श्रद्धेय सुधीजनो !
"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-68, जोकि दिनांक 11 जून 2016 को समाप्त हुआ, के दौरान प्रस्तुत एवं स्वीकृत हुई रचनाओं को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है. इस बार के आयोजन का विषय था – "प्रकृति और पर्यावरण".
पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.
सादर
मिथिलेश वामनकर
मंच संचालक
(सदस्य कार्यकारिणी)
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1. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
विषय आधारित द्विपदियाँ
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बड़े चतुर बनते हो मानव, कहाँ गई, सारी चतुराई।
तन मन के रोगी औ’ भोगी, कर्म सभी करते दुखदाई॥
ब्लास्ट किए औ’ जंगल काटे, कितने ही पर्वत तोड़ दिये।
कल कल करती बहने वाली, नदियों की धारा मोड़ दिये॥
मनमाना उद्योग लगाये, धुआँ विषैली गैस बढ़ाये।
वातावरण प्रदूषित कर दी, फसलों में भी जहर मिलाये॥
बर्बाद किये तुम वन उपवन, गमलों में पेड़ लगाते हो!
इस कंकरीट के जंगल में, क्यों गर्मी से घबराते हो ??
मानव जन्म मिला है फिर भी, दानव जैसा कर्म किया है।
भस्मासुर बन गये स्वयं ही, और धरा को नर्क किया है॥
जैसे कोई पागल मानव, अपने घर में आग लगाये।
रोक दिये नदियों की धारा, अहंकार में जब तुम आये॥
कांप गई भूकम्प से धरा, पाप किये उसका फल देखो।
स्नान आचमन और रसोई, दूषित हैं नदियाँ जल देखो॥
ज्ञान कम अभिमान है जादा, विनाशकारी मति पाई है।
बर्बाद कर दिये धरती को, अब नजर चांद पर आई है॥
आधी धरती वन में बदलो, हरा भरा हर नगर गाँव हो।
जहर उगल न पाये चिमनियाँ, नदी ताल हर जगह छाँव हो॥
आने वाली पीढ़ी वरना, श्वास सहज ना ले पाएगी।
जब दानव की बात करेंगे, याद पूर्वजों की आएगी॥ (संशोधित)
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2. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
पर्यावरण– प्रकृति(अतुकांत)
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शरीर की इकाई में
बुद्धि बता सकती है / बता देती है / महसूस कर सकती है
पाँव के अंगूठे का दर्द
और पाँव ,
आपको वहीं पहुँचा देते हैं,
जहाँ आपकी बुद्धि तय करे / इच्छा करे
हाथों की तकलीफ में आँखे रोती हैं
और आँखों को बचाने हाथ उसे ढक कर सुरक्षा प्रदान करते हैं
सम्वेदनायें पूरी इकाई में सफर कर सकती है /करती है
बिना रोक टोक , जीवंतता से , गहराई से
यहाँ से वहाँ तक
इकाइयाँ विस्तार भी पा लेतीं है / सकतीं हैं
एक शरीर से दूसरे , तीसरे , सैकड़ों या फिर अनगिन शरीरों तक
असीमित है विस्तार की सीमायें
विस्तृत हो सकतीं है ये सँपूर्ण जड़-चेतन तक भी
सच तो ये है कि ,
सँवेदनायें स्वयँ से विस्तार पायी हुईं ही होतीं है
हमारा ‘ मै ‘ ही सिमटा होता है ,अपने आप में
कभी अज्ञानता वश तो कभी स्वार्थ वश
और ये भी सच है कि ,
जैसे पूर्ण अंश से जुड़ा है
वैसे ही
अंश भी तो पूर्ण से जुडा है
पिंड में भी तो ब्रम्हांड है , जैसे ब्रम्हांड मे पिंड
फिर प्रकृति कैसे अलग है ?
प्रकृति भी तो ब्रह्मांड में शामिल है
जैसे हम शामिल हैं ।
प्रकृति में हम हैं , हम में प्रकृति
तभी तो प्रकृति मे आया हर परिवर्तन
मज़बूर कर देता है
हम सब को, किसी परिवर्तन के लिये
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3. आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी
नियति (अतुकांत)
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कार्बन की कालिख पुता चेहरा लिए
छाती पकड़े हाँफता
अक्सर दिख जाता है
किसी कटे पेड़ का ठूँठ पकड़े
सुबकता पर्यावरण
बच्चों की किताबों के पन्ने पलटता
आज वो खुश दिखा
हरे भरे दूर तक फैले खेत जंगल
तारों से भरा साफ़ आसमान
बेटे को तारा दिखाती माँ
ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार
ताली बजा रहा था ये सब देख कर
सच समझ रहा था
आभासी दुनिया को पगला
विकास से जलन के चलते ही है
उसकी सारी कुंठा सारा दुःख
वरना उसके प्रति प्रेम सरोकार
दिखाने में कहाँ कमी है
करोड़ों का बजट गोष्ठिया भाषण रैलियाँ
क्या नहीं है उसके लिए
चिंता है उसकी तभी तो
उसकी कालिख और हंफनी
कम नहीं होती, ये अलग बात है
और आहत कौन नहीं है यहाँ
बीते कल को ढूँढता, हाँफता
कब समझेगा ये बात
कि विकास के हत्थे चढ़ना
नियति है उसकी
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4. आदरणीय डॉ. टी.आर.शुक्ल जी
पर्यावरण (अतुकांत)
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कैसा अंधेर है!
