(१). योगराज प्रभाकर
दाग़
हाथ में किताबें पकडे बदहवास सा युवक लगभग हांफता हुआ थाने में दाखिल हुआI
“नमस्ते सर!” एक बहुत ज़रूरी बात करनी है आपसेI” उसने अपनी साँसों पर काबू पाते हुए थानेदार से कहाI
“बैठोI” थानेदार ने सामने पड़ी कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए कहाI “हाँ बतायो, क्या बात करना चाहते हो?”
“सर! शहर में बहुत बड़ा खून खराबा होने वाला हैI” युवक ने अपने माथे का पसीना पोंछते हुए कहाI
“खून खराबा? कौन करने वाला है ये खून खराबा?”
“जी, वो छोटी बस्ती के कुछ शरारती लोगI” युवक ने लगभग फुसफुसाते हुए उत्तर दियाI
“मगर तुम ये सब कैसे जानते हो?”
“जी मैं कॉलेज से वापिस आ रहा था तो गोल पार्क के एक कोने में कुछ लोगों को दंगे फसाद की बातें करते हुए सुनाI”
“क्या बातें कर रहे थे वो लोग?”
“जी, वो लोग कह रहे थे कि कल रात बड़ी बस्ती को आग लगा देंगे और वहाँ एक एक को चुन चुन कर मारेंगेI” युवक के माथे पर पसीने की बूँदें चमक उठींI युवक को ध्यान से देखते हुए थानेदार ने पूछा:
“मगर तुम हो कौन?”
इससे पहले कि युवक कुछ बोलता, एक अधेड़ हवलदार ने पास आते हुए ऊँचे स्वर में कहा:
“ये क्या बताएगा साब! मैं बताता हूँI ये गोल हवेली वालों का लौंडा हैI”
“वही गोल हवेली जो छोटी बस्ती में है?” थानेदार ने आश्चर्य भरे स्वर में युवक से पूछाI
“जी सर, वहीI” युवक ने आँखें नीची करते हुए उत्तर दियाI
“साब जी! आज तक शहर में जितने भी दंगे फसाद हुए है, उन सब मे इन हवेली वालों का हाथ रहा हैI” युवक को घूरते हुए उस में हवलदार ने कहाI
“क्यों भई! क्या हवालदार ठीक कह रहा है?”
“जी... जी काफी हद तक!” युवक ने कुछ झिझकते हुए उत्तर दियाI
“देखा साब?” हवालदार की आवाज़ में जीत की ख़ुशी थीI “यह ज़रूर इसकी कोई चाल हैI”
थानेदार कुर्सी से उठकर युवक के पास आया और उसका कन्धा थपथपाते हुए पूछा:
“एक बात बतायेI वो सब तो तुम्हारे अपने लोग हैं, तो फिर उन्हीं के खिलाफ मुखबरी क्यों?”
युवक ने किताबों को कसकर सीने से लगाते हुए उत्तर दिया:
“अपने खानदान पर लगे कलंक को धोना चाहता हूँ सर!”
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(२). सुश्री नयना (आरती) कानिटकर
"रेशम के धागे"
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वाहह्ह क्या बढ़िया महक आ रही है. ."माँ !क्या बना रही आप। वह जैसे ही किचन में गई आश्चर्य से आँखें बहुत कुछ कह गई।
"दादी! आप यहाँ रसोई में। अरे! मम्मी कहा है? लगता है आज सूरज पश्चिम से निकला हैं।"जीभ को दाँतो तले दबाते हुए कोमल बोल उठी. शायद उससे भी रहा ना गया.
"बहू को मैने किसी काम से बाजार भेजा है। चल तू जल्दी से मेरा हाथ बटाने आ जा। .मेरी थोड़ी सहायता कर दे।अब मेरा शरीर पहले जैसा साथ नही देता चल जल्दी हाथ- मुंह धोकर आ जा ।... दादी ने जोर देकर कहा.
" ह्म्म्म्म! इस बुढ़ापे मे ं दिमाग और ...बाकी सब तो बडा चलता है। हर दम मेरी माँ की रस्सी खिंचे रहती है। भुनभुनाते हुए बाथरूम मे घुस गई। उसके मन मे लावा उबल रहा था।
" चल ये पनीर और राजमा को खाने की मेज पर सजा दे और चल जल्दी से सलाद काट ले ।" दादी ने अपने स्वर हुक्म दिया ।
सलाद काटते- काटते उसे सहसा वह दिन याद आ गया जब दादी ने अपने भाई के लिए मम्मी से यही सब बनवाया था और रौबिले आवाज़ मे माँ को पराठे सेंकने का आदेश दे गई थी कि मेरे भैया रुखी रोटी नही खा सकते और तब भरी गर्मी में पसीने से नहाते सब बनाया था माँ ने। तब कोमल ने अपने मामा और मम्मा के साथ हुए अपमान का बदला चुकाने के लिए सबसे नजर बचा कर पनीर-राजमा मे मुट्ठी-मुट्ठी नमक मिला दिया था। फिर जो तमाशा हुआ था घर मे कि बस! पूछो मत। बडी बहू कटघरे मे खड़ी कर दी गई थी।दादी ने किसी की बात तक ना सुनी ।
" अम्मा! लीना की बात तो सुनो." पापा ने कहा था.
"तुम! चुप रहो लोकेश इसने जान बूझकर सब्जियों मे नमक बढाकर मेरे भाई का अपमान किया है."उस दिन इसके भाई को मैने खाने पर ना रोका था तो..। दादी का पारा सातवे आसमान पर था"
" मेरी बात सुनो अम्मा मैं भी हर बार दीदी के यहाँ से सिर्फ़ चाय पीकर और उसकी सासू माँ से जलिल होकर ही घर आता हूँ आपके इस स्वभाव की वजह से। आपको दू:ख ना हो इसलिए कभी बताता नहीं।" पापा की आवाज जरा तेज थी।
बस इतना सुनते ही दादी का चिल्लाना अचानक थम गया था।
........
"अरे! क्या सोचने लगी. जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ." दादी बोल पडी.
तभी डोर बेल घनघनाई. दरवाज़ा खोलते देखा तो सामने मामाजी! उसके शब्द हलक मे ही अटक गये।
" माँजी ने क्यो बुला भेजा है मुझे और हा दीदी कहा है कुछ गलती.." पसीने से तरबतर डरते-डरते मामा ने पूछा था।
"कुछ नही कोमल के मामा! भूल गये क्या आज रक्षा बंधन हैं., हा! कैसे याद रहे ..."दादी रसोई से बाहर आकर बोली।
इस बार मैने परिपाटी तोड़ने की ठानी है , हर बार बहन ही क्यो जाये राखी लेकर.भाई भी तो आ सकता है ना.
कोमल के मन का लावा धीरे-धीरे ठंडा होने लगा।
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(३). सुश्री सीमा सिंह जी
भूल-सुधार
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“छोड़ हाथ मेरा, मैं नहीं जाऊंगा।” एक झटके से हाथ छुड़ा वह बुज़ुर्ग अपने रिक्शे पर वापस जा बैठा।
युवक फिर आगे बढ़ा और बोला, “बात तो सुनिए मेरी!"
