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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-२ में स्वीकृत सभी लघुकथाएँ

(1) श्री मिथिलेश वामनकर जी 
प्लेटफॉर्म पर एक चबूतरे के पास बैठने वाला भिखारी..... दरअसल यही उसकी असली पहचान थी जिसे उसकी ‘बाबानुमा’ सूरत भी छिपाने में नाकाम थी। सुबह-सुबह झाड़ू लगाती लक्ष्मी को भरी-पूरी नज़रों से ताड़ते हुए बोला-“ए लछमी, तू इस काम को थोड़े ही बनी है।”
“ई तो किस्मत है बाबा।” कहकर लक्ष्मी चुप रह गई। वैसे लक्ष्मी को ऐसी नज़रों की खूब पहचान थी। मगर रोज की तरह उसकी इस आदत को टालते हुए, चुपचाप अपना काम करती रही।
भिखारी अपने मैले से कम्बल में, बाहर के तपते बदन की गर्मी को भीतर महसूस करता हुआ और कड़ाके की ठण्ड को मात देता हुआ, अपना पाव-भाजी का पैकेट संभाले बैठा रहा, जो देर रात की ट्रेन के किसी रहमदिल यात्री से उसने पाया था। 

लक्ष्मी झाड़-पोछ कर प्लेटफॉर्म चमका रही थी और भिखारी अपनी आँखे। बाबानुमा मुंह से टपक रही लार, कम-से-कम, उस पाव-भाजी के कारण नहीं है; ये लक्ष्मी के गदराये बदन की चुभती सिहरन, बखूबी पहचान चुकी थी। 
अचानक भिखारी ने कम्बल कांधे से गिराया और टॉयलेट चला गया। 
लक्ष्मी सफाई करते-करते चबूतरे तक पहुँच गई और सफाई के पहले उसने पाँव-भाजी का पैकेट उठाकर चबूतरे पर रखा ही था कि भिखारी की जोरदार चीख उसके कानों में पड़ी- "हे भगवान! इसने मेरा धरम भरस्ट कर दिया।" 
अचानक एक और पहचान उभर आई थी- भिखारी की भी और लक्ष्मी की भी। जलजला बरपाती एक और ट्रेन, स्टेशन पर बिना रुके, कान फाड़ती हुई निकल चुकी थी।
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(2). योगराज प्रभाकर 
सारा शहर दंगों की चपेट में था, दोनों तरफ के दंगाई खून की होली खेल रहे थे। ऐसे में मृतकों और घायलों से भर चुके सरकारी अस्पताल में एक बूढा बहुत देर से अपने बुरी तरह घायल बेटे के लिए किसी रक्तदानी को ढूंढता हुआ पागलों की इधर उधर भाग रहा था। किन्तु उसकी आवाज़ लोगों लोगों की चीख पुकार में दब कर रह गई थी। घायल बेटे की साँसों की तरह उस बूढ़े की उम्मीद भी टूटने को ही थी कि एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति खून देने के लिए आगे आया। समय पर खून मिल जाने से थोड़ी देर बाद ही उस मरणासन्न युवक की सांसें लौट आईं।
"मैं आपका यह एहसान सारी ज़िंदगी नहीं भूल पाऊँगा।" बूढ़े पिता ने उस रक्तदाता के पाँवों में गिरते हुए कहा।
"अहसान कैसा भाई ? मैंने तो सिर्फ अपना फ़र्ज़ निभाया है।"
"लेकिन जब कोई मेरी बात नहीं सुन रहा था तो आप फरिश्ता बन कर आये और मेरे बेटे को नई ज़िंदगी दे दी।"
"एक बाप का दर्द मैं अच्छी तरह जानता हूँ,  क्योंकि पिछले दंगों में मैं भी अपना बेटा खो चुका हूँ।"
"बेडा गर्क हो इन शैतानों का।  वैसे आप हैं कहाँ के ? इस तरफ के या उस तरफ के ?"

"मेरे बुढ़ापे का सहारा, मेरा इकलौता जवान बेटा जा चुका है। अब तो भाई मैं कहीं का भी नहीं।"
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(3). श्री गणेश बागी जी 
लघुकथा : पहचान 
दो प्यारे बच्चों और जान छिड़कने वाले पति के साथ राधिका बहुत खुश थी. समाज सेवा के जज्बे के कारण वह एक स्वयं सेवी संस्था “नारी अधिकार अनुरक्षण समिति” से जुड़ गयी. संस्था से जुड़ने के पश्चात अब छोटी छोटी बातों से भी उसे लगता था कि उसके अधिकार का हनन हो रहा है, फलस्वरूप घर में कलह होने लगी. राधिका का संस्था के प्रति समर्पण और वैवाहिक जीवन में खटास, दोनों बढ़ने लगें और बात न्यायालय तक पहुँच गयी.
आज राधिका के लिए विशेष दिन था, उसे अपनी पहचान मिल गयी थी. संस्था में वह राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के लिए निर्वाचित हुई थी साथ ही न्यायालय का निर्णय उसके पक्ष में आया और उसे तलाक मिल गया.
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(4). सुश्री रीता गुप्ता जी 
शीर्षक – नागरिक

“आ गए ,बनवा लिया पहचान पत्र ?”पसीने से तर ब तर रामाशीष बाबू से पत्नी ने पूछा .
“अरे नहीं ,उसके लिए और भी कई कागजात चाहिए,ऐसा महसूस हो रहा है जैसे मैं किसी चक्रव्यूह में फँस गया हूँ“ कहते ,प्रौढ़ रामाशीष बाबू निढाल हो लेट गएँ .
“कहतें हैं ये हर नागरिक के लिए जरूरी है ,अपने ही देश में इसे बनवाने में कितने पापड़ बेलने पड़ रहें हैं “ पत्नी रुआंसी हो बोली 
“अरे! नागरिक से याद आया , हमारे नए पडोसी ,वही जो ढाका से आयें हैं ,उनके पास हर तरह के  पहचान पत्र है ,चलूं उनसे से ही पूछता हूँ कि कैसे हासिल किया “
ये कहते ख़ुशी ख़ुशी वे पडोसी के घर व्यूह तोड़ने की तरकीब लेने  चल पड़े .
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(5). सुश्री कान्ता रॉय जी 
पहचान

यहाँ तक पहुँचने मे उसने अपने पाँच साल लगा दिये थे लेकिन किशोर इतना तेज निकलेगा ये सोचा ही नही था । आज एहसास हुआ कि किसी अरबपति को फाँस कर काम निकालना इतना भी आसान नही होता है ।
पाँच साल पहले जब डिस्कोथेक में पहली बार उसकी रईसी देखी थी तभी सोच लिया था कि इससे ही शादी करना है । बाद में तलाक लेकर एक अच्छी रकम का जुगाड़ गुजारेभत्ते के रूप में ... लेकिन उस रईस जादे का वकील इतना जबरदस्त निकला कि अब कुछ और ही रास्ता ....!!!