अंधेरे को कोसते हैं....!
विकिरण के आवृत्ति परास को भूल
केवल, द्रश्य क्षेत्र की तरंगों को पोसते हैं!!
सब कुछ उल्टा पुल्टा समझने,
समझाने व प्रचारित करने की,
प्रवृत्ति है बहुत पुरानी।
इसे नये नये स्वादों में हर दिन परोसते हैं!
रावण और कँस के !
दूषित कृत्यों और भ्रष्टाचार से प्रभावित हो ,
उनके "पुतले" जलाकर प्रदूषण फैलाते हैं , और
उत्पन्न उजाले में आनन्द खोजते हैं!!
अनीति, अनाचार में आकंठ डूबकर.. ..
पहले प्रकृति प्रदत्त नीर समीर प्रदूषित करते हैं,
वनों को विनष्ट कर संकट का ढिंढोरा पीटते हैं.. ..फिर,
बृक्षारोपण और नदियों की सफाई करने के नाम पर
व्यापक दम्भाचरण करते हैं!
मलिन मन की सफाई में फोड़़ कर फटाके,
गूंज और गैसों से वायुमंडल में अम्लता घोलते हैं फिर,
ओजोन परत के पतला हो जाने का भय दिखा...
जांच आयोगों के नाम पर द्रव्य बटोरते हैं!
गरीबों का दिवाला निकाल, ये दीवाली मनाते हैं!
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5. आदरणीय पंकज कुमार मिश्रा ‘वात्सायन’ जी
विषय आधारित तुकांत
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मैं विवश सशंकित भयाक्रांत
देख रहा था सृष्टि अंत।
जो सूर्य अभी था तेजवान
निस्तेज हो गया पल भर में।
काली घनघोर घटाओं से
गगन घिर गया पल भर में।।
मानव के अगणित पापों को
वर्षा ने आकर धो डाला।
सागर की लहरों नें आकर
भूपटल को पावन कर डाला।।
भीषण गर्जन नभ मण्डल में
धरती पर वज्रपात हुआ।
वर्षों से शांत धरित्री के
अन्तस् में इक विस्फोट हुआ।
विह्वल व्याकुल घबराकर मैं
अपनी शैय्या पर उठ बैठा।
मैंने खुद से प्रश्न किया
था ये सपना या ये सच था।
इसे स्वप्न मात्र ही कहना तो
भारी भूल मात्र होगी।
यदि रुका नहीं प्रकृति विनाश
तो ये भावी है, घटित होगी।।
हैं वृक्ष आभूषण धरती के
मत छीनो मानव मत छीनो।
खुद ही जिस में तुम फँस जाओ
वो जाल तो बिलकुल मत बीनो।।
प्राण वायु परिमण्डल की
मत करो विषैली दूषित तुम।
नदियों का पानी जल जीवन
मत करो अपावन मैला तुम।।
ये अपना जीवन तथा मनुज
जीवन बाकी जीवों का भी।
अपने लोभ लाभ की खातिर
संकट में मत डालो भी।।
माँ धरती का संदेशा है
मत लिप्त रहो इन पापों में।।
हे ईश्वर के श्रेष्ठ सृजन
है सृष्टि तुम्हारे हाथों में।।
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6. आदरणीय डॉo विजय शंकर जी
प्रकृति, पर्यावरण, पूजा (अतुकांत)
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प्रकृति से जीवन ,
प्रकृति में जीवन ,
प्रकृति से उदय ,
प्रकृति में विलय ,
प्रकृति है तो पुष्प है ,
पुष्प है तो पुष्पार्पण
उस जनक को ,
इस प्रकृति को ,
पूजा , अभिनन्दन ,
आभार अपार ,
पल पल प्यार ,
निरन्तर सत्कार।
धरा पर एक आवरण ,
परि आवरण, पर्यावरण ,
एक घेरा , रक्षा-कवच।
जिसमे सुरक्षित हम,
पशु, वनस्पति, जल,
पवन, अग्नि, चल-अचल ,
सब रक्षक , सब पूज्य ,
सबको पुष्प हार ,
प्रकृति से जीवन है ,
प्रकृति ही रक्षक है ,
प्रकृति की पूजा ही
प्रकृति की रक्षा है ,
पर्यावरण की सुरक्षा है।
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7. आदरणीय तस्दीक अहमद ख़ान जी