“मुझे कुछ नहीं सुनना। मैं नहीं जाऊंगा, एक बार में बात समझ नहीं आती है क्या?”
दोनों की बहस बढती देख आस पास जमा लोगों में से एक आगे बढ़ कर बोला:
“अरे भैया, क्यों बुजुर्ग आदमी से उलझ रहे हो?”
एक अन्य व्यक्ति ने बात सुलझाने की गरज़ से कहा:
“आप तो पढ़े-लिखे लगते हो! जब मन नहीं है गरीब का जाने का तो क्यों ज़िद कर रहे हो? कोई दूसरा रिक्शा कर लो।"
बुजुर्ग रिक्शे वाले ने भीड़ को संबोधित करते हुए कहा, “अरे! अभी टाइम होने वाला है, अब बच्चियों को स्कूल पहुँचाना है मुझे।”
“ओह अच्छा, अच्छा! स्कूल का रिक्शा चलाता है ये, तभी नहीं जा रहा है।” किसी ने बोला.
“ये मेरे पिता हैं। अभी कुछ दिन पहले ही मानसिक अस्पताल से वापस लाया हूँ इनको।” देर से चुपचाप खड़ा युवक बोल उठा।
"अरे, पागल है ये तो भाइयो, चलो यहाँ सेI” वास्तविकता जानकर भीड़ में से किसी ने कहा।
यह सुनकर बुजुर्ग ज़ोर से चिल्लाया:
“नहीं! पागल तो मैं पहले था, जो अपनी नाबालिग़ बेटी की पढ़ाई छुड़वा कर उसका ब्याह दिया था। उन जालिमों ने मार डाला मेरी बच्ची को!” यह कहकर वह सुबकने लगा।
“चलो, बाबा, चलो घर चलो।” बेटे ने बाप को मनाने का प्रयास करते हुए कहा।
“जब तक सभी बच्चिओं को स्कूल नहीं पहुंचा देता, मैं कहीं नहीं जाऊँगा।"
एक दृढ़ निश्चय भरे स्वर में उत्तर देकर वह वापस अपने रिक्शे पर जा बैठा।
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(४). श्री समर कबीर जी
"अहसास"
ठाकुर विरेन्द्र प्रताप सिंह दादा बन गए थे। घर में ख़ुशी का माहौल था, इस ख़ुशी के अवसर को किन्नरों की टोली के नाच गाने ने चार चाँद लगा दिए थे। सब लोग उनके नाच गाने में लीन थे, ठाकुर साहिब भी एक सोफ़े पर बैठे नाच गाने का आनंद लेते हुए उन्हें देख रहे थे। अचानक उनकी नज़र एक किन्नर पर पड़ी तो उसका चेहरा उन्हें कुछ जाना पहचाना सा लगा, वे उसे ग़ौर से देखने लगे। जिस किन्नर को वे देख रहे थे उसने भी उन्हें देख लिया था और वह उनकी नज़रों से बचने का प्रयत्न कर रहा था । अंतत: ठाकुर साहिब ने उसे पहचान ही लिया। वह किन्नर उनका एक पुराना मित्र राकेश थाI पहले तो ठाकुर साहिब किंकर्तव्यविमूढ़ से उसकी तरफ देखते रहे, फिर सहसा उन्होंने आव देखा न ताव और उस किन्नर का हाथ पकड़कर खींचते हुए पास के कमरे में ले गये। सब लोग इस अप्रत्याशित हरकत पर आवाक थे, नाच गाना बंद हो गया था ।
"तुम राकेश ही हो न?" रौबीले स्वर में ठाकुर साहिब ने पूछा।
"हाँ वीरेंद्र, मैं राकेश ही हूँ, तुम्हारा दोस्तI"
"मगर तुम्हारा ये रूप?"
राकेश ने एक ठंडी आह भरते हुए बोलना शुरू किया:
"तुम्हें याद है आज से दस साल पहले गाँव की विधवा पुजारिन की बेटी का बलात्कार हुआ था?"
"हाँ याद हैI"
"वह पाप मैंने ही किया थाI"
"हे भगवानI" अविश्वास और आश्चर्ययुक्त स्वर में ठाकुर साहिब बोल उठे।
"मेरे इस कृत्य के कारण उसने आत्महत्या कर ली थी। उसे फाँसी के फंदे पर झूलते देख मेरा पाप मुझे कचोटने लगाI मैं गाँव से से ग़ायब हो गया और दूर एक शहर में जाकर मेहनत मज़दूरी करने लगाI"
"तो फिर यह किन्नर का रूप ...... ?"
"दो साल पहले ही मैंने अपनी घिनौनी मर्दानगी का गला घोंट कर ज़मीर का बोझ हल्का करने के लिए यह रूप अख़्तियार किया है?"
"मगर तुम तो ख़ुद को जो पहले ही सज़ा दे चुके थे, फिर इतना कड़ा फैसला क्यों?"
आखों में आँसू भर रुंधे हुए गले से राकेश ने उत्तर दिया: "
क्योंकि दो साल पहले ही मुझे पता लगा कि पुजारिन की वह बदकिस्मत बेटी, मेरे बेटे को राखी बाँधती थीI
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(५). सुश्री प्रतिभा पाण्डेय जी
‘गोकुल डेयरी’
“भैया i दयानंद के लोग आज से प्रायश्चित सप्ताह मना रहे हैं I उपवास रखेंगे ,अपने नेता जी की समाधि को दूध गंगाजल से धोयेंगे ,पाठ हवन करवाएंगे “I
“ये नाटक किस लिए ?”
“हम जैसे लोगों की पार्टी के साथ दो साल गठबंधन बनाया ना ,उसका प्रायश्चित करेंगे “I
“तीन दिन रुक जा I सदन में इनका अविश्वास मत गिराकर दद्दा जी जब फिर से सरकार बना लेंगे ,तब हम भी करेंगे ये नाटक “I
“हम क्यों ?”
“इन दगाबाजों पर विश्वास किया इस लिए I उपवास करेगे ,पूजन हवन करेंगे”I
“पर भैया ,समाधि की प्रॉब्लम होगी I कोई है नहीं अपने पास “I
“हाँ i वो तो है I चलो पार्टी ऑफिस धुलवा लेंगे दूध गंगाजल से I वहीँ तो हाथ मिलाया था इन दगाबाजों से I दस लीटर दूध का आज ही कह देना एडवांस में गोकुल डेयरी को I”
“आपको पूरा भरोसा है कि दद्दा जी विश्वास मत जीत जायेंगे ?”
“बिलकुल , पिछले दस दिन से इसी में लगा हूँ I रामनारायण के पाँच वोट अपने हैं I पूरा पक्का कर लिया हर तरफ से ,बस देखता जा I कल तो उसे घर भी ले गया था I”
“उसे घर ले गए थे आप ii”
“ हाँ i साथ खाना खाया और फिर घर के मंदिर में ले जाकर भावुक दोस्ती यारी की बातें करीं I पक्का वचन ले लिया है I
“मंदिर में भी ले गए उसे ii आपको पता है ना क्या काम करते थे उसके पुरखे I अम्मा जी को पता पड़ गया तो”?
