किन्तु राम का आत्म-विश्वास वापस नहीं आता I उसका एक प्रमुख कारण भी है I आज के युद्ध में उन्होंने कुछ विलक्षण दर्शन किया है, जो इससे पहले कभी नहीं हुआ I इस युद्ध में साक्षात् रण देवी रावण के पक्ष में खडी होकर राम के अस्त्रों को निष्फल कर रही है और यह रावण के उन्मुक्त अट्टहास का पर्याय बनता जा रहा है I राम की आंखो से जल की दो बूंदे टपक पडी I
फिर देखी भीमा-मूर्ति आज रण देवी जो
आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ-बुझ कर हुए क्षीण
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन
* * *
फिर सुना- हंस रहा अट्टहास रावण खल-खल
भावित् नयनो से सजल गिरे दो मुक्ता दल
राम की इस भाव मुद्रा में उनके चरणों का अवलोकन पवनपुत्र हनुमान कर रहे है और उसी में अस्ति-नास्ति की संभावनाओ की परिकल्पना करते हुए अपने आराध्य के नाम का अजपा जाप कर रहे है I तभी अश्रु की बूंदे राम के चरणों में आ गिरी I हनुमान को प्रथमतः लगा कि यह दृग –जल न होकर आकाश के चमकते तारे हैं और ये चरण राम के नहीं श्यामा अर्थात काली माता के है, जिनमे दो तारे या कौस्तुभ मणियां चमक रही है I फिर शीघ्र ही उन्हें सत्य का बोध हुआ कि यह तो स्वामी के दृग-जल है I इस विचार के दृढ होते ही हनुमत-शक्ति जाग्रत होने लगी I पवनपुत्र को अपने पिता का संबल मिला I उनके उच्छ्वास से निकला वाष्प मेघ बन कर आकाश में छा गया I उन्चासो मरुत के वेग से समुद्र में शत-शत आवृत्त सक्रिय हो उठे I गगनचुम्बी तरंगे टूटने लगी I स्थिति यहाँ तक पहुँची कि साक्षात् शंकर भगवान् स्वरुप ग्यारहवे रूद्र का आक्रोश महाकाश तक जा पहुंचा और महारुद्र का प्रलयंकारी अट्टहास गूंजने लगा I
शत पूर्णावर्त, तरंग –भंग, उठते पहाड़
जल-राशि राशि-जल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बंध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत-वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश-भाव,
जल-राशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुंचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास I
इस आंदोलित महारुद्र शक्ति के प्रतिपक्ष में रावण की महिमा थी I वह शक्ति अंधकार और रात के सामान काली कलिका माँ की थी I इसके साथ ही उधर रावण-दश-स्कंध पूजित शिव-शक्ति भी थी I हनुमान समस्त महाकाश को लीलने हेतु उद्दत हुये I भगवान् शंकर समझ गए कि अब सृष्टि विनाश तय है I उन्होंने तुरंत कलिका माँ को हनुमान की वास्तविकता से अवगत कराया और अपनी शक्ति का संवरण करने का अनुरोध किया I साथ ही यह भी चेतावनी दी कि शक्ति का संवरण न करने पर देवी की पराजय निश्चित है I
इस स्थल पर निराला की उत्कट काव्य प्रतिभा के दर्शन होते है I देवी शक्ति का संवरण करे यह तो महाशक्ति के लिए पराजय ही नहीं लज्जा की भी बात थी I फिर इन महाशक्तियो का टकराव कैसे रुके I शंकर ने मध्यस्थता की पर यह निदान नहीं था I यहाँ पर निराला जी की मौलिक उद्भावना भास्वर होती है I अचानक हनुमान के समक्ष माता अंजना प्रकट होती है I यहाँ मनोविज्ञान यह है कि पुत्र कितने भी क्रोध में क्यों न हो पर वह माँ की बात का सहसा उल्लंघन नही कर सकता I माता ने कहा कि तुमने पूर्व में सूर्य को लील लिया था तब वह तुम्हारा बचपना था पर आज यह क्या करने जा रहे हो महाकाश में महाशिव विराजते है जो तुम्हारे स्वामी राम के आराध्य है तो क्या प्रभु राम ने इसकी अनुमति तुम्हे दी है I हनुमान शांत ही नहीं
दीन-हीन से हो गये I
अब भावी रणनीति तय करने हेतु सभा प्रारंभ हुयी I विभीषण ने कहा कि सब कुछ वैसा ही है I न प्रभु का तरकश खाली है न उनका पराक्रम क्षीण हुआ है I मेघनाद–विजेता लक्ष्मण उतने ही सजग एवं गंभीर हैं I जाम्बवान, सुग्रीव, अंगद, हनुमान सभी दुर्धर्ष वीर ज्यों के त्यों हैं और विजय भी दूर नहीं है I ऐसे अवसर पर प्रभु खिन्न एवं युद्ध-दीन हो रहे है I
हैं वही दक्ष सेना नायक है वही समर,
फिर कैसे असमय हुआ उदय भाव-प्रहर !