विषय आधारित ग़ज़ल
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क़ुदरत में दख़्ल और न अपना बढ़ाइए ।
हो जाएगी तबाह ये दुनिया बचाइए ।
ज़हरीली हो गयी हैं हवाएं जहान की
पर्यावरण है लाज़मी बेहतर बनाइए ।
पानी ज़रूर बरसेगा क़ुदरत की सम्त से
कुछ पेड़ आप प्यासी ज़मीं पर लगाइए ।
क़ुदरत का यह नज़ारा भी आँखों से देख लूँ
रुख़ से निक़ाब आप खुदारा हटाइए ।
आपस में भाईचारे का माहौल होगा तब
मैं आऊं घर पे आप मेरे घर पे आइए ।
रुकते नहीं हैं ज़लज़ले सैलाब खुद बख़ुद
क़ुदरत को आप अपनी तरह मत चलाइए ।
खुशबू से जिसकी पर्यावरण ही उठे महक
तस्दीक़ ऐसे फूल चमन में खिलाइए ।
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8. आदरणीया राजेश कुमारी जी
जाग सके तो जाग (दोहा छंद आधारित गीत )
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हो जायेगा बेसुरा, तेरा जीवन राग|
मनुज अभी भी वक़्त है ,जाग सके तो जाग||
धरा गगन जल थल पवन ,विटप नदी उद्द्यान|
श्वास श्वास भरते यही ,जन जीवन में प्राण||
कुदरत से मिलता तुझे ,जीवन मधुर पराग|
मनुज अभी भी वक़्त है ,जाग सके तो जाग||
नदी जलाशय पी रहे ,नित दिन दूषित द्रव्य|
धन लोलुपता ने सभी, भुला दिए कर्तव्य||
घूँट घूँट पीकर जहर ,सूखे गुलशन बाग़|
मनुज अभी भी वक़्त है ,जाग सके तो जाग||
श्वास प्रदूषण से घुटे,हरियाली बदहाल|
काट काट जंगल हरे,बुला लिया खुद काल||
कहीं उजाड़े बाढ़ ने ,कहीं लील गई आग|
मनुज अभी भी वक़्त है ,जाग सके तो जाग||
संरक्षण करते सजग , रहना सुजन प्रबुद्ध|
पवन प्रकृति पर्यावरण, रखना शुद्ध विशुद्ध||
लगने मत देना कभी, कुदरत में तू दाग़|
मनुज अभी भी वक़्त है ,जाग सके तो जाग||
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9. आदरणीय मनन कुमार सिंह
विषय आधारित गजल
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हम सँवारें आचरण,
साथ दे पर्यावरण
पेड़-पौधों का वरण,
रोकता है भू-क्षरण
प्यास धरती की बुझे,
मेघ के पड़ते चरण।
अन्न उपजे खूब ही,
हो सदा पोषण-भरण।
कर सकें पन तो भला,
पात पालें आमरण।
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10. आदरणीय सुधेंदु ओझा जी
बहुत दिनों से खड़े हुए हैं पेड़ (अतुकांत)
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बहुत दिनों से-
बहुत दिनों से
खड़े हुए हैं पेड़
सुख-दुख की
अनंत कथाएँ
पक्षी-वृंद, जग को-
बतलाएँ
राजा-मंत्री
चोर-सिपाही
सब इतिहास
बनें हैं भाई
हर पत्ता-
वक्तव्य समय का
लिए खड़े हुए हैं पेड़
बीते युग का
शिला-लेख बन
अड़े हुए हैं पेड़
बहुत दिनों से-
बहुत दिनों से
खड़े हुए हैं पेड़
ये बाल-सखा हैं:
दादा के,
दादा के परदादा के
ये बाल-सखा हैं
परदादा के दादा के
परदादा के
माया के षट-कर्मों से
मुक्ति दिलाते हैं ये पेड़
बहुत दिनों से-
बहुत दिनों से
खड़े हुए हैं पेड़
दृढ़ प्रतिज्ञ
होकर दोहराएँ
हर दर पर हम
इन्हें सजाएँ
जन संस्कृति के
अमर प्रचार का
ध्वज फ़हराते
हैं ये पेड़
बुद्धम शरणम
गच्छामि: का
संदेश सुनाते
हैं ये पेड़
बहुत दिनों से-
बहुत दिनों से
खड़े हुए हैं पेड़
-*-
द्वितिय प्रस्तुति