“तो क्या i अपना काम एक बार बन गया तो अम्मा जी के आगे प्रायश्चित कर लेंगे I मंदिर क्या, पूरा घर धुलवा देंगे दूध सेI गोकुल डेयरी है ना I”
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(६). श्री डॉ श्री विजय शंकर जी
प्रायश्चित - दर्शन
ताऊ जी तीर्थयात्रा कर के आज उत्तराखंड से वापस लौटे थे। आस-पास के काफी लोग मिलने आये थे। ताऊ जी अपनी लम्बी यात्रा के वृतांत्र सुना रहे थे , लोग सुन भी बड़े चाव से रहे थे। ऋषिकेश के बारे में बताते हुए बोले , " ऋषिकेश में लंका विजय के बाद राजा राम ने तप किया था , प्रायश्चित के लिए। इसीलिये इसका इतना महत्व है। "
" राजा राम ने प्रायश्चित के लिए तप किया था , क्यों " , किसी ने जिज्ञासा जताई।
" राजा राम ने रावण का वध तो उसके शत्रुवत व्यवहार के कारण किया था , पर वह एक प्रकांड विद्वान ब्राह्मण था , इसलिए उसके वध के दोष से मुक्ति के लिए प्रायश्चित स्वरुप उन्होंने वहां कठोर तप किया था। पुराने जमाने में राजा लोग किसी भी प्रकार की त्रुटि या चूक हो जाने पर तरह तरह से प्रायश्चित करते थे। "
" पुराने जमाने में , अब के शासक क्यों नहीं करते प्रायश्चित , जबकि ये भी अक्सर ऐसे काम करते हैं कि देश को काफी धन - जन क्षति उठानी पड़ती है। "
थोड़ा मुस्कुराते हुए ताऊ जी बोले , " राजा लोग प्रायश्चित करते थे , आज के शासक तो जनता के सेवक होते हैं , जनता मालिक - स्वामी होती है , सेवक थोड़े प्रायश्चित करते हैं " , थोड़ा रुक कर फिर बोले , " जनता करती है न , मालिक के रूप में , रोज ही करती , सह सह कर , गलत सेवक को चुन कर। "
माहौल अचानक शांत और गम्भीर हो गया। ताऊ जी फिर बोले , " प्रायश्चित सदैव वह करता है जो अपने उत्तरदायित्व को समझता है , प्रश्न बड़े छोटे का नहीं होता है। जो अपने उत्तरदायित्व को नहीं समझता है और अपनी गलतियों का दोषारोपण दूसरों पर करता है वह होशियार नहीं होता है , वरन स्वभावतः गुलाम तुल्य होता है। "
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(७). सुश्री राहिला जी
खाली हाँथ
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अपनी बेग़म को चुपचाप एकटक महल को निहारते देख,बादशाह सलामत ने उनसे बात करने की गरज से पूछा-
"याद है बेग़म!ये खूबसूरत महल हमने आपको किस मौक़े पर दिया था?"
"याद है बादशाह सलामत!अच्छी तरह याद है ।ये उस वक़्त हमारे पड़ोसी राजा की रियासत में था ।जिसपर चढ़ाई करके आपने पूरी रियासत को ही जीत लिया।और फिर ये महल मेरी सालगिरह के मौक़े पर आपने मुझे तोहफे में दिया था ।"
"अरे वाह..,आपको तो आज भी सब कुछ याद है।"
"याद क्यों न होगा ,वो जंग कोई मामूली जंग तो नहीं थी।वो राजा भी बड़ा पराक्रमी और बलशाली राजा था ।बड़ी जबरदस्त जंग हुयी थी।लाखों सैनिक शहीद हुए थे।"
"हाँ वाक़ई बहुत बड़ी तादाद हमारे बहादुर सिपाही शहीद हुए थे। लेकिन मैंने भी ठान लिया था कि उसकी रियासत छीन कर ही दम लूँगा ।फिर आपको ये महल भी तो नज़राने में देना था।"उनकी आवाज में कुछ शोख़ी उतर आई।
"अच्छा, और वो महल याद है तुम्हे,जिसे हमने अपने पहले बेटे की पैदाइश की ख़ुशी में आपको नज़र किया था?"
"हाँ उसे कैसे भूल सकती हूँ ।कितने बेशकीमती जवाहरातों और सोने चाँदी जड़वा के बनवाया था उसे आपने।वो तो मेरे पसंदीदा महलों में से एक था।"
"पसंद क्यों ना आता ,आखिर उसे बनवाने के लिए हमने दोनों हांथो से खजाना लुटाया था ।"
"इसलिए तो बना भी बेजोड़ था ।वो दिन भी खूब थे!लेकिन अफ़सोस ,ज्यादा वक़्त कहीं ठहर के न रह पाये हम। सारी जिंदगी बस उथलपुथल मची रही।साजिशों और जंगों ने औलाद को भी ना बख़्शा।"कहते- कहते बेग़म की आँखें भर आयीं।
"आप रो रहीं हैं?"
"हाँ बादशाह सलामत मैं रो रही हूँ।क्योंकि अब ये नहीं समझ नहीं पा रही हूँ कि इतनी दौलत,इतना ख़ून,किसके लिए और क्यों बहा दिया हमने,जबकि बाक़ी रह जाने वाला कुछ न था।सिवा इन खण्डरों के और चंद यादों के। "
"क्या आप भी ऐसा सोचती हैं?"बादशाह का ये जुमला ,ऐसा लगा जैसे किसी गहरे कुँए से निकला कर आ रहा हो।
"तो क्या आप भी....?"वो इससे आगे कुछ और भी कहतीं,लेकिन बादशाह की ज़मीन में गड़ी नज़र देख,कुछ और कहने की गुंजाईश ही नहीं बची थी। बेग़म ने हमदर्दी से बादशाह का हाथ अपने में लिया और दोनों कुछ दूरी पर बनी अपनी कब्र में समां गए।
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(८). श्री विनय कुमार सिंह जी
सुर्ख लाल रंग
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जल्दी जल्दी हाथ चला रहे थे रज्जब अंसारी, समय कम था और काम बहुत जरुरी| अगर आज नहीं किया तो शायद फिर कभी नहीं कर पाएंगे और ये बात उनके दिल पर भार बनकर रह जाएगी| आखिर शादी में दुल्हन को पहनाये जानी वाली साड़ी तो पूरे इलाके में उन्हीं के यहाँ बुनी जाती थी और अगले हफ्ते तो उनके जिगरी दोस्त लक्ष्मण की बिटिया की शादी थी|
साड़ी बुनते हुए सोच में डूब गए रज्जब, कभी कितना खुशहाल हुआ करता था उनका गाँव| अधिकाँश हिंदुओं के बीच में तीन चार घर उनके भी थे और अगर दिवाली में उनके घर दीप जलते थे, तो ईद में बाकी लोग भी आते थे सिवई खाने| कभी फ़र्क़ ही महसूस नहीं हुआ था उनको, लेकिन जबसे नयी पीढ़ी शहर की तरफ चल दी थी, कुछ बदलाव महसूस होने लगा था| लेकिन वो उसी तरह हर घर में जाते और लोगों से दिल खोलकर मिलते| जबसे लक्ष्मण ने बेटी की शादी तंय कर दी और उसे बताया कि दुल्हन की साड़ी उसी को बनाना है तो रज्जब की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा| इधर रज्जब ने साड़ी बुनने की तैयारी शुरू की, उधर शहर में भड़क उठे दंगों की वजह से रज्जब के बच्चों और बाकी पट्टीदारों ने गांव छोड़कर कहीं और बसने की तैयारियाँ शुरू कर दी| गाँव में भी माहौल बदल गया था और सबको दूरियाँ महसूस होने लगी थी लेकिन रज्जब को तो जैसे कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता था|
