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सज़ायाफ़्ता मुज़रिम या संवेदनशील पड़ोसी !
मनुष्य़ का व्यक्तित्व काली-सफ़ेद तस्वीर नहीं हुआ करता. अच्छे ढंग से इस तथ्य को प्रस्तुत करती लघुकथा केलिए हार्दिक बधाइयाँ आदरणीया कान्ताजी. कई बार होता है, कुछ अपराध परिस्थितिजन्य होते हैं.
मुझे एक फ़िल्म याद आती है - मिली. उसका नायक कोई मुज़रिम तो नहीं था लेकिन अपने पिता के किये कुकृत्य के दुसह्य दंश को भोगता हुआ जी रहा था. उसकी संवेदना और उसके आचरण में जैसा कुछ परिलक्षित था वह बहुत कुछ समझाता हुआ है. वाक्य-विन्यास सम्बन्धी जो सुझाव आये हैं, उनके प्रति बनी आपकी संवेदनशीलता आपके संप्रेषण को निर्दोष करेगी.
इस कथा के लिए हार्दिक धन्यवाद.
" अरे बहन जी , अनजान कहाँ ....मै पडोसी हूँ । आपके सामने वाले घर में ही तो रहता हूँ ! "
" कौन ...? सजायाफ्ता मुजरिम .....! " और उसी पडौसी ने मदद की | अर्थात सजायाप्ता में सवेदना या सहानुभूति नहीं होती इस भ्रम को तोड़ती सुंदर लघु कथा | बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीया कांता रॉय जी
//" अरे बहन जी , अनजान कहाँ ....मै पडोसी हूँ । आपके सामने वाले घर में ही तो रहता हूँ ! "//
बस इसी पक्ति के साथ लघुकथा समाप्त हो जाती है इसके आगे की पक्ति मुझे अनावश्यक लगी. अच्छी लघुकथा हुई है, बहुत बहुत बधाई आदरणीया कांता जी.
दूसरों के बारे में अनायास बना ली गई कुछ छवियाँ ,कैसे हमारा व्यक्तित्व निर्धारित कर लेती हैं पता ही नहीं चलता ,बहुत सार्थक सन्देश देती कथा बधाई आपको आ० कांता जी ,देरी के लिए माफ़ी चाहती हूँ ,सिस्टम में कुछ गड़बड़ी के चलते रिप्लाई पोस्ट नहीं हो पा रहे थे
आदरणीय विजय शंकर सर, राजनीती में सही गलत को मापदंड ही अलग है. प्रदत्त विषय को सार्थक करती बढ़िया लघुकथा हुई है. लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई. रचना पर पुनः उपस्थित होता हूँ. सादर
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