इस देश का बसंत (अतुकांत)
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दल,
दल,
दल-दल साफ हो गया है।
उफ़्फ़ ये बसंत
और खुशबू,
मौसम भी 'आप' होगया है।
हरी दूब पर आँखें,
मन कहीं और उलझा है,
तुम नजदीक हो,
पर छूने नहीं देता,
प्यार एक अजीब-
सा फलसफा है।
महुए ने,
इत्र से स्वागत किया,
गुलाब ने मकरंद बुलाये,
आम पागल हो कर,
बौरा ही गया, जब
सरसों ने हाथ,
पीले करवाए।
कोयल घर-घर संदेसा
ले जाएगी,
सरसों से ही पाती पर,
हल्दी छपवाएगी।
मटर दाँत निपोर रही है,
प्याज़,
धनिया की जड़ खोद रही है।
करेला,
दौड़ा जा रहा है,
कोंहड़ा बिना बाती के
मुस्कुरा रहा है।
लौकी ने,
मन ही मन ठान ली है,
नेनुआ, तर्रोई की
सीमा जान ली है।
यही जीवन का गीत है,
साँसों का छंद है,
मादक सुगंध है,
विकास का पंथ है,
इस देश का बसंत है,
इस देश का बसंत है॥
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11. आदरणीया कान्ता रॉय जी
विषय आधारित प्रस्तुति
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आज चली थी गाँव की ओर
डगर डगर पनघट की ओर
रूनझुन रूनझुन कटही गाड़ी
लौटी थी बचपन की ओर
आज चली थी गाँव की ओर ......
छाँव तले खटिया बिछौना
आस पास था गैया छौना
लौटी थी उस थान की ओर
आज चली थी गाँव की ओर .......
पोखर भीड़ पर बरगद होगा
आम ,जामून और बड़हर होगा
कटहर और इमली की ओर
आज चली थी गाँव की ओर ......
खेत- मेड़ से चने चुरा कर
पीपर गाछ तर उसे भुना कर
कठबेली चटनी की ओर
आज चली थी गाँव की ओर ......
कुआँ ,रस्सी और बाल्टी
छप ,छपाक से नीचे पलटी
लो छूट गया रस्सी का छोर
आज चली थी गाँव की ओर .........
चीं-पों शोर में सपना टूटा
कठही गाड़ी टैम्पू ने लूटा
कटा पड़ा पीपल का कोर
नहीं मिला मेरे गाँव का छोर ......
पोखर सिमट बन गया खत्ता
आम ,जामून,बड़हर लापता
कठबेली का कौन है चोर
कहाँ गया मेरे गाँव का मोर .....
गाँव ,गाँव ना रह पाया है
शहर कहाँ भी बन पाया है
खेत - खेत बंजर वीराना
अब नहीं कौए का शोर
नहीं मिला मेरे गाँव का ठोर .....
कोठी-बखारी खाली-खाली
किसानी को लगी बीमारी
खेती से नहीं कोई आस
कहाँ गया हलधर का भोर
नहीं मिला मेरे गाँव का छोर .....
खो गया मेरे गाँव का भोर ......
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12. आदरणीय सुशील सरना जी
विषय आधारित प्रस्तुति
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चलने दो भई चलने दो
हमें आँख मूँद कर चलने दो
क्या होता है आसमान में
इक छेद के होने से
भानु की रश्मि से धरती
जलती है तो जलने दो
हम क्योँ सोचें धुऐं से
मानव का क्या नुक्सान हुआ
काले धुऐं के ये बादल
ढकें आसमान तो ढकने दो
क्या हुआ जो पेड़ कटे तो
और पेड़ उग आयेंगे
हम क्योँ सोचें बिन पेड़ों के
घन कैसे बन पायेंगे
कैसे बिन घन बरखा होगी
कैसे धान उगायेंगे
हम क्योँ सोचें बिन रोटी पानी
कैसे जिन्दा रह पायेंगे
बैठ होटल के कोने में
हमें नैनों से नैन लडाने दो
कश ले लें जरा जोर जोर से
हमें धुऐं के छल्ले उड़ाने दो
हम क्यों सोचें प्लास्टिक खाकर
गायों ने जान गंवाई है
जो पीते हैं दूध वो सोचें
हमें बीयर से प्यास बुझाने दो
लेकिन….
