आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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आदरणीय सुनील जी, सुन्दर कथा कही है आपने. महानायक या तमाशबीन? आज के एक गुढ़ प्रश्न को साझा किया है. सादर.
भरे बाजार में लड़की को छेड़ता युवक और भीड़ चुप है, आज के जमाने में यह तब तक सच नहीं लगता, जब तक छेड़ने वाले(वाला नहीं) न हो, यह कुछ फ़िल्मी स्टाइल है। उस्मानी साहिब से सह्मत कहीं न कहीं हम जैसे पाठकों में गलत सन्देश जा रहा है।
वाह ! सार्थक विषय के साथ शानदार लघुकथा लेखन हुआ है आपका आदरणीय सुनील जी ,अन्याय को होते हुए देखने की नपुंसक प्रवृत्ति पर करारा तमाचा हुआ है ये . गिरते नैतिक मूल्यों के इस समय काल समाज को ऐसे ही हीरो की जरुरत है जो अपने गाल पर पड़े हुए थप्पड़ को दिल पर न लेकर देश हित ,समाज -हित के लिए फिर से अपनी हीरोगिरी दिखलाए .हमे आज हर बच्चे में यही बालपन और यहीं हीरो प्रवृत्ति की जरुरत है . तभी देश का ,समाज का उत्थान हो पायेगा .
ढेरों बधाई आपको इस चिंतन मनन को आंदोलित करती लघुकथा के लिए .
आदरणीय सुनील वर्माजी,
आपकी इस प्रस्तुति में तथ्य को तनिक और सहज करने की आवश्यकता महसूस कर रहा हूँ. लघुकथा के आवश्यक गुण ’नाटकीयता’ का सम्यक समावेश तो हुआ है लेकिन वर्णित घटना के बरअक्स उसे लो-प्रोफ़ाइल में रखना अधिक प्रभावी बनाता. ऐसा मुझे लग रहा है.
एक अच्छी कोशिश के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ ..
bhai ji ache se samaj ka chitran hua katha me adhikansh kewal sabdo me hi sidhant aur netikta ki baat khate hei vastav me sabhi uchit kadam se dur rah kar kisi ka bhi bura kyo banu is bhav me
प्रतिकार की भावना को अपनों द्वारा दंड दे कर हतोत्साहित किया जा रहा ,बहुत बढ़िया कटाक्ष ,पालक एवं समाज पर ।बहुत बहुत बधाई सुनील जी ।
बहुत बढ़िया कथा हुई है आदरणीय सुनील वर्मा जी । बधाई स्वीकारें ।
सुंदर लघु कथा हुई है श्री सुनील वर्मा जी | आजकल भावुक होकर तुरंत आगे आकर पन्गा लेने से पहले सोच लेना चाहिए कि कही नेकी करते हाथ तो नहीं जल जायेंगे | हार्दिक बधाई स्वीकारे
घर का वह सदस्य जो अभी मात्र बारह वर्ष का ही हुआ था अपने घरवालों के अनुसार दुनियादारी से अभी अपरिचित था। मगर जब घर का काम करवाना होता तब घरवालों को उसमे अपने मतलब की समझदारी जरूर दिखती। आज भी उसे काम देकर घर से बाहर भेजा गया। रास्ते में भीड़ देखकर उसके कदम ठिठके। जिज्ञासा ने बालमन पर दबाव दिया। क्या हो रहा है यह जानने के लिए वह अपने से दोगुने कद वालों के बीच बमुश्किल जगह बनाता हुआ उनके बनाये घेरे में आगे जा पहुँचा। भरे बाजार में लड़की को छेड़ते युवक को देखकर उसने बिना कुछ सोचे समझे उसकी तरफ पत्थर दे मारा। बदले में सिर से बहते खून को रोकने का प्रयास करते हुए उस युवक का थप्पड़ पड़ा गाल पर। अवसर देखकर लड़की बच निकली। मनोरंजन का अवसर जाते देख धीरे धीरे भीड़ भी गायब होने लगी।
लड़का गाल सहलाते हुए घर पहुँचा। दुनियादारी में पारंगत उसके पिता ने वजह पूछी। नजरें नीची किये हुए अबोध ने पूरी बात कही। सुनकर पिता की आँखो में जब अँगारे दहकने लगे तो सुलगते हुए शब्द बाहर निकले:
"और भी तो लोग थे वहाँ, तुझे ही जरूरत थी क्या महानायक बनने की, मर मरा जाता तो !!"
अगले ही पल वह कम समझ वाला महानायक अपना दूसरा गाल भी सहला रहा था।
आदरणीय सुनील भाई, लघुकथा में कई बातें बगैर कहे समझी जाती हैं, कुछ पक्तियों को मैं हटा कर लघुकथा पढ़ रहा हूँ और बगैर उन पक्तियों के यह लघुकथा मुझे और मारक लग रही है. देख लें शायद पसंद आये, बहुत बहुत बधाई इस खुबसूरत प्लाट पर कथा प्रस्तुत करने पर.
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