" मिश्रा जी , आप किसी काम के नहीं ..! कोई उपाय बताईये केस जीतने का ..अब आपकी फीस केस जीतने पर ही मिलेगी । "
" मैम , आपका केस तो दूसरा कोई वकील हाथ भी नहीं लगायेगा सिवाय अयंगर सर के ... अब कोई पहचान कायम करो उनसे और उन्हे ही दो अपना केस ... इस केस को दूसरा कोई और नहीं संभाल सकता है । "
" पहचान.... ! परन्तु कैसे ..? "
दुसरे दिन अयंगर सर के केबिन के बाहर काफी देर तक वो इंतजार करती रही , क्योंकि उनसे पहचान बेहद जरूरी जो थी ।
" मिसेज़ रागिनी , अंदर आ जाईये प्लीज़ । " - चपरासी ने कहा तो एक बार फिर से खुद को सवाँरा उसने ।
अंदर जाते ही अयंगर सर की पहली नजर उस पर उठी तो उठी ही रह गई । पहचान अब कायम हो चुकी थी ।
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(6). श्री अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव 
पहचान [ लघु कथा ]

घंटी की आवाज से पति पत्नी की नींद खुल गई। बाहर भिखारी को देख दोनों की त्योरियाँ चढ़ गईं।
“आगे जाओ।”
“ मालिक दया कीजिए, मालकिन कल से भूखा हूँ।”
“ बेशर्मी तो देखो काल बेल बजाकर भीख माँगते हैं।”
“ भूखे गरीब की आवाज़ बड़े मकानों तक पहुँच नहीं पाती इसलिए घंटी बजाया, कुछ तो......।”
“ माँगते शर्म नहीं आती, तुम मुफ़्त खोरों के कारण ही भारत भिखारियों का देश कहलाता है, खूब पहचानती हूँ तुम सब को, दिन में भीख माँगकर टोह लेना और रात में चोरी करना।”
चोर कहना आठवीं पास भिखारी को चुभ गया- “ और आप जैसे लुटेरों के कारण ही भारत भ्रष्टाचार में नम्बर एक है।”
“ क्या बकते हो, भिखारी होकर ज़बान लड़ाते हो।” ... [ तेज आवाज से कुछ पड़ोसी भी बाहर आ गए ]।
“ भिखारी हूँ कोई चोर लुटेरा नहीं और बकता नहीं सच कहता हूँ, ईमानदारी की कमाई से इतना बड़ा मकान खड़ा नहीं होता।”
पति की ओर नाराज़गी से देखकर - “ मैं ही बक- बक कर रही हूँ, एक भिखारी आप को भ्रष्ट लुटेरा कह रहा है और आप हैं कि......।
मालिक- “अरे वो भिखारी की औलाद  अपनी औकात में रहो, ... यहाँ से तुरंत भागो वर्ना कुत्ते से कटवाऊँगा।”
“ कुत्ते की क्या जरूरत, आप दोनों तो काट ही रहे हैं।”  कहते हुए तेज कदमों से लौटने लगा। फिर कुछ रुक कर- “ इस घर के लिए  यह बोर्ड कितना सटीक है - ‘कुत्तों से सावधान’ ।”
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(7). श्री चंद्रेश कुमार छतलानी जी 
शीर्षक - वक्ती पहचान 

"कौन हो तुम?"
"मैं किसना हूँ, हुजूर|"
"कौन किसना? मैंने पहचाना नहीं|"
"हुजूर, छः महीने पहले आप वोट मांगने मेरे घर आये थे, तब तो गले भी मिले थे और पहचाना भी था!"
"वो सब ठीक है, लेकिन तुम्हारा यह काम नहीं हो सकता...नौकरी ऐसे ही यहाँ-वहां घूमने से और सिर्फ पहचान से नहीं मिलती, पढना पड़ता है, डिग्री लेनी होती है|"
"हुजूर, यहाँ-वहां घूमने से और सिर्फ पहचान से जब आपको इतनी बड़ी कुर्सी मिल सकती है तो मेरे बेटे को छोटी सी नौकरी क्यों नहीं?"
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(8). श्री सौरभ पाण्डेय जी 
"तो बात दे दे न विपिन बाबू !.. हो जायेगी न ?" - बाँके बिहारी ने जोर से सुनाते हुए पूछा.
"हाँ भाई हाँ, जरूर हो जायेगी.. तुम भी न ! मौसम है ही ऐसा !.." - विपिन बाबू ने अपने टेबुल से ही बैठे-बैठे कहा.
"मौसम-वौसम छोड़िये, सर.. साफ़-साफ़ बताइये, हम हाँ कर दें न ?" - बाँके बिहारी ने अपने कहे पर ज़ोर दिया.
"तुम भी न बाँके.. हाँ-हाँ हो जायेगी.. बोल दो.."
इतना सुनना था कि बाँके बिहारी साथ खड़े उस आदमी को करीब-करीब घसीटता हुआ ऑफ़िस से बाहर ले गया -  ".. अब सुन लिया न ? अब पतियाओगे जे डील हो जायेगा ? बड़े बाबू हैं, गछ लिये सो गछ लिये ! इनकी बात बड़े साहब भी नहीं काटते.."

