आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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अपने अन्दर कई तरह के गुस्से लिए जनता को कुछ बहाना चाहिए होता है आक्रोश निकालने का ...बहुत बढ़िया रचना ,हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको राहिला जी
बहुत सुन्दर! सामूहिक आक्रोश प्रायः ऐसा ही होता है। बिना समझे हर कोई बहती गंगा में अपने हाथ धोना चाहता है।
राहिला जी, लघुकथा अच्छी है लेकिन प्रदत्त विषय से पूर्ण न्याय नहीं कर रही हैI भीड़ ने जो किया उसको आक्रोश का नाम नहीं दिया जा सकताI वह तो वक्ती वलवला है, एक किस्म की भेड़ चालI इसके इलावा कथा कहने में भी आपसे भारी चूक हुई है, कुछ वाक्य देखिए:
१. मामला छेड़छाड़ का पता लगते ही ,पूरी की पूरी भीड़ उस लड़के पर पिल पड़ती है।
२. तभी कोई जागरूक नागरिक पुलिस को इत्तला कर देता है।
३. सतर्क पुलिस अपनी पुरानी छवि को तोड़ते हुये कुछ मिनटों में घटना स्थल पर पहुँच जाती है।
४. लहूलुहान लड़के को आक्रोशित भीड़ से मुक्त कराती है।
कथकार ने एक कथकार की तरह कथा कहनी होती है, आपके ऊपर वाले वाक्यों से ये नहीं लगता कि कोई किसी कि किसी फिल्म की स्टोरी सुना रहा हो?
बहरहाल, सहभागिता हेतु अभिनन्दन अवश्य स्वीकारेंI
बहुत शुक्रिया आदरणीय सर जी!रचना का अवलोकन कर, मार्गदर्शन देने के लिए।सादर
मोहतरमा राहिला साहिबा , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
कमियों की और गुरु जनों ने इंगित किया है,अच्छा विषय चयन हेतु बधाई राहिला जी।
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