कौन सोचेगा जरा बताओ
गर हम न ये सोचेंगे
अरे हिस्सा हैं हम इस सृष्टि का
हम स्वयं को अलग न कर पाएंगे
पेड़ों से हैं जीवन सांसें
बादल भी यही बनायेंगे
बरस बरस के जमीं पे बादल
हर जीव को जीवन दे जायेंगे
धुंआ, प्लास्टिक और कचरा ही
इस पर्यावरण के दुश्मन हैं
पर्यावरण को शुद्ध बनायें
हमे ये संकल्प दोहराना है
आँख मूँद कर अब हमको
न कोई कदम बढ़ाना है
आने वाले युग को हमें
स्वच्छ पर्यावरण दिलाना है
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13. आदरणीय ब्रजेन्द्र नाथ मिश्रा जी
प्रकृति जीवन रस बरसाती है (गीत)
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प्रकृति हमारी माता है
वह जीवन रस बरसाती है।
जबसे वह अस्तित्व में आई
उसने बांटे जीवन अनन्त।
ब्रह्मांड में वह पाई विस्तार
उर्जा फ़ैली दिग दिगंत।
हम सब उसकी संतानें है
अमृत रस पिलाती है।
वह जीवन रस बरसाती है।
जीवन को पोषित करने को
उसने दिए हवा और जल।
उसने दिए प्रकाश सूरज का,
उसने दिए अन्न और फल।
माँ का दूध दिया उसने
जो पुष्ट हमें कर पाती है।
वह जीवन रस बरसाती है।
सूरज की रोशनी उससे है
चन्दा में है चांदनी।
बादल में तड़ित- प्रभा उससे
उससे ही है हरी धरिणी।
हमारी है अन्नपूर्णा माँ
वह लोरी गा हमें सुलाती है।
वह जीवन रस बरसाती है।
जल बनी कभी बहा करती है,
सरिता की निर्झरणी - सी।
आगे बढ़ सरिताएं मिलकर,
बहती प्रवाह मयी तटिनी - सी।
धरती को उर्वर करती,
सींचित कर सरस बनाती है।
वह जीवन रस बरसाती है।
क्या - क्या नहीं दिया उसने
उसकी गणना कर नहीं पाऊं।
इसके बदले कुछ लिया नहीं,
मान मैं उनका रख नहीं पाऊं।
हमने उसको दुःख दिए है
फिर भी वह हमें सहलाती है।
वह जीवन रस बरसाती है।
धरती का कलेजा चीर - चीर,
खनिज निकाले हमने कितने।
सागर की अतल गहराई से भी
तेल निकाले कितने हमने।
फिर भी सहती रही चुप चाप
हमारे जीवन सरस बनाती है।
वह जीवन रस बरसाती है।
बस्तियां बसाने में हमने
वन सारे उजाड़ दिए।
वन्य प्राणी अब जाएँ कहाँ
उनके बसेरे उखाड़ दिए।
फिर भी वह चुपचाप हमारी करतूतों
पर आवरण डालती जाती है।
वह जीवन रस बरसाती है।
अपनी सुविधाओं के लिए
कल कारखाने बनाये हमने।
पर उनके अवशेषों से दूषित
कर दी धरा और जल कितने।
माफ़ किया माँ ने फिर भी
बादल बन जल बरसाती है।
वह जीवन रस बरसाती है।
अब तो चेत ऐ मानव जन
धरा को कर आवृत हरियाली से।
पर्यावरण बचा ले अब भी
बच्चे जीयें खुशियाली से।
माता का फैला है आँचल
वरदान तुझे दे जाती है
वह जीवन रस बरसाती है।
वह जीवन सरस बनाती है।
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14. आदरणीया सरिता भाटिया जी
माँ का ख़त बच्चों के नाम (मुक्तक)
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मेरे प्यारो (पृथ्वीवासी)
मेरे कोमल बदन पर अपनों के आघात ना सह पाऊँगी,
मत दो मुझे ग्लोबल वार्मिंग का आगोश पिघल जाऊँगी,
खिलने दो मुझे दे दो भीगे सावन और बसंत सा प्यार ,
वरना तुम्हारी ही आगोश को एक दिन निगल जाऊँगी ||
तुम्हारी माँ (पृथ्वी)
आह्वान
सीता शबनम राम सुनीता, अफजल पीटर गौरव आओ,
शेर सिंह को साथ बुलाकर ,एक एक सब पेड़ लगाओ,
प्रदूषण को दूर भगाकर ,हरियाली चहुँ ओर बढाकर,
पर्यावरण को शुद्ध बनाकर रहने लायक इसे बनाओ ||
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15. आदरणीया नयना (आरती) कानिटकर जी
विषय आधारित प्रस्तुति (अतुकांत)
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उदास भोर
तपती दोपहर
कुम्हलाई शाम
धुआँ ही धुआँ
गाड़ी का शोर
अस्त व्यस्त मन
ये कैसा जीवन
मानव ने किया विनाश
हो गया सत्यानाश
पहाड़ हो गये खाली
कैसे फूल उगाँए माली
सूखा निर्मल जल
प्रदूषित नभमंडल
जिस देखो औद्योगिक मल
कैसे हो जंगल मे मंगल
कही खो गये है
वन-उपवन, वो बसंत का आगमन
कैसे गूँजे अब, कोयल की तान
बस! भाग रहा इंसान
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16. आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी
मैं प्रकृति हूँ (चोका)
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मैं प्रकृति हूँ,