बाँके बाबू की ये फुसफुसाहट उस आदमी को पूरी तरह से अपने कब्ज़े में कर चुकी थी. फिर भी उसने पूछा - "मने डील हमरे फेभर में ही होगा न, बाँके भाई ?"
"धुर मर्दे.. अब कौन भासा में सुनोगे जी..?"
उस आदमी को बाँके बिहारी से शायद इसी लहज़े की उम्मीद थी कि क्या, उसने अपने झोले से दस-दस हज़ार की पाँच गड्डियाँ निकालीं और उसके हाथों में रख दीं.

अभी एक घण्टा भी नहीं बीता था. पहाड़ी इलाके के पनबरसा बादल, पटपटा के झिहर पड़े. बाँके बिहारी सीधा विपिन बाबू के टेबुल पर पहुँचा और उनके सामने ढाई सौ रुपये रख दिये - "पक्का पाँच सौ की बाज़ी लगी थी बड़े बाबू ! आपके सपोर्ट पर ही जीत गया.. देखिये, येब्ब्बड़े-ब्बड़े 'बूँदा' बरस रहे हैं.. "
बड़े बाबू मुस्कुराते हुए वो ढाई सौ रुपये अपने ज़ेब में रख लिये - " तुम भी न बाँके.. बाज़ी लगाने में तुम अब शहर भर में 'वर्ल्ड फ़ेमस' हो चुके हो.. "
बाँके बिहारी अपनी इस ’वर्ल्ड फ़ेमस’ हुई ’पहचान’ पर फूला नहीं समा रहा था..
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(9). श्री हरिप्रकाश दुबे जी 
कटुआ तिवारी : [पहचान] :लघु कथा 

“रात का सन्नाटा , चारों तरफ पुलिस ,लाठी दिखा के गाड़ी रुकवा दी गयी !”
“हां भाई कहाँ से आ रहे हो इतनी रात को ,देख नहीं रहे हो शहर में कर्फु लग गया है , कौन धर्म के हो ,अबे  अपनी कोई  पहचान तो बताओ  ?”
“ये लीजिये मेरा ड्राईविंग लाईसेंस !”
“अबे इस पर तो ‘कटुआ तिवारी’ लिखा है !”
“जी ,यही मेरा नाम है ,मां इस्लाम को मानती हैं ,पिता हिन्दू धर्म को और मैं दोनों को, बचपन में काटता बहुत था इसलिए यही नाम पड़ गया  !”
“अबे गज़ब पहचान है , जाओ यार ,कुछ समझे  में नहीं आ रहा ,क्या बोलें तुमको  !”
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(10). श्री विनय कुमार सिंह जी 
अचानक उसके कान में सहकर्मी राज की आवाज़ पड़ी " यार देखो , लंगड़ा जा रहा है "।
बचपन में पोलियो का शिकार हो गया था वो पर ऑफिस के काम में किसी से भी कमतर नहीं था । अपने काम से अपना वज़ूद बनाने की ज़द्दोज़हद और ऐसे सम्बोधन । कभी कभी टूट जाता था वो , लेकिन साथ ही साथ एक नया हौसला भी भर उठता उसमे ।
आज अपने कार्यालय के सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी का पुरस्कार लेते समय उसने जब राज को स्टेज पर से देखा , तो राज खुद को लंगड़ा महसूस कर रहा था । अब उसकी पहचान बन चुकी थी ।
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(11). सुश्री पूनम डोगरा जी 
आज कॉलेज में बड़ा आयोजन था , मेरे नाम के आगे डॉक्टर लग रहा था I
हॉल में चहुँ ओर मेरे शोध के गहन गंभीर विषय के चर्चे  हो रहे थे I  सबकी प्रशंसात्मक नज़रें मेरे मुखमंडल को भेद रही थीं I  उन नज़रों का सामना करना बहुत भारी पड रहा था मेरे लिए I  मन किया कि सब छोड़ छाड कर भाग खड़ी होऊं !
मंच पर खड़े मेरे गाइड , मेरे अथक परिश्रम व एकाग्रता के कसीदे पढ़ रहे थे I  तारीफों के पुल बांधते बांधते वे मेरे करीब आये और 'स्नेहवश ' मेरे कंधे पर हाथ रक्खा, आखिरी बार !
हाँ आखिरी बार..
उनकी अंतिम किश्त मैं कल उतार चुकी थी !!
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(12). श्री मनन कुमार सिंह जी 
पहचान
कल्लू परेशान है। बेटी की बारात के मात्र चार दिन रह गये हैं।जमा कंपनी के ऑफिस से वह लौट आया है,वहाँ ताला लटका है।लोग कह रहे थे कि कई दिनों से लोग रोज पता करने आते हैं,दिनभर राह देख लौट जाते हैं।बगल का पानवाला पल्लू बोल रहा था कि कंपनी के लोग चम्पत हो हो गये हैं।सारी जमा पूँजी डूबती नजर आयी कल्लू को,सोचने लगा--मति मारी गयी थी मेरी ,माँ ने कहा था कि ढेर लालच में न पड़ कल्लुआ! हे भगवान!लालच के फेर में मैं लाभ के साधन की पहचान न कर सका,रूपये दूना-तिगुना करने का लालच डुबो गया सबकुछ मेरा।
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(13). श्री सुधीर द्विवेदी जी 
“पहचान”

“जियो मुन्नीबाई  ! पटाखा हो पटाखा कभी हमारी भी रातें..” कहते हुए सेठ जी ने ज्यूँ ही हाथ पकड़ मुन्नीबाई को खींचना चाहा, उसके हाथ में गुदे कुलदेवता के चिह्न को देख मानो बिच्छु ने डस लिया हो  उन्हें “निर्मला..” बस यही निकला मुँह से |
“कहाँ चल दिए साहिब..?” मुन्नीबाई पीछे से आवाज दे रही थी | सेठ जी पसीने से तरबतर मुन्नीबाई के कामुक चेहरे में अपनी खोई बेटी निर्मला के मासूम चेहरे को तलाशते पैदल ही चले जा रहे थे |      
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(14). श्री विनोद खनगवाल जी 
पहचान (लघुकथा)

