आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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सादर शेख उस्मानी जी मुझे तो लगता है, अगर भारत के वासियो के विचार एक हो जाये तो ये आक्रोश भी खत्म समझो, आप का बहुत बहुत धन्यवाद
अच्छी लघुकथा है भाई हरिकृष्ण ओझा जी, बधाई स्वीकारेंI लेकिन यह सारा टेक्स्ट मय विवरण और संवाद गड्डमड्ड क्यों कर दिया? मेरे भाई प्रेसेंटेशन का महत्त्व भी तो कम नहीं होता नI
आप को लघु कथा अच्छी लगी, हमारी मेहनत रंग लाई, आप की सबसे अच्छी बात ये है की आप हर कथा को बारीकी से पढ़ते है और उस में जो भी फैक्ट्स होते है आप बयां करते है जो हमारे लिए मील का पत्थर साबित होते है, आप रियलिटी पेश करते है बनावटी नहीं, यही बात हमें आप की सबसे अच्छी लगती है, आदरणीय योगराज जी आप का बहुत बहुत धन्यवाद,
जनाब हरिकिशन साहिब , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
तस्दीक़ अहमद खान जी आप का बहुत बहुत धन्यवाद
वाह ! बहुत खूब ! आपकी कथा में गाड़ियों का चूं-चूं करते हुए गति से आना और जाना कमाल का वाक्य सम्प्रेषण हुआ है .बाकी लघुकथा में कथ्य को भी बहुत बढ़िया उभार मिला है . बधाई प्रेषित है आपको आदरणीय हरिकिशन ओझा जी.
भीड़ की ताकत का अनुमान लग गया नेता जी को , वैसे आज कल भीड़ भी पैसे देकर जुटा ली जाती है , हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको इस रचना पर आदरणीय हरिकिशन ओझा जी
आदरणीय हरिकृष्ण ओझा जी, सुन्दर कथा एक ऎसी ही कथा आयोजन के प्रारम्भ में देखने को मिली थी. सादर.
आक्रोश
ऋचा माँ के साथ १८ नं कोठी में दाखल हुई तो दंग रह रह गई ।
बड़ी सुनसान कोठी और हर कमरे में ए. सी. और टी. वी. ।
एक कमरे में ए सी टी.वी दोनों ही चल रहे थे ।
आज पहली बार माँ के यहाँ आई थी, इतनी बड़ी कोठी में ।
“माँ,क्या ये आदमी अकेला ही रहता है,क्या कोई काम नहीं करता” ऋचा ने कहा ।
“चुप” माँ ने ये कह ऋचा को चुप करा दिया ।
मगर फिर खुद ही कहने लगी “क्या जरूरत है, इनको काम करने की” ।
“हाँ, बड़े लोग काम थोड़ी करते है, मजे करते हैं” ऋचा ने माँ के साथ ही कहा ।
“ नहीं करता है, आज कल छुटियाँ चल रही हैं ”माँ ने कहा ।
“मगर छुटियाँ तो हमें भी होती है,मगर हम तो फिर भी काम करते हैं ” ऋचा ने फिर कहा ।
“माँ तुझे तो छुटियाँ भी नहीं होती” ।
“हाँ, काम करते हैं, तभी तो गुजारा चलता”माँ ने फिर कहा ।
“मगर इतने सवाल नहीं करते” माँ ने ऋचा से चुप रहने को कहा ।
जैसे जैसे माँ कमरे में पोचा लगा रही थी, साथ ही ऋचा का चेहरा देख कर हैरान हो रही थी ।
मगर पता नहीं क्यूँ वह जल्दी से काम खत्म कर ऋचा को बाहर ले जाना चाह रही थी , मगर फिर खुद को कहती इसे कल भी लाएगी, काम के लिए नहीं।
"दुनिया बदलने के लिए आक्रोश तो पैदा होना चाहिए", अपने घर वाले कि कहे शब्दों को वह दुहरा रही थी ।
"मौलिक व अप्रकाशित"
आ० मोहन बेगोवाल जी,आपकी लघु कथा शुरू से जो रोचकता लिए हुए थी अंत में आकर मानों धम्म से बैठ गई या मैं ही इसके अंत को समझ नहीं सकी और ये प्रदत्त विषय को किस तरह परिभाषित का रही है वह भी प्रश्न रह जाता है इसका अंत और बेहतर हो सकता था खैर ये मेरी सोच हो सकती है |
आपको बहुत- बहुत बधाई
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