आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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आ. कांता जी कथा की संवादात्मक प्रवाहमयी शैली ने एक सांस मे पढने को मजबूर किया. बेटे की करतूत को बेपरदा करती रचना.वैसे आप अनुभवी रचनाकार है तो सलाह देना कहा तक उचित है नहीं जानती. बस एक बात मुझे अखर रही "क्या तुम लिव - इन में नहीं रह सकती उसके साथ ? " की जगह उसे "बेटे को छोड देने" की सलाह दी जाती. जिसे अक्सर हाथ उठाने की आदत हो क्या वो "लिव - इन " मे उस पर हाथ नही उठाएगा. बधाई आपको इस विसंगती को पाठको तक लाने के लिए
आदरणीया नयना जी , इसको छोड़ेगा तो किसी और को लाएगा ,इससे बात नहीं बनेगी . वे एक दुसरे को प्यार करते है ,लगाव है तो यहाँ बात पुरुष के मन में अधिकार की भावना प्रबल है इसलिए माँ लिव -इन को प्राथमिकता दे रही है क्योकि लिव -इन में रहने वाले को पति-पत्नी का दर्ज़ा भी मिलता है और उनके बच्चे को पूरा अधिकार भी . भले ये भारतीय संस्कृति पर घातक है लेकिन नारी सन्दर्भ में सोचिये तो ये बंधन मुक्त रिलेशन स्त्री को दासत्व से इतर स्वयं पर पूरा अधिकार देगी . उसको बाध्यता नहीं होगी ,वो विवश नहीं होगी अनचाहे रिश्तों को धोने के लिए .जीवन का एक अवसर खुला रहेगा हमेशा . और चिड़िया के उड़ने का डर , मर्द प्रजाति अपनी पुरुष तत्व से बाहर निकल कर मानवीय दृष्टिकोण से पत्नी रूपी सहयोगी को स्वीकार कर सकेगा . :)))))
आभार आपका तहेदिल आदरणीय महेंद्र जी रचना पसंदगी के लिए .
बाबा रे | अंत में क्या मोड़ दिया है आदरणीया कांता दी | बधाई स्वीकारें |
दायित्व-विहीन हो जाय ,स्वार्थी मनोभाव से उबर कर स्पष्ट एवं प्रेक्टिकल सलाह स्तुत्य है ।माँ का आक्रोश एवं बेटे के प्रति उत्तरदायित्व को बखूबी उकेरा है आदरणीय आपने।बधाई बेहतरीन कथा हेतु ।
हार्दिक बधाई आदरणीय कांता रॉय जी! बेहतरीन प्रस्तुति! पहली बार लघुकथा पढ़ने पर मुझे ऐसा लगा जैसे माँ उस लड़की को बहू नहीं बनाना चाहती इसलिये उसे भड़काने के लिये झूठ बोल रही है!मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि बेटा ऐसा भी कर सकता है!मगर जब अन्य लघुकथाकारों की टिप्पणियाँ पढ़ी तो मेरा तो माथा घूम गया!सच में कलियुग आगया!
कथा पर आपकी प्रतिक्रिया ने मेरा उत्साह बढाया है . ह्रदय से आभार प्रेषित है आपको आदरणीय तेज वीर जी .
कथा का मर्म समझने के लिए आपका भात बहत आभार आदरणीय पवन जी . आपकी उपस्थिति से रचनाकर्म के प्रति ऊर्जा संचारित होती है . सादर
कथा का मर्म समझकर कथा को सार्थकता देने के लिए ह्रदय से आभार आपको आदरणीय सतविन्द्र जी .
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