"सुंदरलाल मुबारक हो। तुम्हारी बेटी ने आईपीएस बनकर अपनी पूरी जाति का नाम रोशन कर दिया है। कुछ दिनों बाद समाज की तरफ से एक सम्मान समारोह का आयोजन करके आपकी बेटी को सम्मानित भी किया जाएगा।" - प्रधान जी खुद बधाई देने पहुँचे थे। बेटी ने समाज में पिता को एक पहचान दे दी थी।
सुंदरलाल अब बेटी की शादी के लिए लड़का तलाश करने लगा लेकिन उसकी जाति में बेटी के बराबर का कोई लड़का नहीं मिल रहा था। लड़की ने अपने साथ आईपीएस बने अपने दोस्त से शादी की इच्छा जाहिर कर दी।
"सुंदरलाल अपनी जाति में क्या तुम्हारी लड़की को संभालने के लिए मर्दों की कमी पड़ गई थी जो उसको दूसरी जाति में ब्याहकर पूरे समाज की नाक कटवा दी। लोग तुम पर थू थू कर रहे हैं।" -प्रधान जी के कटु शब्द सीने को भेद गए थे।
बेटी तो खुशी खुशी विदा हो रही थी लेकिन सुंदरलाल की पहचान अब धूल चाट जा रही थी।
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(15). श्री रवि प्रभाकर जी 
पहचान
‘अरे वो गाड़ी में कौन जा रहा है बस्ती की तरफ’
‘अरे दद्दा, वो डाॅक्टर साहिब हैं।’
’डाॅक्टर साहिब?’
"वो पिछली बस्ती वाले भीष्‍म चाचा के बड़े बेटे, जो शहर में बहुत बड़े डाॅक्टर है।"
"अच्छा अच्छा, तो ऐसे बोलो ना कि भीखू नाई का लौंडा है ।"
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(16). श्री शुभ्रांशु पाण्डेय जी 
पहचान ( लघु कथा)
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अपनी पहचान बनाने के लिये वो तीन साल पहले कस्बे से शहर में आ गयी थी.
इन तीन सालों में उसकी पहचान होटल के डॉरमेट्री में बिछने वाले चद्दर की हो गई है,
जहां अरमान और इंतज़ार के लगे दाग उसका मुँह चिढ़ाते रहते हैं.
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(17) सुश्री ज्योत्सना कपिल जी 
पहचान

सेठ भुवन चन्द्र अपने सारे व्यवसाय व बंगले की ऊँची कीमत चुकाकर उसके मालिक अपने पुराने मुनीम को देखकर हैरान रह गए। जिसके पुत्र को ,अपनी बेटी का प्रेमी , देखकर कभी वह बौखलाकर उनसे उनकी औकात पूछ बैठे थे।
उस वक़्त मुनीम जी ने उनसे कुछ न कहा, अपने परिवार के साथ चुपचाप उस शहर को छोड़ दिया
आज बरसों बाद एक वफादार नमक हलाल की तरह सेठ जी को कर्ज मुक्त करने वापस शहर चले आए ।
बंशीलाल को अपनी ओर बढ़ते पाकर उनकी निगाह झुक गई और धड़कनें बेकाबू हो गईं थीं उसने सपने में भी कभी यह नहीं सोचा था कि दुर्दिनों में कभी मुनीम उनकी इस तरह उनसे अपने अपमान का बदला लेगा ।
क्या सोच में पड़ गये मुनीम ने कहा यह देखिये - रजिस्ट्री के कागज आपके नाम की है , “ बरसों पुराना नमक खाया हैं सरकार यूंहीं पहचान को मिटने नहीं देंगें ।
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(18). सुश्री राजेश कुमारी जी

पहचान (लघु कथा )

“माँ जी, मुँह ढक लीजिये... अन्दर सभी लाशें इतनी बुरी तरह जली हुई हैं बहुत ज्यादा दुर्गन्ध है”

“आपके सभी पहचान वाले बारी-बारी से आ चुके हैं कोई नहीं पहचान पाया फिर आप कैसे पहचानेंगी?” मोर्चरी के स्टाफ ब्वाय  ने पूछा| 

“वो सब पहचान वाले थे न!! सभी को दुर्गन्ध भी आ रही होगी मुँह भी ढक रखा होगा ... पर मैं माँ हूँ न उसकी... और माँ को कभी अपने खून में दुर्गन्ध नहीं आती”कहकर वो तीव्र क़दमों से अन्दर चली गई|

“बिना पहचाने मुआवज़ा थोड़े ही मिलेगा बुढ़िया को... ही ही ही” खींसे निपोरते हुए  धीरे से कानों में फुसफुसाते हुए वो दोनों अटेंडेंट भी पीछे-पीछे चल दिए

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(19). श्री जीतेन्द्र पस्तारिया जी
पहचान....(लघुकथा)

“ सुनो!! तुम्हे अगर मेरे साथ जीवन गुजारना है तो अपने बूढ़े माँ-बाप को छोड़ना ही पड़ेगा”
“तुम तो औरत हो. तुम्हारे अन्दर क्या भावनायें नहीं है..? इस उम्र में उन्हें किसके भरोसे छोडू..? समझो यार!! नादान न बनो..”
“मैं बहुत अच्छे से समझ गई हूँ. मैं तो औरत हूँ, किन्तु तुम मर्द तो नहीं हो...”