कल सारे लोगों ने जाने की तैयारी कर ली थी और जब रज्जब को भी कहा गया चलने के लिए तो वो बुरी तरह उखड़ गए| उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया कि किसी भी हालात में वो गाँव छोड़कर नहीं जायेंगे|
"अगले हफ्ते लक्ष्मण की बेटी की शादी है और मैंने उसे शुरू से ही वादा किया था कि उसकी बेटी की शादी में दुल्हन की साड़ी मैं ही बनाऊंगा| और ऐसे मौके पर तुम लोग गाँव छोड़कर जाने की बात कर रहे हो, कुछ तो सोचो कि क्या मुह दिखाओगे उपरवाले को| मैं तो किसी भी हाल में नहीं जाऊंगा यहाँ से और बिटिया को अपनी बनाई साड़ी में बिदा होते देखूंगा"| जब वो किसी भी हालात में जाने को तैयार नहीं हुए तो शाम को सबने गाँव छोड़ दिया और जाते जाते कह गए कि जितना जल्दी हो वो भी यहाँ से चले जाएँ| सब तो चले गए, लेकिन रज्जब ये सोच सोच कर परेशान थे कि क्या जवाब देंगे लक्ष्मण को, जब वो अकेले उसके घर जायेंगे साड़ी लेकर|
रात काफी हो गयी थी और साड़ी भी लगभग तैयार हो गयी थी| उनकी दिली तमन्ना थी कि साड़ी का रंग बिलकुल चटक लाल होना चाहिए लेकिन साड़ी के रंग को देखकर वो थोड़ा निराश हो गए| उसका रंग लाल तो था लेकिन वैसा नहीं जैसा वो चाह रहे थे| रज्जब उठे और एक लोटा पानी लेकर पिया और वापस आकर साड़ी को रंगने के बारे में सोचने लगे| वो अपनों के गाँव छोड़ के जाने का प्रायश्चित आज तक की सबसे बेहतरीन सुर्ख लाल साड़ी बना कर करना चाहते थे|
इतने में पीछे से एक लाठी का भरपूर वार उनके सर पर पड़ा| थोड़ी देर में ही उनका शरीर करघे के पास पड़ा हुआ था और उससे बहने वाले लहू से साड़ी का रंग सुर्ख लाल हो रहा था|
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(९). श्री सुनील वर्मा जी
भूख की बचत
मंच पर वह अपनी लय में बोले जा रहा था "खाधान्न के अनावश्यक संचय से देश में गरीबी और भूखमरी बढ़ रही है। जमाखोरी की वजह से एक तरफ न जाने कितने ही टन अनाज गोदामों में पड़ा सड़ जाता है, दूसरी तरफ कुछ लोगों को भोजन तक नसीब नही होता।"
जबरदस्त तालियों से उसके विचारों की सराहना हो रही थी।
"वाह भाई। आज तो तूने झंडे गाढ दिये।" कहकर मंच से उतरते ही उसके साथी ने उसे गले लगा लिया। उसके विचारों से हर कोई प्रभावित था। सबसे बधाईयाँ लेने के बाद वह उस सभागार में आयोजित भोजन की स्टॉल की तरफ चल पड़ा।
अपनी प्लेट में न समाने की हद तक भोजन सामग्री भरकर मुड़ा ही था कि सामने डस्टबिन की तरफ नजर गयी। जूठी प्लेटों में रखा अथाह भोजन वहाँँ कचरे में परिवर्तित होकर पड़ा था। उसे अक्सर खाना खाकर उठते वक्त छोड़ी जाने वाली अपनी आधी भरी थाली याद आयी। कुछ देर पहले कहे उसके ही शब्दों ने उसके कानों में उतरकर कहा "अनाज सिर्फ गोदामों में ही तो नही सड़ता।"
अन्न के प्रति किए उसके अपराध पर दिल ने उसे दोषी ठहराया। वह वापस मुड़ा और वहाँ रखी खाली प्लेट में अपनी प्लेट से अनावश्यक खाना निकालने लगा। एक कटोरी दाल और दो चपाती के साथ अब उसकी प्लेट में संतोष रखा था।
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(१०). डॉ टी आर सुकुल जी
भृत्य का बेटा
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निष्ठा और ईमानदारी से प्रभावित होकर अफसर ने कार्यालय के भृत्य के रिटायर होने के बाद उसके बेरोजगार लड़के को वन विभाग के स्थानीय चेक पोस्ट पर बैरियर बंद करने और खोलने के काम पर लगवा दिया जहाॅं पर दो फारेस्ट गार्डों की चेकिंग ड्युटी थी। आठ घंटे की ड्युटी के स्थान पर बारह घंटे रुकना पड़ता। डयुटी के दौरान फारेस्टगार्ड ही वाहनों की चेकिंग करते और उन्हें अनधिकृत माल को बैरियर से बिना कार्यवाही के निकाल देने के बदले में प्रति ट्रक तीन सौ से चार सौ रुपये तक मिल जाते जिसमें से रेंजर का हिस्सा अलग करने के बाद लड़के को एक सौ रुपये प्रति दिन देकर शेष राशि को दोनों बराबर बराबर बाॅंट लेते ।
एक दिन कुछ देर के लिये वह लड़का अकेला ही ड्युटी कर रहा था कि एक बूढ़ी भैसों से भरा ट्रक आया , उसने जांच के लिये बैरियर लगाया, ड्राइवर ने फौरन चारसौ रुपये उसे दिखाये पर उसने ट्रक में भरे माल से संबंधित पूरे कागजाद न पाये जाने के कारण आगामी कार्यवाही के लिये पुलिस को सौंप दिया, इतने में ड्युटी वाले दोनों फारेस्टगार्ड आ गये । वे , उसको बहुत डाॅंटते हुए बोले -
‘‘अबे, कैसी मूर्खता करता है! अब पुलिस वाले उससे एक हजार रुपये लेकर अंत में छोड़ ही देंगे ना ! तुम्हें क्या मिलेगा? अपना तो चार सौ रुपया प्रति ट्रक फिक्स है, ले लेते , इसी से तो तुम्हें वेतन मिलता है?''
‘‘ लेकिन सर! उसमें तो बूढ़ी भैसें थीं जो वे कानपुर शहर में उन्हें कटने के लिये, बेचने ले जा रहे थे''
‘‘ तो! तुम्हारा क्या चला जाता?? पूरे देश में यही हो रहा है, गायें हों या भैसें जब तक दूध देती हैं तब तक सब ठीक, बाद में कसाई को ही बेचा जाता है, क्या यह तुम्हें मालूम नहीं है?''