रघुकुल-गौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण
तुम फेर रहे हो पीठ हो रहा हो जब जय रण
इस प्रसंग में भी निराला की काव्य-पटुता मुखरित होती है I यह उद्बोधन विभीषण के अतिरिक्त और कौन कर सकता था I विभीषण को लंकेश के रूप में राम ने अभिषिक्त किया था I सीता की दुर्दशा के वे प्रत्यक्षदर्शी थे I राम के सहज मित्र थे I यद्यपि मित्र सुग्रीव भी थे पर वे सेनानायक के उत्तरदायित्व से बंधे थे I वे राम को युद्ध-दीन कैसे कह सकते थे I उन्होंने तो राम का पराक्रम अपनी आँखों से कई बार देखा था I पर विभीषण युद्ध से प्रायशः विरत थे, उन्हें रण-देवी के कलाप ज्ञात नहीं थे और उनका प्रमुख कार्य मंत्रणा देना ही था I अतः निराला ने इस प्रसंग में उनके चरित्र का सार्थक उपयोग किया है I राम की चिंता सर्वथा भिन्न थी i अतः विभीषण की बातो का उन पर कोई प्रभाव नही पड़ा और वे निर्विकार ही बने रहे I वे समझ गए कि विभीषण को अभी युद्ध के सत्य का वास्तविक ज्ञान नहीं है I अतः राम ने इस सत्य से मित्र को अभिज्ञ कराया I
बोले रघुमणि –“मित्रवर , विजय होगी, न समर
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण
उतरी पा महाशक्ति रावण से आमंत्रण ;
अन्याय जिधर है उधर शक्ति I” कहते छल –छल
यहाँ निराला ने मानो युग-सत्य को जीवंत कर दिया है I हम प्रायः जीवन में देखते है शक्ति हमेशा अन्यायियो के पास ही होती है क्योंकि वे उसे अर्जित करते है I सरल व्यक्ति सोचता है उसे शक्ति की क्या आवश्यकता I इसीलिये वह सदैव प्रताड़ित होता है I कवि का सन्देश है कि सरल हो तो क्या शक्तिशाली बनो I शक्ति के बिना अन्याय से त्राण नहीं है या फिर जीवन भर अन्याय सहते रहो I निराला का यह उनका अपना निजी जीवन-दर्शन भी था I उनका शरीर भी बलिष्ठ था I वे मानसिक रूप से भी सशक्त थे I वे आजीवन
जीवन और परिस्थितियों से लड़ते रहे और कभी हार नहीं मानी I उनके निज जीवन का दर्शन ‘राम की शक्ति-पूजा’ महाकाव्य के इस प्रसंग में भास्वर हो उठा है I राम की आँखों में फिर जल आ गया I लक्ष्मण उर्ज्वास्वित हो उठे I हनुमान प्रभु के चरण पकड़ कर ऐसे दीन और संकुचित हो गए मानो डंडे पर कोई मच्छर बैठा हो I सुग्रीव व्याकुल हो उठे और विभीषण चिंता में पड़ गये I राम ने आगे फिर कहा कि यह दैवीय विधान समझ से परे है कि शक्ति अधर्मरत रावण के पक्ष से आक्रामक है I इसीलिये मेरे वे सभी बाण निष्फल हो जाते हैं जिनसे सम्पूर्ण संसृति जीती जा सकती है I
बोले –“आया न समझ में यह देवी विधान
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मै हुआ अपर,-
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर !