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(20). सुश्री शशी बांसल जी

पहचान ( लघुकथा )
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" ये क्या रेखा ? विवाह को कुछ घंटे भी नहीं बीते और तूने प्रोफाइल में अपने नाम के साथ पति का नाम जोड़ दिया ।"
" हाँ ... तो क्या करती ? जब उन्होंने कहा-" अब से तुम्हारी यही पहचान है ।"
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(21).श्री लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला जी
माँ का हक़ (लघु कथा)

जज साहब, सर्वेश दुर्गा की कानीन संतान है जिसे दुर्गा 6 माह के अवस्था में अनाथालय छोड़ आई थी | संभ्रांत परिवार के अल्पेश से विवाह बाद हुए एक मात्र पुत्र का 17 वर्ष की उम्र में दुर्घटना में मृत्यु के बाद अब निसंतान होने पर अनाथालय से जानकारी कर अपने कोख से जन्मा पुत्र वापिस चाहती है | वैसे भी गोद ले जाने वाले भीखू की मौत के बाद सर्वेश दयनीय स्थिति में अनाथ जीवन जी रहा है | खून की जांच रिपोर्ट भी दुर्गा के माँ होने की पुष्टि कर रही है |

सर्वेश ने कोख से जन्म देने वाली दुर्गा और पिता अल्पेश को पहचाने से इनकार कर उनके साथ जाने से मना कर दिया | जज ने सवेष की इच्छा को ध्यान में रख निर्णय दिया की 6 माह की अल्पायु से आज तक जिसने अपना दूध पिला पालन पोषण किया है, उसका अब सर्वेश ही एक मात्र सहारा है, जो उससे नहीं छीना जा सकता | कानीन या सहोद्र संतान को जन्म देने वाली माँ से अधिक हक़ उस धाय रुपी माँ का है जिसके दूध से वह पला |
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(22). सुश्री माला झा जी 
पहचान

"जुम्मन मियाँ,चलो फटाफट सौदा पक्का करो।और जगह भी जाना है।"हाँफते हुए कुर्सी पर बैठ गया बंसीलाल।
"अरे साहिल बेटा ज़रा दो गिलास खस का शरबत ले आना।"
"आदाब चच्चा जान!! ये लीजिये शरबत।"
"खुश रहो बेटा।अच्छा हुआ तुम भी मिल गए।देखो जुम्मन मियां इस बार बाजार में मंदी छायी है।इसलिए पच्चीस रूपए सैकड़ा के हिसाब से तुम्हारे आम लूँगा।"
"ये क्या कह रहे हैं मालिक?"
"अब्बा आप शांत रहिये।चच्चा हमने तय किया है कि इस बार हम आपको आम नही बेचेंगे।"
"अच्छा ऐसा कौन सा जादुई चिराग मिल गया कि हमारी जरूरत ही नही रही अब।क्या सीख आए शहर की पढाई से?"
"और कुछ सीखा हो या न सीखा हो ये जरूर सीख लिया चच्चा कि आप जैसे दलालों से कैसे निपटना है और बाज़ार में अपनी पहचान कैसे बनानी है।कैसे पच्चीस रूपए सैकड़ा आम बाजार में पहुँचकर पच्चीस रूपए नग बन जाता है।"
"जुम्मन मियाँ बच्चे को समझा दो पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर करने की कोशिश न करे।"
"अरे चच्चा अपनी पहचान बनाने के लिए मगरमच्छ का शिकार करना भी सीखा दिया मार्केटिंग की पढाई ने"
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(23). श्री कृष्ण मिश्रा जान गोरखपुरी जी 
‘बाबा’, सरकार जब हमारे लिए पुनर्वास और टाउनशिप की बात कर रही है तो ‘पनुन’ उसकी मुखालफ़त क्यों कर रही है? २५ साल हो गये आखिर क्या हासिल हुआ?आखिर कबतक हम यूँ ही बेघर-बार अपने पहचान के लिए भटकेंगे??
‘हम्म’, लगता है तू पनुन के मायने भूल गया है,पनुन का मतलब है ‘हमारे खुद का कश्मीर’ हम कश्मीरी पंडितो का अपना कश्मीर!
‘पुनर्वास’ ‘’टाउनशिप’’    आsssss थूउउउ!!
सरकारें जब हमारे बसे-बसाये घर को नही बचा सकीं,तो वो हमें छत क्या देंगी??
हमें अपना घर चाहिए! जहाँ अपना फैसला हम खुद कर सके और अपनी हिफ़ाजत के लिए हम किसी दुसरे के मोहताज न हों!जहाँ कोई दूसरा हमें फर्फान न सुनाएं!
‘‘शरणार्थी नही है हम’’ कश्मीर हमारे खून से सींची जमीन है,भीख में मिली ‘पहचान’ नही चाहिए हमें!!
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(24).सुश्री श्रधा थवाईत जी 
अवसरवादी पहचान

वह अपनी फैक्ट्री लगाने के लिये पर्यावरण मंत्रालय से एन.ओ.सी. लेने आया था. रेलवे स्टेशन में उसने ने अपने माली के बेटे उमेश को देखा. जो बचपन में उसका सहपाठी था. उमेश ने सलवटों से भरा कुरता पायजमा और स्लीपर पहन रखा था. सूट-बूट पहने हुए उसने उमेश को देखकर भी अनदेखा कर दिया. ट्रेन आने पर उसने देखा कि उमेश भी उसी की ए.सी. बोगी में चढ़ रहा है. उसे हैरानी हुई. उमेश की सीट बाजु के कम्पार्टमेंट में ही थीं. जहाँ उमेश और दुसरे सहयात्री के बीच वार्तालाप होने लगा था. 
उसने सुना, सहयात्री कह रहा था, “मैं डॉक्टर हूँ और आप?”
उमेश ने कहा,  “मैं पर्यावरण मंत्रालय में विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी हूँ.”
उसकी आँखों में बचपन की पहचान उमड़ आई.
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(25). श्री गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी

पहचान

‘प्रेम पर तो वश नहीं था, पर शादी से पहले यह सब नहीं’

‘कम ऑन डार्लिंग , तुम किस दुनिया में रहती हो, जमाना कितना आगे बढ़ गया है ?’

‘मैं तो भारत में रहती हूँ पर तुम शायद किसी पाश्चात्य देश में ?’

‘यार, तुम मेरा मूड ख़राब कर रही हो I’

‘और तुम मेरा जीवन खराब करना चाहते हो ?’

‘अरे हम शादी तो कर रहे हैं न ?’

‘पिछले दो साल से तुम यही कह रहे हो I’

‘देखो आज मैं तुम्हारी एक न सुनूंगा , यहाँ तुम्हे बचाने वाला भी कोई नहीं है I‘

‘अच्छा ------ ! तो वीराने में इसीलिये लेकर आये थे ?’