यह सुनकर वह तत्काल दुखी मन से अपने घर आकर एक ओर उदास बैठ गया। उदास बैठा देख उसके पिता ने पूछा-
‘‘क्यों बेटा! क्या बात है, आज तो जल्दी आ गये, तबियत खराब है क्या?''
‘‘नहीं , अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिये घर वापस आ गया हॅूं और सोचता हूँ कि पिछले सात आठ दिन में जो कुछ इस काम से कमाया है उससे भिखारियों को भोजन करा दॅूं और किसी सात्विक कार्य की तलाश में जुट जाऊं।''
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(११). श्री तस्दीक अहमद खान जी
तौबा
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आज अमर साहिब के रिटायरमेंट का दिन है ,ऑफिस के लोगों के अलावा कई उद्योग पतियों ,नेताओं ,अधिकारियों और मीडिया वालों को आमंत्रित किया गया है । उन्होंने यूँ तो अपनी पोस्ट का फायदा उठाते हुए रिश्वत के ज़रिये बहुत रुपया कमाया ,सारी ज़िंदगी ऐश से गुज़ारी ,करोड़ों का बैंक बैलेंस ,कई बंगले ,प्लॉट्स के मालिक बन गए ,मगर सब बेकार --ऊपर वाले ने उन्हें औलाद से महरूम कर दिया , सिर्फ बीवी ही सुख दुःख की साथी है। बुढ़ापे का सहारा और घर का चराग किस्मत में नहीं ।
जश्न शुरू हुआ ,कई लोगों ने अपने विचार रखे और सबके बाद अमर साहिब अपने ख़याल का इज़हार कर ही रहे थे कि अचानक मीडिया की तरफ से आवाज़ आई ---------अमर साहिब आपके पास बहुत प्रॉपर्टी और दौलत है लेकिन कोई आपका वारिस नहीं है , क्या आपने सोचा है इनको कौन संभालेगा ।
अमर साहिब डबडबाई आँखों से मुस्कराते हुए बोले ------मैंने लोगों का दिल दुखाकर ,लालच में आकर बहुत दौलत कमाई मगर भगवान् ने ऐसी सजा दी है कि मेरे कोई औलाद नहीं । इसलिए वसीयत के मुताबिक बाद मरने के सारी प्रॉपर्टी और दौलत वृद्ध आश्रम की हो जाएगी ,जहाँ मेरे जैसे बुज़ुर्ग जिनकी औलाद नहीं है या जिनको औलाद ने घर से निकाल दिया है वह सुकून से अपनी ज़िंदगी के आखरी दिन बिता सकें ।
तालियों की गड़गड़ाहट में अमर साहिब सोचने लगे कि शायद प्रायश्चित करने का यही सही वक़्त था ------
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(१२). सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी
वात्सल्य के वश में
दूहा से दहेज़ रहित ब्याह की मुंह दिखाई में मिले दो बच्चे, श्वेता पत्नी बनने से पूर्व ही माँ बन गयी। बच्चे मम्मी कहते तो लगता मानो किसी ने कान में पिघला शीशा उंडेल दिया और छुते तो लगता नाग लिपट रहे हैं वह चकनाचूर हुए सपनों की खीज बच्चों पर उतारती।सर्द रात में अंश को दरवाजे की झिरी में से झांकते देख गुस्से से उबलती श्वेता ने पूछ लिया:
"क्या देख रहे हो ?"
"आपको "
" क्यों "
" मुझे लगा आप कही चली तो नहीं गयी। क्योकि आपकी चूड़ी की आवाज नहीं आ रही थी।"
"मैं कहाँ जाउंगी तुम लोगो को छोड़कर ?"
"जैसे आपकी मम्मी चली गयी आपको छोड़कर और आप रोती रहती हैं फिर भी वो नहीं आती।"
उसकी वात्सल्य से भरी बातें सुन, आसुंओं के सागर में डूबती श्वेता अंश को अपने बाहों में लेते हुये बड़बड़ा उठी:
" तुम मेरे उजड़े ममत्व में ,अपने ममत्व के बह जाने के भय से पीड़ित हो रहे थे।और क्रोध में अंधी मैं तुम्हारा वात्सल्य नहीं देख पायी।अब मेरा प्रायश्चित यही होगा की इस घर में कोई संतान मेरी कोख से जन्म नही लेगी। "
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(१३). श्री कालीपद प्रसाद मंडल जी
प्रायश्चित
हीरानंद की बेटी रमला की शादी थी | गाँव के सभी लोग शादी में आमंत्रित थे |उत्सुकता से सब लोग बाराती का इंतज़ार कर रहे थे |थोड़ी देर में बारात आ पहुँची | दुल्हा घोड़ी पर बैठा था और बाराती बाजे के साथ साथ थिरक रहे थे |द्वार पर स्वागत के लिए लड़की वाले आरती की थाली लेकर खड़े थे |दूल्हा जब द्वार पर पहुँचा तो गाँव के लोग दुल्हा के साथ खड़े एक चेहरा को देख कर भौंचक्का रह गए |वह व्यक्ति था शिवानन्द |केवल यही गाँव नहीं,आसपास के गाँव के लोग भी जानते थे कि हीरानंद और शिवानन्द के परिवारों में कट्टर दुश्मनी का रिश्ता है | कभी ये दोनों जिगरी दोस्त हुआ करते थे |अपनी दोस्ती को सदा कायम रखने के लिए दोनों ने मिलकर रमला की शादी शिवानन्द का बड़ा बेटा सुरेश से कर दिया था | रमला उस समय पाँच साल की थी और सुरेश सात साल का | विवाह के बारे में उन्हें कुछ भी पता नहीं था | बड़े हो कर सुरेश जब पढने शहर गया तो उसने कालेज में ही अपनी एक सहपाठिनी से प्रेम विवाह कर लिया और वहीँ शहर में ही रह गया | उस समय से दोनों परिवारों में दुश्मनी हो गई थी |
आज शिवानन्द को बाराती के साथ देख कर गाँव वाले उसे घेर लिया और पूछा, “”आप यहाँ क्यों आये हैं?” गांववालों की आक्रोश देखकर हीरानंद आगे आया और शिवानन्द को गले लगा लिया फिर गाँव वालों को सम्ब्प्धित करके कहा, “भाइयों शिवानन्द आज मेरे साथ यहाँ अपने कुकर्म का प्रायश्चित करने आये है | हमने बिना समझे बाल विवाह जैसे कुरीति को प्रश्रय दिया था और दोनों बच्चो की शादी कर दी थी | वो हम दोनों की गलती थी | शिवानन्द भी कभी अपने आप को क्षमा नहीं कर पाया और मुझसे सलाह करके ही उसने यह शादी की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर उठाया | यह हम दोनों के कुकर्म का प्रायश्चित हैं|”
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(१४). श्री सुधीर द्विवेदी जी
आधे की हिस्सेदार
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भिनसारे मैकू खेत को निकला तो क्या देखता है कि राधे की पत्नी माधवी लम्बे-लम्बे डग भरती, चोरी-छिपे मेला मैदान की तरफ़ चली जा रही है। कुछ दूरी तक तो उसनें पीछा किया पर अचानक न जानें वह कहीं गायब हो गई। मैकू तो था ही अफ़वाह फैलाने में माहिर सो उसने वही किया। भूसे में पड़ी चिंगारी की तरह बात पूरे कस्बे में फ़ैल गई। बात राधे तक पहुंची तो वह आग-बबूला हो उठा। माधवी के घर लौटते ही वह उस पर फ़ट पड़ा:
"क्यों री तू क्या समझी मुझे कुछ पता न चलेगा? बता! मुंह अँधेरे उनके घर क्या करने जाती है?"
