(1). डॉ विजय शंकर जी
पलायन
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चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था। अब तो हद हो गई , क़ानून व्यवस्था इस कदर पंगु हो गई , लोग इस कदर निडर हो गए कि जैसे कानून नाम की कोई चीज़ है ही नहीं। घर बाड़ सबसे उजाड़ दिया बेचारे का , सुना इज्जत भी ..... , सारा घर तहस नहस , सब उठा ले गए , धमका ऊपर से गए , " कहीं रोने मत जाना , नहीं तो जान से भी जाओगे " .
जागरूक कर्मियों ने माननीय शिरोमणि को अवगत करा दिया , फर्ज पूरा हुआ। उनकीं प्रश्न वाचक आँखें उठीं , कर्मियों की असहाय आँखें झुकीं , दबी जबान बता दिया गया ," सर , प्रभावशाली लोग हैं , आगे जैसा आदेश हो " .
आदेश हुआ , " हम कल ही जायेगे , सूचना भेज दो , "
किसी ने मुंह खोला , " कल तो सर त्यौहार है ".
चेहरे पे मुस्कान आ गई , बोले, " ये तो और भी अच्छा है , हम मिठाई ले कर जाएंगे , और परिवार के सभी लोगों के लिए नए नए वस्त्र ले कर जाएंगे।"
रातों रात सब व्यवस्था हो गई , प्रातः पूरे लाव - लश्कर के साथ माननीय शिरोमणि श्वेत गाड़ियों में श्वेत वस्त्रों में वातावरण में सफेदी झाड़ते हुए पहुंचे। पीड़ित लोग आंसू रोके , भौचक से अपने ही खंडहर में लुटे पिटे , पुलिस के कड़े आंतरिक घेरे में , हाथ जोड़े खड़े थे। मीडिया और कैमरों को दूर रखा गया , केवल चित्र लेनें की अनुमति थी .
माननीय शिरोमणि के पहुँचते ही चारों दिशायें उनके जय जयकार से गूंजने लगी। हाथों में मिठाई का बड़ा सा डिब्बा लिये वे उस पीड़ित बुजुर्ग के सामने खड़े हुए , अपने हाथों से डिब्बा पकड़ाया , पास खड़ी उसकी पत्नी आंसू नहीं रोक पाई , उन्होंने जेब से रुमाल निकाला , श्वेत तहाया हुआ , बारी बारी दोनों आँखों के आंसू पोछे , रुमाल जेब में रखा , दोनों हाथ जोड़े , सांत्वना के बोल फूटे , " मैं हूँ न , चिंता न करें , लोगों के साथ प्रेम , सौहार्द और सम्मान बनाये रखें "
इस बीच कर्मियों ने खाने पीने का तमाम सामान , परिवार के लिए लाये वस्त्र वहीं जमीन पर रख दिए और हाथ जोड़ कर खड़े हो गए।
माननीय शिरोमणि मीडिया की ओर मुड़े और घोषणा की , " परिवार को बहुत क्षति उठानी पड़ी , मैं उनके साहस के सम्मुख नमन करता हूँ , इस दुख में मैं उनके साथ हूँ , उनके लिए इक्यावन हजार रुपये के अनुदान की व्यवस्था कर दी गई है , उनके क्षति- ग्रस्त घर की मरम्मत भी करा दी जाएगी। मैं सभी से शान्ति बनाये रखने की अपेक्षा करता हूँ। मैं पीड़ित परिवार को और उपस्थित सभी लोगों को त्यौहार की मुबारकवाद देता हूँ। "
जय जयकार से वातावरण फिर गूंजने लगा।
पल भर में शान्ति दूत सा श्वेत काफिला धूल उड़ाता हुआ ओझल हो गया और गुजरे हुए हादसे की तरह गुजर गया। माननीय ने कार में पी ए से पूछा , " कवरेज कैसा रहा ? "
आगे बैठे पी ए ने गर्दन पीछे घुमाई , मुस्कुरा कर कहा , " बहुत बढ़िया सर , सभी मीडिया वाले टाइम पे आ गए थे। आपकी सभी फोटो बहुत अच्छी आईं हैं , कुछ मुझे मेल कर दी गईं हैं , दिखाऊँ सर ? "
उन्होंने गर्दन सीट पर पीछे टिका ली , आराम की मुद्रा में बोले , " देख लेंगे ". रुमाल उनके हाथ से नीचे जूते के पास सरक गया।
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(2). श्री शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
'साइड इफेक्ट्स'
"मैं मुश्किल से छुट्टियां लेकर आपके पास यहाँ आ पाता हूँ, कुछ अच्छी तरह वक़्त गुजारना चाहता हूँ, भाषण सुनकर नहीं!" अनुज ने अपने पिताजी से कहा।
"जिसे तुम भाषण कहते हो, वह समझाइश या ताक़ीद है। तुम्हें मालूम है न अपनी संतानों को पत्र लिखकर महान हस्तियाँ भी ऐसा किया करतीं थीं!"