‘हाँ तुम्हारा गरूर तोड़ने के लिये I ’

‘ओह, तो मैं तुम्हें आज पहचान पायी !’- लडकी ने चप्पल हाथ में लेते हुए कहा I

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(26). श्री पंकज जोशी जी

पहचान

कभी खूबसूरत कदकाठी का मालिक सुरेश गाँव से शहर की ओर चल पड़ा अपनी पहचान बनाने को I कालेज में एड्मिशन के दौरान एक सहपाठिनी ‘दामिनी’ से उसकी मुलाक़ात हुई I “ जो कालेज में लड़कों के जज्बातों से खेलने के लिए मशहूर थी “ I एक तरफा प्यार का खेल की दिनों तक चलता रहा और एक दिन उसने उस नवयुवक को भरी क्लास में एक जोरदार तमाचा रसीद दिया “ प्यार और तुमसे कभी शक्ल देखी हैं तुमने “ नश्तर से चुभते हुए उसके शब्दों ने अनायास ही कब उसके क़दमों को धुंआ उड़ाते और शराब के ग्लासों को हलक से उतारने वालों की जमात पर लाकर खड़ा कर दिया उसे पता ही नहीं चला I आज सालों बाद उस लड़की ने अपने इंस्पेक्टर पति के सामने उसको ना सही उसकी लाश को तो पहचान दे ही गई थी ---“ लावारिस नशेड़ी कहीं का ....! ”
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(27). श्री वीरेंदर वीर मेहता जी

"हाजी साहब, उसकी नजरबंदी जायज है। आखिर कब तक हम विचारधारा के नाम पर गैर हाथो में खेलते लोगो की बद्जूबानियां बर्दाशत करेगें।" सईद साहब का लहजा सख्त होने लगा था।
"नही जनाब। मैं आप की बात से इत्तफाक नही रखता। 'ये लोग' भी इसी मिट्टी के बाशिंदे है और अपनी पहचान पुख्ता करना चाहते है।" हाजी साहब ने 'उनको' सही साबित करना चाहा।
"हाजी साहब! उपर 'अमरनाथ' से लेकर 'रामेश्वरम' की गहराई तक जुबां और लिबास के नाम पर चाहे हमारी कितनी ही पहचाने बन जाये पर तिरंगे की शान के लिये तो हम भारतीय ही रहेगें।" सईद साहब ने अपनी नजरे हाजी साहब पर जमाते हुये बात जारी रखी। "और इससे हट कर अपनी पहचान पुख्ता करने वाले को देशद्रोही कहा जाता है। अब ये फैसला आपको करना है कि आप अपनी पहचान किसके साथ ...........।"
हाजी साहब वक्त की नजाकत पहचानते हुये बात पूरी होने से पहले ही बाहर निकल चुके थे।
--------------------------------------------------------------------------
(28). सुश्री सीमा सिंह जी 
उम्मीद (पहचान)
“माँ आप चिंता मत करो मैंने पता कर लिया. बस अब जाने दो मुझे, घर मे बैठ कर कैसे चलेगा. बापू मेरा सपना था कि मै काम करूँ अब तो हमारी जरुरत भी है.रूपा ने समझते हुए कहा. “सब पता कर लिया है,शहर में ऑफिसहै वहाँ कागज जमा करने हैं फिर तीन महीने की ट्रेनिंग और फिर पोस्टिंग. मेरे साथ की दो और लडकियां भी तो कर रही हैं वहीं काम. बापू ने गर्व से देखा बिटिया कितनी सयानी हो गई है. “मै जल्द ही पैसे भेजना शुरू कर दूंगी.फिर हम अपनी ज़मीन छुडवा लेंगे” बस मे चढ़ते चढ़ते रूपा ने कहा..
शहर हकीकत कुछ और ही थी.ना ऑफिस न ट्रेनिंग सीधी पोस्टिंग मिली थी.होटल ब्लू-रे कमरा न० 603.और हाँ एक और चीज़ मिली,नताशा नाम जो अब उसकी पहचान थी.
---------------------------------------------------------------------------------
(29). श्री ओम प्रकाश क्षत्रिय जी 

 लघुकथा – पहचान
“केशवजी, आप का नाम साहित्यकारों की इस लिस्ट में नहीं है. इसलिए आप ‘वीआईपी’ की लाइन में नहीं बैठ सकते है . आप पीछे जाइए .”
“मगर प्रेमचंद्र द्वितीय का नाम तो होगा इस लिस्ट में ?”
“जी, हाँ . उन के स्वागत के लिए यह कार्यक्रम रखा गया है . मगर आप ?”
“मैं उस का पिता .” कहते हुए केशव जी को लगा उन का वजूद खत्म हो गया .
“अच्छा आप !  आइए , बैठिए. आप के लिए तो यहाँ विशेष व्यवस्था की गई है.”
सुनते ही उन की आँखे इस नई पहचान के कारण छलछला आई .
----------------------------------------------------------
(30). ई० नौहर सिह ध्रुव जी
// पहचान //
 
" नहीं.... मैंने कह दिया न तुम मुम्बाई नहीं जाओगी बस | "
" प्लीज माँ, मैं फिल्मो में जाना चाहती हूँ और अपना नाम और पहचान बनाना चाहती हूँ | "
" ठीक है जा पर अपनी इज़्ज़त यही छोड़ जाना | "
 
