परम स्नेही स्वजन,
मुशायरे का संकलन हाज़िर कर रहा हूँ| इस बार मुशायरे के संकलन करने में कार्यकारिणी सदस्य आदरणीय शिज्जू शकूर जी का सहयोग मिला इस हेतु उन्हें विशेष आभार| मिसरों में दो रंग भरे गए हैं लाल अर्थात बहर से ख़ारिज मिसरे और नीले अर्थात ऐब वाले मिसरे|
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श्री मिथिलेश वामनकर
आपकी ज़िद वही पुरानी थी
हर गलत बात तर्जुमानी थी
कौन बेआबरू किसे करता
दुश्मनी यार खानदानी थी
वो भला इन्किलाब क्या लाए
जो कलम ख़ाम नातवानी थी
शहर की यूं हयात क्या कहिये
जो तबस्सुम न शादमानी थी
एक दरिया नहीं समझ पाया
ज़िन्दगी धूप और पानी थी
बचपना भी ज़रा बुढ़ापा भी
इन हदों में कही जवानी थी
हम तसव्वुर करे तिरी खुशबू
लोग कहते कि रातरानी थी
और रोते तमाम शब गुजरी
कुछ अज़ब तौर की कहानी थी
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श्री दिनेश कुमार
रस्मे महफ़िल मुझे निभानी थी
ख़ूबसूरत गिरह लगानी थी
ज़ेहन में थी ज़बाँ पे ला न सका
' कुछ अजब तौर की कहानी थी'
इश्क़े फ़ानी रवाँ हुआ मुझ पर
खाके ठोकर ही अक़्ल आनी थी
ज़र्द पत्तों से पूछ कर देखो
रात कितनी हवा सुहानी थी
नाव साहिल पे आके डूबी क्यूँ
मौज दर मौज इक कहानी थी
हाले दिल तुम से क्या बयाँ करते
दरमियाँ अपने बदगुमानी थी
उम्र से पहले वो हुआ बूढ़ा
उसकी बेटी हुई सयानी थी
चश्मे तर रहना ही मुकद्दर था
दिल के दरिया में बाढ़ आनी थी
रोज़ पीना व शायरी करना
अब यही मेरी ज़िन्दग़ानी थी
रौशनाई बनाई अश्क़ों से
मेरी गजलों में अब रवानी थी
साथ उनके गुजरती शाम 'दिनेश'
दिल की हसरत बहुत पुरानी थी
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श्री भुवन निस्तेज
शम्अ यूँ तो नहीं बुझानी थी
कुछ हवा को भी शर्म आनी थी
वो सियासत बड़ी सयानी थी
पर इरादों में ही गिरानी थी
धूल दीवार से हटानी थी
तेरी तस्वीर जो लगानी थी
फिर ग़ज़ल ‘मीर’ पर हुई सज़दा
फिर वही ‘आह’ लौट आनी थी
आसमां ओढनी, ज़मीं बिस्तर
अपनी हर चीज खानदानी थी
था नहीं सर पे जीत का सेहरा
हौसलों ने न हार मानी थी
मैंने तारों से नूर छीना है
कुछ तो तारीक से निभानी थी
सख्त तेवर थे आँधियों के औ’
मेरी पुरज़ोर बादबानी थी
कुछ ये किरदार ही थे बे-चेहरा
“कुछ अजब तौर की कहानी थी”
ये हवाओं में आरियाँ देखो
मैंने उड़ने की आज ठानी थी
उसके जाने के बाद कहता हूँ
शाम रंगीन थी सुहानी थी
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शिज्जु शकूर
फिर वही ग़म वो सरगिरानी थी
फिर वही तन्हा ज़िंदगानी थी
फिर वही दिन वही मुहब्बत और
तेरी धुँधली सी इक निशानी थी
छू गया था तेरा खयाल मुझे
सुबह चेहरे पे शादमानी थी
एक एहसास था मुकद्दस वो
“कुछ अजब तौर की कहानी थी”
लफ़्ज़ के लफ़्ज़ बह गये जिसमें
मेरे जज़्बात की रवानी थी
आपकी हस्ती का निशाँ न मिला
सरबलंदी महज ज़बानी थी
जल गये इस मुग़ालते में वो
आँच उन पर कोई न आनी थी
थे इरादे नसीब के कुछ और
जी ने लेकिन कुछ और ठानी थी
मुख़्तसर पल हयात के थे “शकूर”
हाँ वो भी एक चीज़ फ़ानी थी
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श्री गिरिराज भंडारी
जब मिली ताब आसमानी थी
क्यूँ भला कोई लनतरानी थी
जाविदाँ मौत जब हुई , तय था