करता मै योजित बार-बार शर-निकर निशित’
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित
* * *
शत-शुद्धि-बोध–सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक
जिनमे है छात्र धर्म का धृत पूर्णाभिषेक
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित
वे शर हो गए आज रण में श्रीहत, खंडित !
सारी सभा सजग भाव से सुन रही है I युद्ध क्षेत्र की विलक्षण दैवीय परिस्थितियों का राम एक के बाद एक रहस्योद्घाटन करते जा रहे हैं I राम ने देखा के महाशक्ति निःशंक भाव से रावण को अपने गोद में उसी प्रकार लिए है जैसे चंद्रमा की गोद में उसका लान्छन I वह राघव के सभी मंत्रपूत बाणों का संवरण कर देती है I सभी प्रहार निष्फल होते जाते हैं I ज्यो–ज्यो राम हताश होते है उतनी ही शक्ति माँ की आंखे अधिकाधिक धधकती जाती हैं और अंततः जब उन्होंने राम की ओर निहारा तो राम के हाथ ऐसे बंध गये मानो किसी जादूगरनी ने उन्हें कीलित कर दिया हो I फिर उनसे धनुष की प्रत्यंचा नहीं खिंची I राम के लिए यह कल्पनातीत अवस्था थी I
देखा है महाशक्ति रावण को लिए अंक
लांछन को लेकर जैसे शशांक नभ में अशंक;
हत मंत्र –पूत शर सम्वृत करती बार-बार
निष्फल होते लक्ष्य पर छिप्र वार पर वार
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मै ज्यो-ज्यो ,
झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों –त्यों
पश्चात् ,देखने लगी मुझका बंध गए हस्त
फिर खिंचा न धनु , मुक्त ज्यों बंधा मैं, हुआ त्रस्त !
संकट के समय समुदाय में जो सबसे बुजुर्ग एवं अनुभवी होता है वही ढाढस बंधाता है और वही उबरने का उपाय भी तय करता है I इसी मनोविज्ञान के आधार पर निराला ने राम का प्रबोधन करने हेतु जरठ जाम्बवान का चयन किया I_क्षपति ने वही किया जो ऐसे अवसर पर वयोवृद्ध से अपेक्षित होता है I जाम्बवान ने कहा इसमें संकट की क्या बात है ? जो शक्ति रावण ने अर्जित की है वही राम भी अर्जित करे और तब तक के लिए युद्ध से विरत हो जांय I इस बीच युद्ध सौमित्र के निर्देशन पर लड़ा जायेगा I यह मंत्रणा सभा में सभी को अच्छी लगी और राम ने भी इसका अनुमोदन किया I उन्होंने ध्यान मे देवी का स्मरण किया I उन्होंने देखा महिषासुरमर्दिनी देवी सिंह पर आरूढ़ है I उनके पद-तल पर सिंह निशंक गर्जना कर रहा है I उन्होंने मन हे मन देवी से कहा कि माँ, मैं आपका संकेत समझ गया हूँ अतः अब मैं इसी सिंह भाव से आपकी आराधना करूंगा I जैसे यह आपके पद-तल पर है वैसे मै भी आपके चरणों की शरण में रहूँगा और जैसे यह आपकी अभिरक्षा में निशंक गर्जन कर रहा है वैसे ही मै भी करूंगा I
‘माता, दशभुजा, विश्व-ज्योति; मै हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है महिषासुर खल मर्दित;
जन-रंजन–चरण–कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित;
यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित;
मै सिंह, इसी भाव से करूंगा अभिनंदित I
आराधना-संकल्प-भासित-वदनयुत राम की भाव दशा ऐसी हो गयी है कि सम्मुख स्थित शैल में भी उन्हें देवी प्रतिभासित दीखती है और वे अपने सहयोगियों को भी इस सत्य से अभिज्ञ कराते हैं –