माँ की यही आखरी बातें गूँजा करती थी प्राची के दिमाग में, जब जब वो नए फिल्मकारों से पहचान बनाने होटलों में आयोजित पार्टियों में जाया करती थी |
______________________
(31). डॉ संध्या तिवारी जी 
आधी आवादी//पहचान विषय आधारित
*************
ये लीजिये आपकी चाय और आज का अखबार।
बाबू जी नहाने का पानी गरम हो गया है आपका
और हाँ माँ जी मैने पूजा की सारी तैयारी कर दी आप पूजा कर लीजिये ।
स्नेहा विजय तुम दोनो आओ नाश्ता लगा दिया है स्कूल नहीं जाना ।
कविता ने आवाज लगाई
पापा मुझे साइना नेहवाल की तरह अपनी पहचान बनाना है अब मैं बैड मिन्टन की स्कूल चैम्पियन हो गई हूं।
बारह साल की स्नेहा ने बडे आत्मविश्वास से अपने पापा से कहा
पापा ने अखबार में डूबे हुये हीउत्तरदिया
"हूंऽऽऽ !!!!!!!!!!!! लगता है तुम अखबार नहीं पढतीं ।
अभी अभी खेल गर्ल्स हाॅस्टल की चार लडकियों ने आत्महत्या की है ।उनका इतना शारीरिक और मानसिक उत्पीडन किया गया कि उन्हे ऐसा कदम उठाना पडा ।तुम क्या समझती हो पहचान बनाना आसान काम है।"
"लेकिन गुमनाम रहना भी आसान काम नही है पापा "
"मम्मी को देखिये"
आवाज शायद पापा के कानो तक ही पहुंची ।दिल तक नहीं।
------------------------------------------------------------------------
{32). सुश्री मीना पाण्डेय जी 
पहचान
अभी - अभी अस्पताल से लौटे दुर्गा बाबू अपने कमरे में लेटे शून्य में निहार रहे थे , तभी पत्नी अंदर आई I 
" ए जी , का सोच रहे हो ? "
" सोच रहा हूँ अशोक की माँ , उस दिन बेटे को एक अनाथ से शादी करने पर उसकी पत्नी के सामने ही कितना कोसा था मैंने , उसके खानदान पर भी सवाल उठाया था ! घर से भी निकल जाने को कह दिया और इसी चीख चिल्लाहट के कारण मेरी तबियत भी खराब हो गयी उसी दिन , पर इतना सब कुछ होने के बाद भी बहू ने मेरी कितनी तीमारदारी की I "
" जे मैं भी यही कहना चाह रही थी जी , इतनी शालीनता व् ततपरता से हमारी देखभाल कर उसने तो अपने खानदान की पहचान तो करवा दी , पर हमने ......
--------------------------------------------------------------------

(33}. श्री राजेन्द्र गौड़ जी 

पहचान
रमेश काफी समय बाद गांव आया था। शहर मे हाड तोड काम कर कुछ पैसे जोडे थे, वही अपने परिवार मे दिये। ४ बहिने और मां-बाप है, परिवार मे। सभी खुश भी थे और असंमजस मे भी थे, कि अब रमेश दुबारा शहर जाएगा या नही। शरीर जर्जर हो गया था उसका, दिन मे घर के बाहर खाट पर लेटा वह भी सोच रहा था, कहा सुबह से शाम तक आराम नही, कहा वो आराम से ही तंग आ गया एक ही दिन मे, कब जाउ, यहा पडे-२ क्या होगा। ये तो अन्धा कुआ है कितना ही भरु कैसे पुरा होगा? "रमेश ओ रमेश" उसके एक पुराने दोस्त के बुलाने पर वो आश्चर्य मे पड जाता है कि फिर वो "ओ रिक्शा" "ओ रिक्शा" किसका नाम है।
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पहली बार मैनें इस आयोजन में भाग लिया है तो मुझे ठीक से समझ नहीं आ रहा था कि कहॉ लिखूं साथ ही कुछ जिम्मेदारियों के कारन भी पूर्र्णतः भाग नहीं ले सकी जिसका मुझे खेद है आप गुणी जनों काबहुतबहुत धन्यवाद.

आ० अनुज

सफल आयोजन की सफल् निष्पन्नता  पर आपको ससम्मान बधाई .

आदरणीय योगराज प्रभाकर सर एक और सफल आयोजन के लिए आपको हार्दिक बधाई इतनी जल्दी संकलन भी आ गया आपकी श्रेष्ठता लाजवाब है  आभार 

आदरणीय योगराज प्रभाकर सर और सभी ओ बी ओ के श्रद्धेय गुरुजनो को इस सफल गोष्ठी के आयोजन के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ।आप सभी सुधिजनो को सादर धन्यवाद कि आपने हम सभी नए लेखकों की रचनाओं पर ध्यान दिया और हमे लघुकथा लेखन के सूक्ष्म और गूढ़ रहस्यों से अवगत करवाया।इस गोष्ठी में मेरी लघुकथा को भी स्थान मिला ये मेरे लिए बहुत ही गर्व की बात है।आपलोगों का आशीर्वाद पाकर मेरी रचना धन्य हुई।
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी लघुकथा गोष्ठी के सफल आयोजन पर आपको और सभी लेखकों को बहुत बहुत बधाई। हिंदी लघुकथा लेखकों के लिए ओबीओ एक बेहतरीन मंच साबित हो रहा है। मुझे विश्वास है यह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक दिन लघुकथाकारों के लिए हब बन जाएगा। मैं बहुत कुछ सीख रहा हूँ आप लोगों के सानिध्य में। जिसके लिए आप सभी का आभारी हूँ।

आदरणीय योगराज भाईजी

33 प्रतिभागी , शुभ संकेत है। लघु कथा गोष्ठी ने कुछ नए और कुछ पुराने  रचनाकारों को सक्रिय करने में अहम भूमिका निभाई है। इस हेतु आपको साधुवाद और संकलन के लिए आभार। आपके मार्गदर्शन में लोग लघु कथा  में भी माहिर होते जा रहे हैं। 

संशोधन - मालिक- “अरे वो भिखारी की औलाद...... अनुरोध है कि इस पंक्ति से मालिक शब्द हटा दीजिए 

सादर 

आयोजन के तत्पश्चात ,,,इतनी शीघ्र संकलन करना सचमुच आसान  नही है ,आयोजन को सफल बनाने पर आप सभी लघुकथा लेखकों को बधाई ,,वैसे तो सभी रचनाये काफी अच्छी रहीं पर कुछ  ने तो  "देखन में छोटन  लगे ,घाव  करे गंभीर " को चरितार्थ किया है |