अपने अनुकूल,
मैंने गढ़ा है,
एक वातावरण
एक सिद्धांत
साहचर्य नियम
शाश्वत सत्य
जल,थल, आकाश
सहयोगी हैं
एक एक घटक
एक दूजे के
सहज अनुकूल ।
मैंने गढ़ा है
जग का सृष्टि चक्र
जीव निर्जिव
मृत्यु, जीवन चक्र
धरा निराली
जीवन अनुकूल
घने जंगल
ऊंचे ऊंचे पर्वत
गहरी खाई
अथाह रत्नगर्भा
महासागर
अविरल नदियां
न जाने क्या क्या
सभी घटक
परस्पर पूरक ।
मैंने गढ़ा है
भांति भांति के जंतु
कीट पतंगे
पक्षी रंग बिरंगे
असंख्य पशु
मोटे और पतले
छोटे व बड़े
वृक्षों की हरियाली
सृष्टि निराली
परस्पर निर्भर ।
मैनें गढ़ा है
इन सबसे भिन्न
एक मनुष्य
प्रखर बुद्धि वेत्ता
अपना मित्र
अपना संरक्षक
सृष्टि हितैषी ।
पर यह क्या
मित्र शत्रु हो गये
स्वार्थ में डूब
अनुशासन तोड़
हर घटक
विघटित करते
प्रतिकूल हो
मेरी श्रेष्ठ रचना
मैनें इसे गढ़ा है ।
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17. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
विषय आधारित प्रस्तुति (दोहा छंद)
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कैसा है यह विश्व का, भौतिक चरम विकास
बेसुध पर्यावरण है प्रकृति काल का ग्रास
वन अरण्य कानन विपिन आज हुए इतिहास
बाग़-बगीचे वाटिका लेते अंतिम सांस
पथ प्रशस्त तो हो गया बचा न कोई वृक्ष
शीतलता छाया गयी दाहकता प्रत्यक्ष
नहीं महकती बौर अब अनुशासन निर्बंध
नहीं मयस्सर गाँव में भी महुआ की गंध
गौरय्या दिखती नहीं कोयल साधे मौन
जल-पक्षी के भाग्य की कहे कथा अब कौन
तोता मैना बया शुक चातक खंजन मोर
दूर क्षितिज में जा छिपे सारस हंस चकोर
कारों के है काफिले बाइक का आगार
ज्वलनशील पेट्रोल है जहरीला बाजार
मृदा विषैली हो गयी मिले रसायन तत्व
खेतों में भी यूरिया का अब बड़ा महत्व
मलय अनिल स्तब्ध है खड़े हो गए कान
क्लोरोफ्लोरोकारबन सल्फर का अवदान
धुआँ-धुआँ आकाश है मरघट सारा देश
दम घुटता है वायु का आकुल है परिवेश
गंगामृत दूषित हुआ जल में मल का वास
खारा सागर हँस रहा कहाँ बुझेगी प्यास ?
सदा सिखाते उपनिषद हमे शान्ति का पाठ
उसी धरा पर अवतरित अब अशांति का ठाठ
जहाँ ऋचाएं गूंजती वहाँ मशीनी शोर
संयंत्रो का जाल है तुमुल-चमू का रोर
पञ्च तत्व जिनसे हुआ संसृति का निर्माण
उन्हें प्रदूषित कर अहो जग चाहे कल्याण
खेल खेलकर ध्वंस का कब मिलती है शांति
विजय प्रकृति पर हम करें यह तो मन की भ्रान्ति
सतत चुनौती दे रहे संसृति को अविराम
नहीं जरा भी सोचते क्या होगा परिणाम
जल प्लावन होता नहीं सूनामी विकराल
नहीं उत्तराखंड में तांडव करता काल
अघटित की संभावना क्यों होता हृत्कंप
प्रतिदिन यूँ आते नहीं वसुधा पर भूकंप
हे मानव अनजान अब सकल त्यागकर द्वन्द
दोहन धरती प्रकृति का सत्वर कर दो बंद
प्रकृति और पर्यावरण में ईश्वर का वास
जड़ चेतन के रूप में रहता जगन्निवास
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18. आदरणीय अशोक रक्ताले जी
विषय आधारित प्रस्तुति(दोहा छंद)
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देती सुंदर फूल जो , नहीं बची वह शाख |
उडी वक्त के साथ ही, मुख पर मलकर राख ||
काट दिए हमने स्वतः, बढ़कर अपने हाथ |
आँगन भी घर का गया, फुलवारी के साथ ||
सूना हर खलिहान है, सूखा है हर खेत |
नदियाँ भी ढोती दिखी, केवल बालू रेत ||
बिगड़ा है पर्यावरण, क्या है इसका मूल |
बाहर खोजोगे अगर , नहीं दिखेगी भूल ||
काट दिए कितने विटप, तज कर सारी लाज |
और फँसा कंक्रीट के , वन में मानव आज ||
वाटर हार्वेस्टिंग करो, खूब सहेजो नीर |
कुओं को ज़िंदा करो, हरो धरा की पीर ||
हराभरा भूतल रखो, करो प्रदूषण दूर |
होगी वर्षा वक्त पर, और सत्य भरपूर ||
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19. आदरणीय जवाहर लाल सिंह जी
प्रकृति और पर्यावरण (प्रथम प्रस्तुति)
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काट के जंगलों को महल तो बनाते हो,
खेत खलिहानों में भी डीजल जलाते हो
पैदल चले न कोई फटफटिया लाते हो
सारी बीमारियों को बैठे घर बुलाते हो
सांस की बीमारी से फूलने लगे जो दम
डाक्टर, हकीम और वैद्य को बुलाते हो?