ज़िन्दगी को तो मात खानी थी
ज़ेह्न में बात जब पुरानी थी
शर्म से शक़्ल पानी पानी थी
अजनबी उस नये से मंज़र में
बस तेरी याद ही पुरानी थी
तुझ से हर दिन रहा गुलाबों सा
तुझ से सब रात, रातरानी थी
सारा आलम हुआ है पत्थर सा
तुम से हर शै में इक रवानी थी
रोशनी तब तलक रही मेह्माँ
जब तलक तेरी मेजबानी थी
तेरी यादों के संग जो गुज़री
शाम बस इक वही सुहानी थी
मुस्तक़िल ग़म हमारे हिस्से थे
हर खुशी सिर्फ आनी जानी थी
हर अमल दफ़्न था ज़मीं में पर
सिर्फ़ हसरत ही आसमानी थी
सुन के जड़वत हुये थे श्रोता ,सच
“ कुछ अजब तौर की कहानी थी ’’
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श्री दिलबाग विर्क
जब चढ़ी आग-सी जवानी थी
चाल में आ गई रवानी थी ।
मैं जुबां पर यकीं न कर पाया
बात दिल की उसे बतानी थी ।
प्यार बरसे, दुआ यही माँगी
नफ़रतों की अनल बुझानी थी ।
इश्क़ ही हल मिला मुझे इसका
ज़िन्दगी दाँव पर लगानी थी ।
ग़म-ख़ुशी सब मिले मुहब्बत में
कुछ अजब तौर की कहानी थी ।
आँख के सामने सदा वो था
जब किया इश्क़, याद आनी थी ।
सीख लेते अगर इसे जीना
ज़िन्दगी तो बड़ी सुहानी थी ।
मारना सीखते अहम् अपना
' विर्क ' दीवार जो गिरानी थी ।
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श्री निलेश शेवगाँवकर
कुछ तो तूफ़ान ने भी ठानी थी,
उस पे कश्ती भी बादबानी थी.
हर कहानी में इक कहानी थी
हय! जवानी भी क्या जवानी थी.
मीर की शायरी सयानी थी,
‘कुछ अजब तौर की कहानी थी”
रात ख़्वाबो में कौन आया था,
सुब’ह साँसों में रातरानी थी.
पढ़ते पढ़ते गुज़र गया शाइर,
हाथ में डायरी पुरानी थी.
दिल में मेरे ठहर गया सहरा,
पहले दरियाओं सी रवानी थी.
रो पड़ा हँसते हँसते महफ़िल में,
चोट दिल पर कोई पुरानी थी.
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श्रीमती राजेश कुमारी
ख़ूब ख़ुशहाल जिंदगानी थी
अम्न था चैन था जवानी थी
जानता था सभी लकीरों को
हाथ दौलत न आनी जानी थी
सब लुटाया वतन परस्ती में
खून में जोश था रवानी थी
थरथराते सभी जिसे सुनकर
कुछ अजब तौर की कहानी थी
दस बहाने बना गये उठकर
दास्ताँ तो अभी सुनानी थी
फूल को तोड़ ले गए ज़ालिम
सर पटकती वो बाग़वानी थी
जुल्म ढाया गिरा गए कहकर
ये इमारत बड़ी पुरानी थी
आज कंगाल है भिखारन है
जो कभी इक महल की रानी थी
बँट गया बीच में खड़ा बरगद
अपने पुरखों की जो निशानी थी
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श्री लक्ष्मण धामी
कमसिनी थी न तो जवानी थी
कुछ अजब तौर की कहानी थी
जिस्म से रूबरू न थे लेकिन
दरमियाँ बात इक रूहानी थी
कट रही थी जो खुशबयानी में
दर्द लिपटी वो जिंदगानी थी
गैर का दोष क्या तबाही में
रंजिशें खुद से ही पुरानी थी
छोड़ दामन जो चल दिया माँ का
रात वो भी न कम तूफानी थी
हर तरफ दौर मुफलिसी का था
भ्रष्ट शासन की जो निशानी थी
जल न पाये धुआँ धुआँ होकर
आग ऐसे भी क्या लगानी थी
प्यार का फूल किस तरह खिलता
नफरतों की जो बागवानी थी
छान लाते रहीक आँखों से
आपने जब हमें पिलानी थी
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श्री दिगंबर नासवा
ट्रंक लोहे का सुरमे-दानी थी
बस यही माँ की इक निशानी थी
अब जो चुप सी टंगी है खूँटी पर