देखो, बंधुवर, सामने स्थित जो वह भूधर
शोभित शत-हरित-गुल्म-त्रण से श्यामल सुन्दर ,
पार्वती कल्पना है इसकी मकरंद –बिंदु;
गरजता चरण-प्रान्त पर र्सिंह वह नहीं सिन्धु;
दशदिक् समस्त है हस्त और देखो ऊपर
अम्बर में हुए दिगम्बर चर्चित शशि शेखर
राम ने हनुमान को निर्देश दिया कि वह जाम्बवान से स्थल का संज्ञान प्राप्त कर ऊषाकाल तक देवी–दह से अनुष्ठान हेतु 108 शतदल कमल लेकर आयें I इस प्रकार अनुष्ठान संकल्पित राम पूजन प्रवृत्त हो युद्ध से अल्पकाल के लिए विरत हुये I अब राम धनु –तूणीर विहीन है I जटा भी बद्ध नहीं है I रण के कोलाहल से वे दूर है I उनका सारा ध्यान दश-भुजा दुर्गा के नाम-जाप में लगा है I वे कुण्डलिनी जाग्रत करने में लगे है I चक्र पर चक्र पार होते जा रहे हैं I वे एक जप पूरा कर एक शतदल देव्यार्पित करते जाते हैं I छठे दिन उनका मन आज्ञा-चक्र पर समासित हुआ I त्रिकुटी पर ध्यान जमते ही अम्बर में कम्पन प्रारंभ हो गया I आठवें दिन मन त्रिदेवो का स्तर भी पार कर गया I राम ने ब्रह्माण्ड को अपने अधीन कर लिया I देवता स्तब्ध हो उठे I
आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर स्तर
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध;
हो गए दग्ध जीवन के तप के समारब्ध;
अंततः परीक्षा की घड़ी आयी I निराला ने इस हेतु एक करिश्माई विधान किया i सच कहा जाय तो यही ‘राम की शक्ति-पूजा’ का चरम-बिंदु (Climex) है I इसी मौलिक उद्भावना और वस्तु के सुगठित विन्यास के बल पर इस छोटी काव्य-रचना को बेहिचक महाकाव्य स्वीकार किया गया I राम की कुण्डलिनी जाग्रत होकर जब सहस्रार के स्तर पर पहुँची देवी माता ने सहसा उन शतदलों में से एक का हरण कर लिया I अंतिम जाप पूर्णकर राम ने ज्योही अंतिम पुष्प चढ़ाने के लिए स्थान को टटोला तो वहां कोई शतदल शेष नहीं था I जब सिद्धी आसन्न हाथो में थी तब इतना बड़ा विघ्न I राम विह्वल हो उठे I हे प्रभो क्या आसन असिद्ध होकर छोड़ना पड़ेगा I उनका मन विषण्ण हो गया I वह सोचने लगे कि उनका सारा जीवन इसी प्रकार पारिस्थितिक विरोधो को सहता आया है I उन्होंने आजीवन केवल साधन जुटायें है पर सफलता नहीं मिली है I इस स्थल पर भी निराला के व्यक्तिगत जीवन की कुंठा ने मूर्त्त रूप लिया है I
धिक्, जीवन जो पाता ही आया है विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए किया है सदा शोध
जानकी ! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका;
वह एक ओर मन रहा राम का जो न थका ;
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय
निराला का वैशिष्ट्य राम के चरित्र को मानवीय, मनोवैज्ञानिक विकारग्रस्त और फिर अप्रतिहत बनाने के अद्भुत कौशल में अंतर्भूत है I राम का एक मन वह भी है जो कभी थकता नहीं जिसमें दैन्य टिकता नहीं जो माया के आवरण को भी विछिन्न कर देने में समर्थ है I अंततः उनकी यही प्रज्ञा राम का पथ प्रशस्त करती है और उनके मन में सहसा यह विचार कौंध उठता है – कौशल्या ‘माता कहती थी सदा मुझे राजीव नयन I’ मन में इस विचार के आते ही संकल्प दृढ हो उठा I राम अंतिम जाप के उपरांत पुरश्चरण पूरा करने हेतु पुष्प के स्थान पर अपना एक नेत्र देने को समुद्दत हुये I
