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सुन्दर रचना आदरणीया ,हार्दिक बधाई आपको ,नववर्ष की शुभ कामनाएँ
हार्दिक बधाई आदरणीय कल्पना जी ! बहुत अच्छी लघुकथा है!विषय का चुनाव और प्रस्तुतीकरण दौनों ही सराहनीय हैं!आजकल मॉ बाप बच्चों को विदेश भेजने के लालच में यह भूल जाते हैं कि वे जीते जी अपनी ही क़ब्र खोद रहे हैं!पुनः बधाई!
"उधार की साँसे"
" देखिये जच्चा की हालत बहुत खराब है जल्दी से चार बोतल खून का इंतजाम किजीये ! " नर्स ने तेजी से आते हुए कहा.
" मगर सिस्टर बच्चा तो ठीक है ना ? उसे तो कोई खतरा नही ? "
" अरे , पहले मां को तो संभाले बच्चा तो ठीक ही रहेगा "
" नही ,नही , सिस्टर मन्नतो के बाद औलाद आ रही है , वो भी लडका ! हमारे खानदान का चिराग !आप तो बच्चे को को बचा ले "
" अरे, कैसे रिश्तेदार है आप ? बहू से ज्यादा बच्चे की चिन्ता है ! खानदान की चिन्ता है······· उफ्फ !"
" अरे····· ,कौन सी बहू ····? वो ? वो तो उधार की कोख है , पर····बच्चा हमारा खून है हमारा , वो तो बचना ही चाहिये ,समझे गये ना ? ······· हां ssss ..!"
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मौलिक व् अप्रकाशित
आदरनीया बबिता जी, कमाल की दर्द भरी पीड़ा छोडती लघुकथा के लिए कलम को सलाम
उधार की कोख-----दर्द की अपरिसिमित परिभाषा ! गरीबी की इन्तिहाँ और कोख की खरीद फरोख्त का ये विद्रूप रूप मन को हिला गया।
बेहतरीन लघुकथा की प्रस्तुति हुई है आदरणीया बबिता जी।
देर से आई मगर बड़ी दुरुस्त होकर आई है आप। बधाई स्वीकार करें।
आदरणीया बबीता जी , अच्छी एवं सीख देती लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई। ..
आह और वाह का संगम आपकी रचना में है आदरणीया बबिता चौबे 'शक्ति' जी, अपने वंश के उद्धार के लिए उधार की कोख जैसे शब्द प्रयोग करने से बाज नहीं आते लोग| सादर बधाई प्रेषित है, इस रचना के सृजन के लिए|
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