"वे ज़माने गये पापा, परिभाषायें बदल गईं हैं, दुनियादारी बदल गई! कितनी बार कहा कि वैसी बातें करना छोड़िये। फोन करने को मना करता हूँ, तो आप लम्बे पत्र लिखना शुरू कर देते हैं! अच्छा है कि इन्टरनेट , स्मार्ट फोन आपके बस का नहीं, वरना ... !" इस बार अनुज ने कुछ ऊँचे स्वर में कहा।
"बेटे, इस तरह नहीं बोला करते, कुछ मीठा बोलना भी तो सीखो!"
"मिठाई का टेस्ट और ईमानदारी का टेस्ट ज़िन्दगी को मधुमेह या पोलियो ग्रस्त कर देता है, पापा! दोनों में मिलावट का दौर है, दबंगी, झूठ, स्वार्थ और अवसरवादिता से ही अब जीवन सफल हो पाता है!"
"तुम्हारी इसी सोच ने मुझे और मेरे कुटुम्ब को अपमानित कराया है!" पिताजी ने नाराज़ होते हुए कहा और अपने कमरे की ओर जाने लगे।
"ये तो आपकी सोच है! आपको नहीं पता कि मैं सफलता की किस ऊँचाई पर पहुँचा हूँ आप वाले उसूलों को छोड़कर!" अनुज ने पीछे से कहा।
"तुम्हारी यह ख़ुशफ़हमी और क़ामयाबियां सिंथेटिक और एलर्ज़िक उत्पादों की तरह ही हैं, जिनके साइड इफेक्ट्स होते ही हैं!" पिताजी ने अपने कमरे के दरवाज़े बंद करते हुए कहा।
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(3).श्री तेजवीर सिंह जी
भोंपू
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"सूबेदार सिंह जी, सुबह कितने बजे निकलने का विचार बनाया है"।
"मंगल सिंह जी,किधर निकलने की बात कर रहे हो"।
"बड़े भाई, क्या आपने मुनादी नहीं सुनी। सरकारी आदेश हुआ है कि सीमा पर बसे गाँवोँ को खाली कर दिया जाय। युद्ध का खतरा है"।
"भाई जी, चालीस साल हो गये, इन नौटंकियों को झेलते हुए। इस बार हम तो कहीं भी नहीं जाने वाले। जो होना है, हो जाय। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा। मारे ही जायेंगे ना। मगर ये तसल्ली तो होगी कि अपने पुरुखों की कर्म भूमि के लिये जान दी"।
"बड़े भाई, सरकार सब इंतज़ाम कर रही है।यहाँ से लेजाने से रहने,खाने और वापस लाने तक का सारा बंदोबस्त सरकार का है”।
"भाई जी, कितनी बार देख चुके हैं, इन सरकारी इंतज़ामों को| और वापस लौटने पर क्या मिलता है। फ़सल, मवेशी सब गायब। घर के कोने कोने में झाड़ू मारी हुई होती है"।
"बड़े भाई, जान है तो जहान है।यह सब तो फिर भी आ जायेगा| वैसे इस बार तो अपने बड़े नेताजी ने भी पूरी जिम्मेवारी ली है कि यहाँ से एक तिनका भी गायब नहीं होगा"।
"भाई जी, किसकी बातों में आ रहे हो। वह तो सरकारी भोंपू है। चुनाव सिर पर हैं तो वह तो ऐसी ही रटी रटाई भाषा बोलेगा"।
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(4). सुश्री प्रतिभा पाण्डेय जी
दुश्मन
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‘’दादी , बाहर कोई औरत आपको पूछ रही है, कह रही है आप दीये लेती हैं उससे I’’ पोते की बात से अम्मा का चेहरा खिल गया I
“ अरे हाँ हाँ, रोकना उसे “
दिवाली की तैयारियों में इस बार अम्मा हाशिये पर आ गयी थी I सारी खरीदारी बहू ही कर रही थी वो भी घर बैठे I
“ अम्मा अब क्या लेना है ? सब तो ले लिया “ बहू को अनदेखा कर अम्मा बाहर आ गयी I
“ अरे रमिया i कहाँ रह गयी इस बार ? हर दिवाली दीये तो मै तुझसे ही लेती हूँ ,पता है ना तुझे “ अधेड़ उम्र की रमिया से आत्मीयता से मिलती अम्मा धप्प से छोटे मोढ़े में धंस गई I
“वो अम्मा..” रमिया झिझकते हुए साथ आये बेटे को देखने लगी I
“अम्मा जी हम तो बस आपसे मिलने आये हैं” बेटा आगे आ गयाI
“ मतलब “ ?