"'रिश्तेदार है वे हमारे!" उसने पलटते हुए उचाट ज़वाब दिया।
"उनसे अब हमारा कोई लेना-देना नहीं.." राधे अब भी सुलग रहा था। उसे यूँ फुँकारते हुए देख माधवी पहले तो सहमी पर फिर वह उबल ही पड़ी।
"जँवाई जी को तो दहेज का झूठा इल्जाम लगा जेल में ठूँसवा दिया। फ़िर बहन के नाम पर दारोगा से मिलीभगत करके उन लोगों की सारी ज़मीन आपनें खुद के नाम करवा ली।"
"तो इसमें ग़लत क्या है? हमारी बहन उसकी पत्नी है । और पत्नी का आधे का हक़ होता है।" सकपका कर राधे ने फौरन तर्क रखा।
"बहन को समझाने के बजाय आपने उसे भड़का दिया। घर-परिवार में थोड़ी-बहुत खटपट तो चलती रहती है। उन लोगों के साथ-साथ, आपने अपनी बहन की भी जिन्दगी नरक बना डाली ।" माधवी आंगन में पड़ी चारपाई पर पड़े हुए बिस्तर समेटते हुए बड़बड़ाती जा रही थी। एकाएक राधे नें आगे बढ़ कर उसकी बाँह झँझोड़ दी।
"देख तुझे इससे कोई लेना-देना नही...अपने किये पाप-पुण्य का मैं ख़ुद ठेकेदार हूँ।"
इसी बीच पूजाघर से सिसकियाँ सुनाई देनी शुरू हो गई।
"क्यों ? मैं भी तो तुम्हारी पत्नी हूँ। तो हुई न तुम्हारे कुकर्मो की भी आधे की हिस्सेदार?"
आवेश में धधकते हुए माधवी ने उसका हाथ परे झटका फिर तेज़ी से पूजाघर में पहुँच भगवान की प्रतिमा के समक्ष बिलखती हुई अपनी ननद को अपनी छाती से चिपटा लिया।
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(१५). सुश्री राजेश कुमारी जी)
अहम् (प्रायश्चित)
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गुरु जी को नमन करके मोहन जाकर पीछे की पंक्ति में बैठ गया उसने चारों और नजर दौड़ाई दूर दराज से भी जाने माने लोग आये हुए थे | सभागार खचाखच भरा हुआ था | निमंत्रण पत्र पर फिर उसकी नजर टिक गई नाट्यशाला का लोकार्पण| देखते ही देखते वो अतीत में डूब गया|
बिलकुल ऐसा ही उसकी जन्दगी का वो ख़ास दिन दर्शकों से भरा हॉल खुशी से पेट में गुदगुदाती वो तितलियाँ मानो बरसों की तपस्या का परिणाम मिलने वाला हो | हर बार की तरह आयोजन में वो अपने गुरु बृज महाराज को न्यौता देना नहीं भूला सबसे अगली पंक्ति में गुरु के लिए सीट हमेशा सुनिश्चित रहती थी| हमेशा की तरह मंच पर चढने से पहले गुरु को प्रणाम करके उसने अपना जादुई नृत्य पेश किया लोग कहते थे उसके पैरों में बिजली है अपलक देखते देखते लोगों को तब होश आया जब नृत्य खत्म हो गया और उसने सबको अभिवादन किया| हॉल तालियों से गूँज उठा| उसने ने गुरु बृज महाराज की तरफ एक शाबाशी के लिए ललचाये बच्चे की तरह देखा किन्तु गुरु की हमेशा की भांति एक हलकी सी मूक मुस्कान देख कर अन्दर तक टूट गया आयोजन के अंत में सम्मानित होने के लिए ये कहकर मना कर दिया कि जब तक वो अपने गुरु की नजरों में कुंदन नहीं बन जाएगा तब तक कोई सम्मान या ईनाम ग्रहण नहीं करेगा | उसके बाद वो बुझा बुझा-रहने लगा आयोजनों में भी जाना कम कर दिया |
होनी को भी कुछ और मंजूर था एक दुर्घटना में उसकी की एक टांग जाती रही जिससे उसका भगवान के ऊपर से भी विश्वास उठ गया |
गुरु जी उसका हाल चाल बराबर पूछते रहते किन्तु उसके नृत्य के विषय में कोई बात नहीं करते | बहुत देर तक चुपचाप बैठकर वापिस चले जाते | उसको अब कृत्रिम टांग का सहारा भी मिल गया था फिर पत्नी के हिम्मत बढ़ाने पर फिर से नृत्य की साधना में लीन हो गया |
फिर आई वो सुबह जब उसके गुरु बृज महाराज उसे एक निमंत्रण पत्र थमा गए |
“अब आपके सामने मोहन नटराज वन्दना नृत्य पेश करेंगे” मंच से ये शब्द कानों में पड़ते ही तथा पीछे से काँधे पर स्पर्श महसूस होते ही मोहन को जोर से झटका लगा मानों वो नींद से जाग गया हो| गुरु जी की आँखों के इशारे की सम्मति लेकर मंच को नमन कर मोहन ने कृत्रिम टांग से जो नृत्य पेश किया सब ने दांतों तले ऊँगली दबा ली| नृत्य के बाद जब मोहन मंच से नीचे जाने लागा तो गुरु जी ने उसे रोक लिया उसको बांहों में भर लिया फिर दर्शकों से मुखातिब होकर बोले-
“मोहन कुंदन तो बहुत पहले बन चुका था वो मेरा अहम् ही था जो कुछ भी कहने से रोकता रहा किन्तु आज मैं सच कहूँगा की मोहन जैसा नर्तक और शिष्य मेरी जिन्दगी में न आया है न कोई आएगा ये मुझसे बेहतर नृत्य करता है इंसान भी मुझसे बेहतर है मेरा आशीर्वाद भी इसके लिए छोटा होगा”|
सुनते सुनते मोहन की आँखों से अविरल आँसू बह निकले |
फिर उदघाटन हेतु शिलापट का अनावरण होने का वक़्त आया |
मुख्यमंत्री ने जैसे ही रीबन काटकर पर्दा हटाया उस पर लिखा था ---'मोहन नाट्यशाला'
जहाँ एक और नाट्य शाला शिला पट का अनावरण हो रहा था वहीँ गुरु बृज महाराज के प्रायश्चित का भी अनावरण हो रहा था |
तभी मोहन ने कंही से पेन लेकर नाम के आगे बृज लिख दिया और बोला “अब नाम पूरा हुआ बृज मोहन नाट्यशाला” |
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(१६). श्री राजेन्द्र गौड़ जी
प्रायश्चित
एक जर्जर हवेली के प्रांगण में एक वृद्ध व्यक्ति और एक नौजवान बैठे एक दुसरे की ओर ही देख रहे थे ।
"कमल मुझे बहुत खुशी हैं कि बिना मेरी सहायता के इस स्तर तक तुम तरक्की कर पाये ; और पुरे जिले में तुम्हारे काम की सब सराहना करते हैं ।" वृद्ध ने सामने बैठे नौजवान को गर्व की दृष्टि से देखते हुए कहा