‘यह है उपाय’ कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
“कहती थी माता मुझे सदा राजीव नयन I
दो नील कमल हैं शेष अभी यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन I”
तूणीर पास ही रखा था I राम ने उस ओर देखा I ब्रह्म-बाण वहां पर देदीप्यमान था I उन्होंने सहर्ष उसे उठाया I दाहिने हाथ से दांया नेत्र निकलने को उद्दत हए I कवि के शब्दों में इस प्रसंग का सौन्दर्य दर्शनीय है –
कहकर देखा तूणीर ब्रह्म –शर रहा झलक
ले लिया हस्त वह लक-लक करता महाफलक;
ले अस्त्र थामकर दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्दत हो गए सुमन
यह कोई साधारण स्थिति नहीं थी I राम के शर उठाते ही पूरा ब्रह्माण्ड काँप उठा और विद्युत् वेग से तत्क्षण देवी का वहां पर अभ्युदय हुआ I उन्होंने तुरंत राम का हस्त थाम लिया I राम ने विथकित होकर देखा I सामने माँ दुर्गा अपने पूरे स्वरुप एवं श्रृंगार में भास्वर थी I उन्होंने राम को आशीर्वाद दिया – ‘होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन !’ I इतना कहकर देवी राम के ही मुख में लीन हो गयी I यहाँ पर निराला की योजना के व्यापक अर्थ है और विद्वान बड़े कयास लगाते है I वह विचार एवं शोध का एक पृथक बिंदु है पर सरल व्यंजना यह है कि देवी ने रावण को अपने अंक में स्थान दिया था पर यहाँ वह स्वयम राम के ह्रदयांक में जाकर अवस्थित हो गयी I
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’राम की शक्ति पूजा’ निराला की अत्युउच्च अभिव्यक्ति है. उस कालजयी कृति के कई विन्दुओं को पुनः समक्ष करने के लिए आपका आभार, आदरणीय गोपाल नारायनजी.
राम के व्यक्ति स्वरूप और लोकाभिरंजक प्रारूप को जिस गहनता के साथ-साथ जिस महीनी से निराला उकेर पाये हैं, वह उनके समय में ऐसा करना सहज प्रयास नहीं रहा होगा. कहना न होगा, साहित्य का फलक अपने नये रंग-ढंग को रुपायित हुआ पा रहा था. निराला की अभिव्यक्ति की महत्ता यहाँ है.
आपने निराला की अभिव्यक्ति के माध्यम से रचनाधर्मिता में प्रभावी पात्रों के मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर समुचित विवेचना दे कर रचनाकर्म के इस सार्थक विन्दु को साझा किया है. निराला ही नहीं प्रसाद भी अपनी ’कामायनी’ या कई कथाओं में इस प्रभावी विन्दु, यानि पात्रों के मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अत्यंत प्रखर विवेचन, को पूरी गंभीरता से प्रयुक्त करते हैं. यही विन्दु आगे के रचनाकर्म का अनन्य भाग बनता गया. इसका व्यापक रूप अज्ञेय के रचनासंसार में देखने को मिलता है. जहाँ ’शेखर’ या नदी के द्वीप का ’भुवन’ अपनी समस्त मानवीय लघुताओं के बावज़ूद नायक हैं.
देखिये, ओबीओ के मंच पर प्रस्तुति-अभिप्रेषण से आगे रचनाकार-पाठक साहित्यिक विन्दुओं पर खुले विमर्श के लिए कब से या कैसे प्रस्तुत हो पाते हैं.