शीतल बयार जब चलने सुहानी लगे
ठंढा लगे ना तनिक घर में छुप जाते हो
सूरज तपे हैं जब धूप तन जलाने लगे
गर्मी बर्दाश्त नहीं ए. सी. को चलाते हो
नदियाँ तब्दील हुई जहरीली नालो में
बिसलेरी पानी से प्यास को बुझाते हो.
अब भी तू चेत जरा पर्यावरण बिगड़े न
हर बार तुम ही तो प्रकृति को रुलाते हो
रूठ जाए प्रकृति जो उलट पुलट कर डाले
खुद पे आ जाए तो ब्यर्थ ही चिल्लाते हो
शिल्प नहीं जानूं मैं बात कहनी है मुझे
अमराई की खुशबू घर में क्या पाते हो ?
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प्रकृति और पर्यावरण (द्वितीय प्रस्तुति)
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गोद में बैठो प्रकृति के, स्वच्छ सब करते चलो.
फूल की खुशबू समेटो, नभ नमन करते चलो.
नभ नमी को छोड़ता है, नम धरा संचित करे,
बादलों को देख नभ में, मोर मन हर्षित भरे
गाँव में संगत कृषक के, हौसला भरते चलो
गाँव में छाई हरियाली, सस्य श्यामला आली
करते सिंचित फसलों को, उपवन जैसे माली
सीख उनसे ले सको तो, ख्वाब को हरते चलो.
काट ना वन सम्पदा को, ना ले उनसे पंगा
स्वच्छ जलवायु और मिट्टी, तन मन करते चंगा
चेतो जी अब समय नहीं, जल बचत करते चलो
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20. आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' जी
पर्यावरण-प्रकृति
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पागल हुआ है तू क्यूँ शातिर,
प्रकृति बिगाडी किसकी खातिर।
बर्बाद किए ये जंगल सारे,
आवास बनाने की खातिर।
बलि चढा दिए पंछी कितने,
आराम बढाने की खातिर।
हवा प्रदूषित कर दी सारी,
अरमान सजाने की खातिर।
पहाड फोड दिए हैं सारे,
सडक बनाने की खातिर।
नदियाँ विषैली कर दी हैं,
अंधविश्वास बढाने की खातिर।
कैंसर दमा की याद दिलाऊं,
तुझे जगाने की खातिर।
बच्चों से ज्यादा पेड लगा ले,
पर्यावरण बचाने की खातिर।
खुद पर तू अंकुश लगा ले,
हरियाली बढाने की खातिर।
बचा ले धरती की शोभा,
नस्लें बचाने की खातिर।
सजा दे पृथ्वी का गहना,
अस्तित्व बचाने की खातिर।
बोल रहा हूँ मानव तुझको,
एहसास दिलाने की खातिर।
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21. आदरणीय पवन जैन जी
हाइकू
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रीते पहाड़
तपती दोपहर
बांझ बदरा
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22. आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी
प्रथम प्रस्तुति (सार-छंद)
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झूठ बोलते मम्मी-पापा, पेड़ों की सब बातें,
कब पेड़ों की पूजा करते, भूले सब सौगातें।
झूठ बोलते मम्मी-पापा, प्रकृति संग तुम रहना,
कमरों में ही कटता जीवन, मानूं किसका कहना।
झूठ बोलते मम्मी-पापा, सबक़ प्रकृति से ले लो,
दूर सदा उससे ही रखते, मोबाइल से खेलो।
झूठ बोलते मम्मी-पापा, जंगल भाग्य विधाता,
पेड़ लगाओ कहते फिरते, ख़ुद कोई न लगाता।
झूठ बोलते मम्मी-पापा, जल ही अपना कल है,
घर पर ही बरबादी देखो, बहता जल पल-पल है।
द्वितिय प्रस्तुति (हाइकू)
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[1]
वृक्ष खिलौना
खेलकर तोड़ते
स्वार्थ सलोना
[2]
कटते पेड़
हरे-भरे ही ज़ख़्म
बने नासूर
[3]
बाढ़ ही बाढ़
पेड़ नेस्तनाबूद
कटती ज़मीं
[4]
मृदा विषैली
ज़हरीला आसमां
संयंत्र जमा
[5]
शोषित धरा
भरा पाप का घड़ा
अंजाम बुरा
[6]
मानव ह्रास
दूषित पर्यावरण
काल का ग्रास
[7]
वृक्षारोपण
संतुलित जीवन
इति शोषण
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23. आदरणीया महिमा वर्मा जी
विषय आधारित प्रस्तुति
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लरज रही रूह से,सहम रही दोह से ,
निहार रही मोह से ,कपूत को ये धरा
दुलार मांगे देह से,सिंगार मांगे मेह से
संहार मांगे मेघ से, निराली-सी ये धरा.