"बाबा यह सब तुम्हारे ही सत्कर्म की छाया में ही सम्भव था।" कमल बोल उठा
"नही बेटा सत्कर्म तो उस दलित कन्या का ही मानता हू , जो मरकर मुझे बदल गई । वरना इस हवेली के निवासी कब किसी के काम आये; बस वो पवित्र आत्मा के बलिदान ने मुझे ऐसा बदला की अब जो बाकी हैं वो भी अपने पुरखों के कर्मों के प्रायश्चित में लग जाये यही इच्छा हैं ।" कह कर उस वृद्ध के मुख मंडल पर एक आभा सी छा गयी
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(१७). श्री वीरेंद्र वीर मेहता जी
मेहमानवाजी
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आपका हैरानी भी गैरवाजिब नहीं है जनाब, मगर मौजूदा दौर के खौफ ने सही लोगो की पहचान को भी शक के दायरे में रख दिया है।" खालिद ने उसकी हैरानी का जवाब देते हुए कहा।
खूबसूरत पहाड़ियों से घिरे उस छोटे से गांव में जहां की मेहमानवाजी एक मिसाल मानी जाती थी, आज वहां एक रात बिताने की गुजारिश के मद्देनजर कई घरों से मिलती बेरुखी से उसे काफी हैरान हुयी थी।
"तो क्या तुम्हे खौफ नहीं लगता अजनबी या मुझ जैसे फौजी ड्रेस पहने लोगों से।" उसने सवालिया नजरो से खालिद की ओर देखा।
"जनाब, खौफ भी एक हद तक ही डराता है आदमी को और फिर मेरे पास है ही क्या खो देने के लिए जो मुझे किसी से खौफ लगे।" खालिद धीरे से मुस्कराया। "ये खुदा का दिया एक आशियाना और वो बिन माँ की बच्ची, जिस के लिए मैं जी रहा हूँ।" बाहर की तरफ इशारा करते हुए उसने अपनी बात पूरी की।
खंडहर सी बनी उस झोपड़ीनुमा कॉटेज के बाहर लकडियो के ढेर पर खड़ी, उन दोनों से बेखबर वो मासूम बच्ची दूर पहाड़ियों की ओर एक टक नजर गड़ाये जाने क्या देख रही थी।
"शायद बच्ची अपने आप में खोयी हुई है।" उसने, बच्ची को पुकारने पर कोई जवाब न मिलता देख अपना विचार जाहिर किया।
"नहीं ! बच्ची सुनने और बोलने दोनों से लाचार है जनाब।"
खालिद का जवाब इतना तीखा था कि अगली बात कहने में उसे कुछ वक़्त लगा। "जन्म से ही या किसी हादसे में हुआ ये सब उसके साथ।"
"हाँ हादसा ही हुआ था। एक बदनसीब रात थी वो जब 'उसने' इसके पूरे परिवार को मार दिया..." खालिद की आवाज में दर्द झलकने लगा था। ".... उस रात मैं, सिर्फ इसे ही बचा सका लेकिन हादसे की दहशत ने इसे अपनी जद में ले ही लिया। बस तब से यही है मेरी सब कुछ, जिसके लिए मैंने अपनी उम्र का हर लम्हा लिख दिया है।"
"पर था कौन वो जालिम ?"
"मेरा ही एक दोस्त था।" अनायास ही खालिद की नजरों में उसके अहसास झलकने लगे। "जिसके साथ उस रात मैं भी इस घर का मेहमान बना था।"
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(१८). सुश्री जानकी वाही जी
आज की पारो
" दीदी ! बड़ी गज़ब की खबर है , रूद्र सिंह की बेटी पार्वती की याद है आपको ?" लीला ने जेठानी से कहा।
" हाँ, भला उसे कौन भूल सकता है। वही पारो न ? जो अपने देवदास श्याम के लिए घर से भाग गई थी। उस कोहरे भरी ठण्ड में सुबह देर तक बस स्टेशन पर इंतज़ार करती रही, पर श्याम नहीं आया,पारो को माँ शॉल में छिपा घर ले आई थी? इस नज़ारे को कई चश्मदीदों ने देखा और पलभर में ये खबर शहर में फ़ैल गई थी।"लीला की आवाज़ में चटखारापन झलकने लगा।
जेठानी की बात सुन लीला ने सोचा- " छि! ...लोगों को कितना मज़ा आता है दूसरे की कमियां निकालने में।
"दीदी ! उसी की बात कर रही हूँ।"
" अरे ! फिर भाग गई किसी दूसरे देवदास के साथ ? एक बार कदम भटक जाएँ तो गर्त में गिरते देर नहीं लगती।" अपने भद्दे मज़ाक पर खी ...खी करती जेठानी को लीला ने,वितृष्णा से निहारा।
"दीदी ! शहर की असफ़ल प्रेम कहानी की पारो के बारे में सुनोगी तो अचरज करोगी ?"
" अरी ! अब क्या कहानी? पारो की चुनरी में दाग लग गया है, अब उसका जीवन दुःख दर्द और तानों में गुजरेगा। "
" दीदी! वह तो कच्ची उम्र का आकर्षण था। जब सारा समाज उसे लांछित कर रहा था तब अपनी निःसहायता को परे झटक कर अपने माता-पिता की सहायता से जीवन डगर पर नया पग धरा था।आज की सफलता के बाद अब उसे सच्चे देवदासों की कमी नहीं होगी।"
" अच्छा ! वो भला कैसे ?"
" दीदी ! पारो का चयन सिविल सेवा में हो गया है।अब वह चुनरी नहीं आई पी एस की यूनिफॉर्म पहनेगी। जिस पर दाग नहीं मैडल लगेंगे।"
" सच कह रही हो ?" चकित जेठानी का ये रूप लीला को गुदगुदा गया
" हाँ दीदी ! आज की पारो ने ये बता दिया कि प्रेम का मरण इति नहीं होता बल्कि उससे मिली पीड़ा से जीवन का शुभारम्भ होता है। "
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(१९). सुश्री बबिता चौबे शक्ति जी
प्रायश्चित
" अरे देखो तो जरा कितना बेशरम है इतना बडा नेता बना फिरता था और इस उम्र में ये ! "
" जरा तो लाज शर्म करता अरे पत्नि को मरे दो ही साल हुए हैं और बच्चे भी जवान है फिर भी.. ये ! "
" और नही तो क्या पोता पोती को खिलाने की उम्र और इतनी नादानी! "
" कम से कम लडकी की उम्र का भी ध्यान नही रखा ! "
" अरे ये तो गुनाह नही पाप है पाप प्रायश्चित करना पडेगा प्रायश्चित देखना! "
और एक दिन सच में नेताजी ने प्रायश्चित कर लिया .. कन्या से विधिवत् विवाह करके..... अब सब कुछ ठीक था !
