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ख़ुशी को ढूंढता फिरता था क्यों इन्सान दोनों में
हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था
वाह महेन्द्र जी
बेहतरीन ..... बहुत बहुत बधाई
इबादत से जो आता वो बड़ा बेगाना सा मिलता
जो मयखाने से आता वो ही याराना भी होता था,
वाह वाह महेंद्र साहब क्या खूब कही है, या यू कहूँ की हकीक़त बयान कर दिया है आपने |बेहतरीन शे'र |
नमाजी देखता मयकश को नफरत से हिकारत से
शराबी देखता इज्जत से , हट जाना भी होता था,
हा हा हा , बहुत सही , बिलकुल नब्ज पकड़ लिया है आपने , शराबी सबका इज्जत करते है पर लोग है की शराबियों की भावनाओं का क़द्र नहीं करते | बहुत बढ़िया |
मतला और गिरह का शे'र भी काफी बढ़िया लगा , मुबारकवाद कुबूल कीजिये आर्य साहब |
//वहाँ पर एक मस्जिद थी ओ मैखाना भी होता था
जहाँ हर शख्श जाना भी ओ अनजाना भी होता था// वाह वाह - सुन्दर मतला ! "जाना और अनजाना" की जुगलबंदी बहुत सुन्दर बनी है !
//नजर से पूछता था- क्यों ? कहाँ ? मस्जिद को जाते हो ?
नजर का देख कर अनदेख झुक जाना भी होता था// बहुत खूब !
//इबादत से जो आता वो बड़ा बेगाना सा मिलता
जो मयखाने से आता वो ही याराना भी होता था// क्या कहने हैं महेंद्र आर्य जी - बिलकुल दुरुस्त फ़रमाया !
//नमाजी देखता मयकश को नफरत से हिकारत से
शराबी देखता इज्जत से , हट जाना भी होता था// ये शेअर कमाल का कहा है महेंद्र आर्य जी,दो अलग अलग इंसानों की कैफियत को बड़ी खूबसूरती से लफ़्ज़ों का जामा पहनाया है - वाह !
//कभी मैं सोचता था क्या खुदा भी देखता होगा
कि जिसका था यहाँ आना, वहाँ जाना भी होता था// बहुत खूब !
//ख़ुशी को ढूंढता फिरता था क्यों इन्सान दोनों में
हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था// - क्या बात है, क्या बात है, क्या बात है ! ख़ुशी और वीराने में ? क्या कमाल की उड़ान है साहिब !
मुमताज़ जी, बधाई इस बेहतरीन ग़ज़ल पर।
हो सकता है मुझसे इत्तिफ़ाक न हो कुछ मित्रों को लेकिन इस तरही की अब तक की सबसे अच्छी ग़ज़ल रही है ये।
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