उबल उठी क्रोध से,मचल उठी द्रोह से,
निगल उठी रोष से,कुपित हो ये धरा
कर लो जो देखभाल ,कर देती है निहाल,
रखो इसका ख़याल ,हमारी है ये धरा.
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आदरणीय मिथिलेश भाईजी
महा उत्सव - 68 के सफल आयोजन और संकलन हेतु बधाइयाँ , शुभकामनायें। 9 पंक्तियों में संशोधन है अतः पूरी रचना पोस्ट कर रहा हूँ , संशोधन में प्रतिस्थापित करने की कृपा करें। ... सादर
बड़े चतुर बनते हो मानव, कहाँ गई, सारी चतुराई।
तन मन के रोगी औ’ भोगी, कर्म सभी करते दुखदाई॥
ब्लास्ट किए औ’ जंगल काटे, कितने ही पर्वत तोड़ दिये।
कल कल करती बहने वाली, नदियों की धारा मोड़ दिये॥
मनमाना उद्योग लगाये, धुआँ विषैली गैस बढ़ाये।
वातावरण प्रदूषित कर दी, फसलों में भी जहर मिलाये॥
बर्बाद किये तुम वन उपवन, गमलों में पेड़ लगाते हो!
इस कंकरीट के जंगल में, क्यों गर्मी से घबराते हो ??
मानव जन्म मिला है फिर भी, दानव जैसा कर्म किया है।
भस्मासुर बन गये स्वयं ही, और धरा को नर्क किया है॥
जैसे कोई पागल मानव, अपने घर में आग लगाये।
रोक दिये नदियों की धारा, अहंकार में जब तुम आये॥
कांप गई भूकम्प से धरा, पाप किये उसका फल देखो।
स्नान आचमन और रसोई, दूषित हैं नदियाँ जल देखो॥
ज्ञान कम अभिमान है जादा, विनाशकारी मति पाई है।
बर्बाद कर दिये धरती को, अब नजर चांद पर आई है॥
आधी धरती वन में बदलो, हरा भरा हर नगर गाँव हो।
जहर उगल न पाये चिमनियाँ, नदी ताल हर जगह छाँव हो॥
आने वाली पीढ़ी वरना, श्वास सहज ना ले पाएगी।
जब दानव की बात करेंगे, याद पूर्वजों की आएगी॥
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मोहतरम जनाब मिथिलेश साहिब ,ओ बी ओ लाइव महा उत्सव अंक -68 की कामयाब निज़ामत और त्वरित संकलन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
हार्दिक धन्यवाद आपका
हार्दिक आभार
संशोधन हो गया है. सादर
हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय उस्मानी जी टंकण त्रुटी की तरफ ध्यान दिलाने के लिए आभार. ठीक करता हूँ. सादर
आदरणीय मिथिलेश भाई साहिब , महा उत्सव - 68 के सफल आयोजन और संकलन हेतु हार्दिक बधाई। संकलन में मेरी प्रस्तुति को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार।
हार्दिक धन्यवाद
महा उत्सव - 68 के सफल आयोजन और संकलन हेतु ढेरों बधाईयाँ प्रेषित है . उस दिन अति-व्यस्त रहने के कारण इस बार के आयोजन में प्रतिबद्धता से शिरकत नहीं कर पायी जिसका मुझे खेद है . आप सभी की रचनाएं मैंने पढ़ी थी बाद में ,और मेरी रचना पर आये आप सभी का मार्गदर्शन पाकर मात्राओं को साधने की कोशिश करुँगी . आप सभी को अभिनन्दन .
हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय , साधुवाद .
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