इस गहन तथा विचारोत्तेजक समीक्षा के लिए हार्दिक आभार.
सादर
आदरणीय सौरभ जी
आपकी विस्तृत टिप्पणी से मन आह्लादित हो गया i आपका शत-शत आभार i
इस कालजयी कृति की संक्षिप्त रूप में मनोवैज्ञानिक समीक्षा ने फिर से इस कृति को पढने के लिए प्रेरित किया है आदरणीय सादर धन्यवाद
वंदना जी
आपको प्राप्त प्रेरणा से मै अभिभूत हूँ i सादर i
निराला जी के अद्दभुत काव्य की अद्द्भुत समीक्षा करके आपने एक ओर पाठकों को रामयुग में पँहुचा दिया दूसरी ओर निराला जी के इस कालजयी संग्रह को पुनः पढने के लिए प्रेरित भी किया मेरे विचार से निराला जी ने प्रभु राम के देवत्व रूप में छुपे एक मानवीय रूप को भी उजागर किया है जिसके वशीभूत प्रभु राम भी एक साधारण मानव की तरह किसी अपने अर्थात अपनी पत्नी की मुक्ति के लिए हुए युद्द में चिंतित तथा कुछ क्षणों के लिए असुरक्षित भाव उनके मन में पँहुच कर उन्हें बिह्वल कर बैठे जो स्वाभाविक भी है ,दूसरे उनका देवत्व रूप आने वाले युगों को भी एक मेसेज देना चाहता था कि आत्मसम्मान के लिए अपनी इज्जत के लिए लड़ा गया युद्ध धर्म संगे न्याय संगत हो जिसमे पराजित होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता और निराला जी ने राम के उस रूप को आपने काव्य में भलीभांती जीवंत किया ,उनकी लेखनी को सर्वदा नमन के साथ इस सुन्दर समीक्षा हेतु आपकी लेखनी को भी नमन करती हूँ आ० डॉ० गोपाल नारायण जी.
महनीया राजेश कुमारी जी
आपने बहुत ही सुन्दर विचार रखे i निराला के अभिप्रेत तक आपकी पहुँच देखकर अच्छा लगा और लेख को भी आपकी संस्तुति मिली i सादर आभार i
अग्रज शरदिंदु जी
आपका स्नेह मेरे लिए प्रकृति का एक्व वरदान है जो उम्र के इस पड़ाव पर मुझे ईश्वर की कृपा से मिला i शत -शत आभार i
आदरणीय भाई गोपाल नारायन जी,
इतने कठिन विषय पर आपका इतना अच्छा वृहत शोध ! पढ़ कर मन प्रफुल्लित हुआ। महाकवि निराला जी की काव्य-निपुंणता और उस काव्य के सूक्षम विन्दुओं को इस प्रकार प्रस्तुत करने की आपकी योग्यता को नमन।
निराला जी की इस कृति में मानव-प्रकृति के विविध पहलू तथा वृतिओं से संबंधित सामर्थ्य और अपर्याप्तता अनुनादित होती है,। हर महान-आत्मा ...भगवान राम, कृष्ण, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द जी, आदि ... के सांसारिक कार्य में उनका मानवीय रूप प्रदर्शित होता है ... और उनका मानवीय रूप हमें उनसे संबद्ध होने में सहायक होता है। आपने इस रूप को जिस सरलता से पाठक के सम्मुख रखा है, उसके लिए आपका धन्यवाद।
इस अति सुन्दर लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई, आदरणीय गोपाल नारायन जी|
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय अग्रज निकोर जी
आपके प्रोत्साहन भरे शब्दों से मानो नव संजीवन सा प्राप्त हुआ i एक विद्वान की सहमति और स्वीकृति कितनी मायने रखती है , इसका अविरल अनुभव हो रहा है i सादर i
सराहनीय , आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी।
विजय सर !
आपका अतिशय आभार i सादर i
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