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पिछले वर्षों से उसने अपने लिखे व् कहे भारी भरकम शब्दों जैसे समाजिक तब्दीली, इंकलाब, पता नहीं और कितने शब्दों से मुझे लेस कर दिया था।
और मैं भी अपनी सोच में निखार महसूस करने लगा था।
धीरे धीरे मुझे भी समाज में घटने वाली घटनाओं के बारे में समझ बनने लगी ।
साथ ही उसकी कही बातों पर भी मुझे विश्वास पक्का होने लगा ।
मगर जब से हमने उसके साथ काम करना शुरू किया।
तब से हमारे काम में तो कोई तब्दीली नहीं आई, मगर उसकी मंजिल का रास्ता आसान हुआ जा रहा था, कुछ वर्षों में ही अब उस का बड़ा नाम हो गया ।
कभी वो हमें अपने साथ लेकऱ जाता, मगर अब हम में से कोई भी उसके साथ नहीं जाता, उसे ले कर जाने वाले कई और बड़े लोग आ जाते हैं और हमारे किये जाने वाले काम का प्रंबंध भी वो ही कर देते।
“मगर उसकी शौरत के ऊसर रहें महल में कितने ही मेरे जैसे नींव की ईट बन चुके हैं , मगर इट्टों को कौन जानता है ? “
"मगर महल भी कुछ दिन" फिर मैने अपने कहे शब्दों को आप ही काटते हुए कहा।
आज शहर में जिस फंक्सन के लिए उस को संदेशा आया और उसने कुबूल कर लिया उस लिए उसने हमें भी बुलाया भेज दिया।
ये ये सब देख बहुत ही बहुत हैरान हो रहा था ।
अब हमें लगा कि उसके कहे भारी भरकम शब्द कहीं गुम हो गये हैं,पर मुझे लगा अब, मैं कुछ ज्यादा ही हैरानगी महसूस कर रहा हूँ।
वहाँ बड़े बड़े लोग इतने बड़े हाल में बैठे थे , मैं और बाकी साथी पानी पिलाने व् खाना बनाने में मदद कर रहे थे, ।
ये देख कर मैनें अपने आप से कहा कि में हम कैसे इस बुत को पूजते रहे , बस शब्द थे ,जिसमें कभी कोई हरकत नजर नही आई, दिल तो करे कुछ कह कर ही जाऊंगा, मगर .मैं पानी पिलाने की सेवा निभानी छोड़ बाहर खुले आसमान की तरफ देख मेरे कदम हाल की तरफ न जाते हुए बाहर की तरफ बढ़ने लगे ।
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ओबीओ लघुकथा गोष्ठी-16 के सफल आयोजन एवं त्वरित संकलन की हार्दिक बधाई!
आदरणीय योगराज सर आपने मेरी लघुकथा 'कन्फ़ेशन' के सन्दर्भ में अल्फ्रेड हिचकॉक की फ़िल्म 'आई कन्फेस' से साम्य की बात की थी। उसके बाद से अभी तक वह फ़िल्म तो मैंने नहीं देखी किन्तु उसका प्लॉट इंटरनेट (विकिपीडिया और आईएमडीबी) पर अवश्य पढ़ा है। उस फ़िल्म और मेरी कहानी में मुझे बस इतना ही साम्य नज़र आया कि दोनों में पादरी और हत्या की बात है। इसके अतिरिक्त दोनों में बहुत अंतर है। सबसे बड़ा अन्तर तो प्लाट का ही है। 'कन्फ़ेशन' एक ऐसे सीरियल किलर की कहानी है जो पादरियों की हत्या कर रहा है और 'आई कन्फेस' एक ऐसे पादरी की जो स्वयं एक हत्या को ले कर शक़ के घेरे में है। यदि इसके अतिरिक्त भी दोनों में कोई समानता हो तो कृपया अवश्य साझा करें।
वैसे इस सम्बन्ध में मुझे फ़िल्म देखने के पश्चात् ही अपना पक्ष रखना चाहिए था पर मैंने सिर्फ़ इंटरनेट पर प्राप्त सूचनाओं के आधार पर ही अपनी बात रखनी चाही, इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। सादर! कृपया उचित मार्गदर्शन करें।
यथा निवेदित - तथा प्रस्थापित
आदरणीय योगराज जी सर, ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक-16 के सफल आयोजन की आपको और पूरी ओबीओ टीम को सादर बधाई।
आदरणीय सर जी, आप जी ने मेरी रचना को स्थान दिया , बहुत बहुत धन्यवाद , मेहरबानी करके मेरी लघुकथा प्रतिस्थापित कर दीजिएगा.
प्रायश्चित
पिछले वर्षों से उसने अपने लिखे व् कहे भारी भरकम शब्दों जैसे समाजिक तब्दीली, इंकलाब, पता नहीं और कितने शब्दों से मुझे लेस कर दिया था।
और मैं भी अपनी सोच में निखार महसूस करने लगा था।
धीरे धीरे मुझे भी समाज में घटने वाली घटनाओं के बारे में समझ बनने लगी ।
साथ ही उसकी कही बातों पर भी मुझे विश्वास पक्का होने लगा ।
मगर जब से हमने उसके साथ काम करना शुरू किया।
तब से हमारे काम में तो कोई तब्दीली नहीं आई, मगर उसकी मंजिल का रास्ता आसान हुआ जा रहा था, कुछ वर्षों में ही अब उस का बड़ा नाम हो गया ।
कभी वो हमें अपने साथ लेकऱ जाता, मगर अब हम में से कोई भी उसके साथ नहीं जाता, उसे ले कर जाने वाले कई और बड़े लोग आ जाते हैं और हमारे किये जाने वाले काम का प्रंबंध भी वो ही कर देते।
“मगर उसकी शौरत के ऊसर रहें महल में कितने ही मेरे जैसे नींव की ईट बन चुके हैं , मगर इट्टों को कौन जानता है ? “
"मगर महल भी कुछ दिन" फिर मैने अपने कहे शब्दों को आप ही काटते हुए कहा।
आज शहर में जिस फंक्सन के लिए उस को संदेशा आया और उसने कुबूल कर लिया उस लिए उसने हमें भी बुलाया भेज दिया।
ये ये सब देख बहुत ही बहुत हैरान हो रहा था ।
अब हमें लगा कि उसके कहे भारी भरकम शब्द कहीं गुम हो गये हैं,पर मुझे लगा अब, मैं कुछ ज्यादा ही हैरानगी महसूस कर रहा हूँ।
वहाँ बड़े बड़े लोग इतने बड़े हाल में बैठे थे , मैं और बाकी साथी पानी पिलाने व् खाना बनाने में मदद कर रहे थे, ।
ये देख कर मैनें अपने आप से कहा कि में हम कैसे इस बुत को पूजते रहे , बस शब्द थे ,जिसमें कभी कोई हरकत नजर नही आई, दिल तो करे कुछ कह कर ही जाऊंगा, मगर .मैं पानी पिलाने की सेवा निभानी छोड़ बाहर खुले आसमान की तरफ देख मेरे कदम हाल की तरफ न जाते हुए बाहर की तरफ बढ़ने लगे ।
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