“हम गाँव जा रहे हैं अपने I वहीँ कुछ काम करेंगेI, दीये सकोरो के धंधे में रोटी के लाले हो गए हैं अम्मा” I उसकी आवाज में हताशा थी I
“नहीं ऐसा नहीं है I कितना अच्छा काम है तेरी माँ का i”
“कहाँ अम्मा i बड़ी दुकानों को अब कोई नहीं पूछता , हम तो कुछ भी नहीं हैं I अब तो बस फोन में ऊंगली दबाई और पूरा बाजार घर पर हाजिर”I पीछे आ खड़ी बहू निशा ने अपने फोन पर टिक गईं उसकी जलती निगाहें महसूस कर लींI
“ अम्मा चलते हैं “ रमिया ने अम्मा के पैर छुएI
“अरे रुक तो ज़रा “ मोढ़े से उठने की कोशिश में अम्मा जोर से चिल्लाई “ निशा , इस मुए पर ऊँगलियाँ फेरना बंद कर, इसे परे फेंक और मुझे उठा “I इस चीख में रमिया और बेटे की चीख भी सुन ली थी निशा ने I
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(5). श्री तसदीक़ अहमद खान साहिब
क़ाबलियत
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किशन बाबू ने वरांडे में कुर्सी पर बैठते ही पत्नि को अखबार के लिए आवाज़ लगाई, अखबार हाथ में लेकर बोले:
" क्या गोपाल अभी तक नहीं उठा ?"
पत्नि ने जाते हुए कहा---" अभी जा कर देखती हूँ "
कुछ ही देर बाद पत्नि ने आकर कहा " वह कमरे में नहीं है , यह पत्र मेज़ पर मिला है "
किशन बाबू यह सुनते ही खड़े हो गए और पत्र लेकर पढ़ने लगे -----
" पिताजी मैं बेरोज़गारी और आपके तानों से आजिज़ आचुका हूँ ,मुझे दो साल में बेहतर इंटरव्यू देकर और अच्छे नंबर लाकर भी नौकरी नहीं मिल सकी ,शायद यह जनरल में होने की सज़ा है ,लगता है भारत में क़ाबलियत से नहीं बल्कि रिजर्वेशन से नौकरी मिलती है ,आपकी पेंशन से घर का खर्च मुश्किल से चलता है , इसलिए मैं आपको बिना बताये आज रात विदेश जा रहा हूँ ,जब आप यह पत्र पढ़ रहे होंगे मैं आपसे बहुत दूर जा चुका हूँगा "---------
पत्र पढ़ते ही किशन बाबू कुर्सी पर बैठ गए ,उनकी आँखों में बेटे की जुदाई के आंसू और चेहरे पर कामयाबी की चमक साफ़ नज़र आरही थी ------
अचानक मोबाइल की घंटी बजी , उधर से गोपाल की आवाज़ आयी ---
पिताजी मैंने नौकरी ज्वाइन करली ---
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(6). डॉ टी आर सुकुल जी
मनस्ताप
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इमारती लकड़ी खरीदने की सलाह लेने, एक दिन मैं टिम्बर मर्चेंट सरदार अवतारसिंह के घर पहुँचा। उनके छोटे छोटे बच्चे, मेरे पहुँचने से पहले धमाचौकड़ी मचाते हुए उनसे कहानी सुनाने की रट लगाये थे। सरदारजी चारपाई पर लेटे, बड़े ही सोच विचार में पड़े थे कि इन्हें क्या सुनाऊँ। अचानक सरदारजी बोले,
‘आओ जी ! त्वानु मापारत दी काणि सुणावां । ‘‘
बच्चे झटपट चारपाई पर उनसे सट कर वैठ गए।
‘‘हाँ जी ! तुसीं मापारत दा नम सुणा, जा नईं ?‘‘ बच्चे कोई हाँ जी बोले कोई न।
‘‘चंगा जी , तँ... मापारत विचों सी... पंज पंडवा । किन्ने जी ? ‘‘
‘‘पंज।‘‘
‘‘हाँ जी ! ता... उना विचों सब तों बड्डा सी दित्तर, ते दूजा बड्डा तकड़ा सी पिंम्म। हैं जी ! ते इक होर... , इक होर..... , ता... इक दा नम मैं पुल गिया जी। ‘‘
इस पर बड़ा बच्चा बोला,
‘‘पापाजी! तुसी पंज विचों दो नम ही दस्से हन, केन्दे हो इक दा नम पुल गिया ? ‘‘