खास अब्बू की शेरवानी थी
मिल के रहते थे मौज करते थे
घर वो खुशियों की राजधानी थी
अपने सपनों को कर सका पूरा
स्कूल टीचर की मेहरबानी थी
झील में तैरते शिकारे थे
ठण्ड थी चाय जाफरानी थी
सिलवटों ने बताई तो जाना
कुछ अजब तौर की कहानी थी
बूँद बन कर में रेत पर बिखरा
जिंदगी यूं भी आजमानी थी
छोड़ कर जा रहीं थी जब मुझको
मखमली शाल आसमानी थी
उम्र के साथ ही समझ आया
हाय क्या चीज़ भी जवानी थी
जेब में ले के आये हो खंजर
रिश्तेदारी भी कुछ निभानी थी
उफ़ ये गहरा सा दाग माथे पर
बे-वफ़ा प्यार की निशानी थी
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श्री सचिन देव
मेरी चाहत की जो कहानी थी
वो किसी और की जुबानी थी
आई थी जो समझ निगाहों से
कुछ अजब तौर की कहानी थी
याद की रौशनी हुई मद्धिम
दिल मैं शम्मा नई जलानी थी
राज उसका ही था जमाने में
खून में जिसके भी रवानी थी
आज बिखरा पड़ा था धरती पर
जिसकी परवाज आसमानी थी
हर कदम पर मिली नई ठोकर
क्या करें राह खुद बनानी थी
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श्री मोहन बेगोवाल
कुछ हकीकत थी, कुछ कहानी थी |
बात दिल की हमें बतानी थी |
बात अब तक छुपाई जो तुम से,
ऐ ! जमाने तुझे सुनानी थी |
जो बताया वही हुआ था कब,
बात कुछ तो हमें छुपानी थी |
रात जब आई नींद आ घेरा
नींद भी रात की दिवानी थी|
अब मिले हो कहा उसी ने ये,
सोचना तब था जब जवानी थी|
जो दिखाया हमें नजारे में,
कुछ अजब तौर की कहानी थी |
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वंदना जी
ख़्वाब सहलाती इक कहानी थी
रात सिरहाने मेरी नानी थी
रंज ही था न शादमानी थी
कुछ अजब तौर की कहानी थी
वो जो दिखती हैं रेत पर लहरें
वो कभी दरिया की रवानी थी
था जुदा फलसफा तेरा शायद
मुख्तलिफ़ मेरी तर्जुमानी थी
ये बची राख ये धुआं पूछे
जीस्त क्या सिर्फ राएगानी थी
कट गया नीम नीड़ भी उजड़े
भींत भाइयों ने जो उठानी थी
लो गुमाँ टूटा आखिरी दम पर
चिड़िया तो सच ही बेमकानी थी
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श्री अजीत शर्मा ‘आकाश’
चाँदनी रात भी सुहानी थी
इक दिवाना था इक दिवानी थी ।
क्यों नहीं ओढ़ता-बिछाता मैं
दर्द ही तो तेरी निशानी थी ।
लुट गया राहे-इश्क़ में हँसकर
रस्म थी, रस्म तो निभानी थी ।
उनके ख़्वाबों में जब तलक हम थे
ज़िन्दगानी ही ज़िन्दगानी थी ।
हमने ही सब्र कर लिया थोड़ा
बात बिगड़ी हुई बनानी थी
सब समझ के भी कुछ न समझे हम
“कुछ अजब तौर की कहानी थी ” ।
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श्री गुमनाम पिथौरागढ़ी
हुस्न था इश्क़ था कहानी थी
खूब बेबाक वो जवानी थी
बाब दर बाब खूं के धब्बों में
ऐ सियासत तेरी कहानी थी
कौन समझा सबब उदासी का
यूँ दुनिया बड़ी सयानी थी
मार ठोकर जहां को खुश थे वो
कैसी गुस्ताख़ वो जवानी थी
उम्र तो थी तवील पर मैंने
खुदकुशी करने की ही ठानी थी
आज के बच्चों की कहानी में
कोई राजा था ना ही रानी थी
उम्र जी तो लगा हमें गुमनाम
बेवफा जीस्त दुनिया फानी थी
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श्री अरुण कुमार निगम
साफ़ कुदरत से छेड़खानी थी
जिसकी कीमत तुम्हें चुकानी थी
दोष देते नदी - हवाओं को
बात इनकी किसी ने मानी थी ?