मुझे अफ़सोस है की इस आयोजन में अपनी समेस्टर परीक्षा के कारन शिरकत नही कर सका |

आदरणीय योगराज सर, लघुकथा में मार्गदर्शन अनुसार  संशोधन किया है. संशोधित लघुकथा को मूल लघुकथा के स्थान पर निम्नानुसार  प्रतिस्थापित करने की कृपा करें-

------------------------------------------

प्लेटफॉर्म पर एक चबूतरे के पास बैठने वाला भिखारी.... बाबा, यही उसकी असली पहचान थी। 

सुबह-सुबह झाड़ू लगाती लक्ष्मी को भरी-पूरी नज़रों से ताड़ते हुए बोला-“ए लछमी, तू इस काम को थोड़े ही बनी है।”

“ई तो किस्मत है बाबा।” कहकर लक्ष्मी चुप रह गई। वैसे लक्ष्मी को ऐसी नज़रों की खूब पहचान थी। मगर रोज की तरह उसकी इस आदत को टालते हुए, चुपचाप अपना काम करती रही।

भिखारी अपने मैले से कम्बल में,  कड़ाके की ठण्ड को मात देता हुआ, अपना पाव-भाजी का पैकेट संभाले बैठा रहा, जो देर रात की ट्रेन के किसी रहमदिल यात्री से उसने पाया था। 

लक्ष्मी झाड़-पोछ कर प्लेटफॉर्म चमका रही थी और भिखारी अपनी आँखे। बाबानुमा मुंह से टपक रही लार, कम-से-कम, उस पाव-भाजी के कारण नहीं है; ये लक्ष्मी बखूबी पहचान चुकी थी। 

अचानक भिखारी ने कम्बल कांधे से गिराया और टॉयलेट चला गया। 

लक्ष्मी सफाई करते-करते चबूतरे तक पहुँच गई और सफाई के पहले उसने पाँव-भाजी का पैकेट उठाकर चबूतरे पर रखा ही था कि भिखारी की जोरदार चीख उसके कानों में पड़ी- "हे भगवान! इसने मेरा धरम भ्रस्ट कर दिया।" 

अचानक एक और पहचान उभर आई थी- भिखारी की भी और लक्ष्मी की भी।

वाह संकलन देखकर मन खुश हो गया आ० योगराज जी, इस बार का आयोजन भी बहुत सफल रहा नए नए रचनाकार जुड़ रहे हैं ये देखकर बहुत ख़ुशी हो रही है ओबिओ की सम्रद्धि में इजाफ़ा हो रहा है दिनोदिन इससे अच्छी और क्या बात होगी |आपको इस त्वरित संकलन के लिए दिल से बधाई तथा आयोजन में भाग लेने वाले सभी रचनाकारों को बधाई |

आ० योगराज सर! आपके अथक परिश्रम को नमन!इतनी जल्दी गोष्ठी का संकलन तैयार हो जाना अपने आप में कीर्तिमान है!हार्दिक बधाई व् अभिनन्दन गुरुवर!

लम्बे अंतराल के बाद विदेश से देश लौटना, अपनों में अपनी पहचान खोजना, सारी व्यवस्थाएं फिर से जुटाना , बीमार पड़ना , स्वस्थ लाभ के लिए संघर्ष करना, इंटरनेट से फिर से जुड़ने के लम्बे प्रयास करना। हफ्ता दो हफ्ता बीत जाना, स्वदेश आना। नीले आकाश का खो जाना, धुंधले आकाश में सब कुछ धुंधला धुंधला नज़र आना, अपनी पहचान ढूंढना, अपनी पहचान बताना , चिरपरिचित माहौल में समाने की कोशिश करना, एक एक काम के लिए दस दस बार प्रयास करना. , मौसम की मार, पर्यावरण की त्रासदी झेलना. घर की सफाई में दिनों का लग जाना, कार की बैट्री का बैठ जाना, अच्छा है ,अच्छा लगता है घर आना.
उस पहचान को भी क्या कहना जिसे खुद ही पड़े बताना. आज ही कुछ कहानियां पढ़ ली हैं , पता नहीं हम अपनी पहचान, बनाते हैं, ढूंढते हैं, या दूसरों को बताते हैं. देखो हम भी हैं , हम हैं.
हीरा भी क्या चीज़ है.
पारखी न हो तो क्या चीज़ है.
रेत और कोयले में लोग क्या से क्या हो गए , हीरे विदेशी हो गये. किस पहचान की बात करें. पहचान है , हम पहचानना नहीं चाहते, या हम पहचान देना नहीं चाहते. हमें पहचानो, हमारो को पहचानों , बस यही काफी है,
लघु - कथा का शीर्षक बहुत प्रभावशाली था, कम से कम हमारे लिए, कुछ लिखना भी चाहा था, पर समय ने साथ नहीं दिया. .... फिर कभी.

आदरणीय योगराज प्रभाकर जी को इस सफल , प्रभावी आयोजन के लिए बहुत बहुत बधाई.
सभी प्रतिभागियों को भी बहुत बहुत बधाई.

योगराज सर प्रणाम... मेरी हालत उस विद्यार्थी की तरह थी जो दूसरे शहर परीक्षा दिलाने गया हो पहली बार.... कहाँ परीक्षा केंद्र है? कहा हाल है ? वग़ैरह वग़ैरह.... इस मंच में ये मेरी दूसरी प्रस्तुति थी... कथा पोस्ट करने के बाद मुझे समझ ही नही आया की अब कहा टिपण्णी करूँ ? दूसरे तीसरे दिन देखा तो मुझे मेरी -कथा ही नज़मेंरमें नही आया... मन उदास हो गया की शायद मेरी रचना स्तरहींन रही होगी इस लिए हटा दिया गया होगा... पर आज अपनी कथा को सूची में शामिल देख अत्यंत हर्ष हो रहा है... बहुत बहुत धन्यवाद सर... मैं अपनी कथा पर सबके प्रतिक्रिया देखना चाहता हूँ पर अभी तक देख नही पाया... कृपया बताएं की वहां तक मैं कैसे पहुँचूँ ?

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