मेघ संदेस ले के आते थे
वो सदी किस कदर सुहानी थी
लीलते जा रहे हो गाँवों को
ज़िंदगी की जहाँ रवानी थी
व्यर्थ ही ढूँढता रहा पारस
मन में बस आग ही जलानी थी
आज अपनी जिसे बताते हो
वो शहीदों की राजधानी थी
स्वर्ण-पंछी, वो दूध की नदियाँ
कुछ अजब तौर की कहानी थी
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श्रीमती छाया शुक्ला
दुश्मनी ये नहीं पुरानी थी
धाक अपनी तुझे जमानी थी |
कर न पाए कभी सवाल सरल
आज जो कहते हो कहानी थी |
याद तुम आये हर घड़ी मुझको
भूलने की तुम ने तो ठानी थी |
लौट आये अगर सहज दिल से
बात हो जाय जो बतानी थी |
अब न जीना कभी ख्यालों में
जिन्दगी व्यर्थ कब बितानी थी |
अपन कहते चले गये सब कुछ
कुछ अजब तौर की कहानी थी
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श्री लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
खून की सच यही कहानी थी
सच कहे तो यही जुबानी थी |
हर सुबह भक्त की जुबा देखो
यह अजब भोर की कहानी थी
दोष देना नहीं फिजाओं को
बात प्रभु की किसी ने मानी थी ?
सुर्ख लब छू रहे अभी से ही
यह सही प्यार की निशानी थी |
ईश ने ही यही लिखा मानों
कुछ अजब तौर की कहानी थी |
कुछ नही ख़ास मै कमा पाया,
दिल में हसरत बहुत पुरानी थी |
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श्री दयाराम मेठानी
रात वह तो बहुत सुहानी थी,
देश हित की सुनी कहानी थी।
जान अपनी लुटा गया कोई,
प्यार की बस यही निशानी थी।
प्यार चाहा मिली जुदाई क्यों,
कुछ अजब तौर की कहानी थी।
जो मिला बेवफा मिला हमको,
ये हमारी असावधानी थी।
पी गई वो जहर बिना समझे,
प्यार में कुछ अजब दिवानी थी।
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श्री कृष्ण सिंग पेला
आग था वो, अवाम पानी थी,
और हुकूमत उसे चलानी थी ।
तेग़ तहखाने में पुरानी थी
ख़ानदानी वही निशानी थी
ख़ौफ़ यूँ छा गया था बस्ती में
जिस्म से रूह तक बेगानी थी
बाग़ में तितलियों के नारे थे
बात अपनी उन्हें मनानी थी
उसके दीदार से जगी उम्मीद,
उसमें थोडी बहुत जवानी थी ।
चाँद ने मुड के भी नहीं देखा,
मुंतज़िर कब से रातरानी थी ।
ख़त्म होने की थी न गुंजाइश,
"कुछ अजब तौर की कहानी थी ।"
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मिसरों को चिन्हित करने में कोई त्रुटि हुई हो अथवा किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो अविलम्ब सूचित करें|
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आदरणीय संपादक महोदय इतने कम समय में सफल आयोजन कर संकलन प्रकाशित करने के लिए बहुत बहुत बधाई . केवल एक अशआर पूरा लाल है .. देखकर रोमांचित हूँ मगर ये लाल क्यों है ये समझ ही नहीं पा रहा हूँ .. निवेदन है कि इतनी बड़ी गलती मुझे अभी भी समझ नहीं आ रही इसलिए आप गुनिजन मुझे मार्गदर्शन दे ताकि भविष्य में ऐसी गलती ना करूँ ...
लाल रंग वाला ख़ारिज शेर
उस शहर की हयात क्या कहिये
ना तबस्सुम न शादमानी थी
आदरणीय मिथिलेश जी शहर का वज्न 21 होता है और ग़ज़ल में ना लिखना अरूज के हिसाब से सही नहीं है और इसका वज्न 1 ही होगा
आदरणीय शिज्जु जी
धन्यवाद
आपने समाधान भी कर दिया और बहुत बड़ी बात बताई कि 'ना' का वज्न भी 1 होता है | आपके इस एक सीख से मेरे कई शेर सही हो जायेंगे क्योकि मैं 'न' और 'ना' का ग़ज़ल में बहुत उपयोग (अब समझ आया दुरूपयोग ) करता हूँ . वे सभी सुधार लूँगा.
शहर का वज्न 21 होता है लेकिन चूंकि मैं स्वयं उच्चारण ही श+हर करता हूँ इसलिए ये त्रुटी हुई . भविष्य में इसकी भी सावधानी रखूंगा. पुनः आपका बहुत बहुत आभार धन्यवाद.
वो भला इन्किलाब क्या लाती ----- > वो भला इन्किलाब क्या लाए
जो कलम ख़ाम नातवानी थी
फिर अमावस पयाम दे आई ---> इस ऐब को दूर करने से शेर बिगड़ रहा है
चाँद को खूब बदगुमानी थी
वो भला इन्किलाब क्या लाती
जो कलम ख़ाम नातवानी थी
उस शहर की हयात क्या कहिये
ना तबस्सुम न शादमानी थी
आदरणीय संपादक महोदय मेरी ग़ज़ल के उक्त दो अशआर परिवर्तित करने की कृपा कर मुझे अनुग्रहित करे. उसके स्थान पर निम्नानुसार अशआर पेस्ट करने की कृपा करे .
वो भला इन्किलाब क्या लाए
जो कलम ख़ाम नातवानी थी
शहर की अब हयात क्या कहिये
जो तबस्सुम न शादमानी थी
o b o का एक और शानदार और संमृद्ध आयोजन ..शामिल सभी शायरों का अभिनन्दन अभिवादन !!!
आदरणीय राणा प्रताप भाई , त्वरित संकलन के लिये आपका आभार । एक और सफल आयोजन के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।
मौत के हिस्से जाविदानी थी ---- आदरणीय मेरी समझ मे इस मिसरे में काल दोष है शायद । लेकिन अपनी समझ पे पूर्ण भरोसा नही है । कृपा कर सही कारण बताइयेगा ताकि मै कुछ सुधार कर फिर से सुधार के लिये प्रार्थना कर सकूँ । सादर !
आदरणीय गिरिराज जी मिसरे में प्रयुक्त लफ्ज़ "जाविदानी" को आपने संज्ञा की तरह प्रयुक्त किया है जबकि यह लफ्ज़ विशेषण का है, जिससे व्याकरण का दोष उत्पन्न हो रहा है|
ओबीओ लाइव तरही मुशायरा की सभ गजले संकलित कर उपलब्ध करने के लिए बधाई आद राणा प्रताप सिंह जी | मेरा गजल
पर प्रथम स्वरचित प्रयास विद्वजनों की सराहना से होंसला अफजाई हुआ है | लाल रंग की पंक्तियों में संशोधन का प्रयास किया है
अगर सही हो तो संशोधित करने की कृपा करे - प्रथम दो संशोधित पंक्तिया
खून की सच यही कहानी थी
सच कहे तो यही जुबानी थी |
चौथा और पांचवे अश'आर की संशोधित पंक्तिया -
सुर्ख लब छू रहे अभी से ही
यह सही प्यार की निशानी थी |
ईश ने ही यही लिखा मानों
कुछ अजब तौर की कहानी थी |
सादर |
वांछित संशोधन कर दिया गया है|
आदरणीय मंच संचालक महोदय, आपसे अनुरोध है कि मुशायरे मैं प्रेषित मेरी गजल मैं जो दो बे-बहर शेर हैं उन्हें इस प्रकार संशोधित करने की अनुकम्पा करें !
( संशोधित )
याद की रौशनी हुई मद्धिम
फिर से शम्मा नई जलानी थी
हर कदम पर मिली नई ठोकर
क्या करें राह खुद बनानी थी
सधन्यवाद !
आवश्यक सूचना:-
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