‘‘ओ पुत्तर! मैं कोई पड्या वड्या नईं ना इसलै पुलता वां ‘‘ सरदारजी बड़े दुखी हो बोले।
इसी बीच एक बच्चे ने गेट के पास मुझे देख कर उन्हें ध्यान दिलाया, वे जल्दी उठे और ‘सत्श्रीअकाल जी‘ कहते हुए अन्दर आने का इशारा किया। पहुँचते ही उन्होंने बड़ी ही विनम्रता से, बच्चों को महाभारत की कहानी सुनाने का निवेदन किया। मैं अपनी कहानी बाद में, पहले महाभारत की कहानी सुनाने लगा। सुनते सुनते सरदारजी बच्चों की तरह अंत तक बड़े ही तल्लीन दिखे।
मैं ने पूछा, ‘‘ सरदारजी ! कि होया? कहानी तो खत्म हो गई।‘‘
जैसे किसी ने सोते से जगा दिया हो, वे बोले
‘‘ ओ जी ! मै साठ साल पिछों चला गिया सी जदों देश दा बटवारा होया, भागमभाग,अपणे परिवार दे नाल लाहौर तों दिल्ली आणे दी धुंधली यादों, माॅंप्यो तों विछुड़ना, स्कूल छूटना, भूखे प्यासे अनेक जगह भटकना आदि सोचने में खो गिया जी ! पर, त्वानु बहुत तनवाद जी ! काश! मैनु भी पढ़ने दा मौका मिल पाया हुंदा तद अजी, इन बच्चयानु मेरी ओर तों इन्नी निराशा न होती ! ‘
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(7). श्री मनन कुमार सिंह जी
पलायन
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झुनकी नैहर आ गयी।सरकारी चापाकल पर कतार में लगी दीपा काकी बोली-
-क्यों रे झुनकी, इतनी जल्दी ससुराल से भागी काहे तू?
-बे काकी, हम भागी कहाँ हूँ? उ त परदेस गया है न,कुछ कमाने-धमाने ।
-आउर तू खिसक आई हिंयाँ,यही न?
-त अउर का?सभी लोग त अइसहीं करत हउएँ आजकल।आना-जाना ससुरारिए से जियादा हो तावे।
-काहे,तोर छोकड़वा(पति) गउँवो में त कुछ रोजी-रोजगार कर सकत रहे।कि ना रे संघारी?तें ठीक से ओकरा बँधते तब नु उ कम छड़पित?
-रे काकी, उ सब त ठीके ह।हमरा ओकरा कसे में कवनो कमी थोड़े ही बा।मानेला उ हमरा के,खूबे।बाकिर गउँअन में रोजी-रोजगार त कुछ हइए नइखे।कुछ दउरी-दोकान करो,तो उधारिये में खल्लास।ए ही से लोग बाहर भागत बा सब।बंबइओ में त कवनो ठोकर पाटी बा।उ मार-धाड़ करते रहेला सब.....।
-से त सब ठीके ह हमर बाबू.....।चलेके पानी भरल जाव।
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(8). श्री सुनील वर्मा जी
वर्जित क्षेत्र
चाय की तलब लगने पर सोमेश बाबू ने बस स्टैंड के पास बनी एक दुकान पर अपना स्कूटर रोक कर चाय की फरमाईश की। उससे गिलास लेकर चाय का पहला घूँट भरा ही था कि सामने वाली तंग गली में स्थित एक यौन रोग फार्मेसी से उनका बेटा रवीश बाहर आता दिखा। उसे देखकर उनकी आँखों में साल भर पहले का दृश्य तल से उठ कर सतह पर आ गया।
अपने बेटे के मोबाईल में व्यस्क फिल्म देखकर उन्होंने उसके गाल पर जोरदार तमाचा रसीद दिया था।
"सुनिये, कम से कम हाथ तो मत उठाईये।" उनकी पत्नी ने उन्हें टोका और बेटे को अंदर जाने के लिए कहा।
"तो क्या आरती उतारूँ इसकी ?" वह इस बार पत्नी पर बरस पड़े।
"वह अब बड़ा हो गया है, बीस साल का होने वाला है। आप उसे आराम से भी तो समझा सकते हैं न।" पत्नी ने कहा।
"यह भी कोई विषय है समझाने का ?" वह फिर बोले।
"हम नही समझायेंगे तो और कौन समझायेगा ? बच्चे भी तो गुल्लक की तरह होते हैं। हम सही ज्ञान से नही भरेंगे तो कोई और गंदगी से भर देगा। और हम माँ बाप इन परिस्थितियों से कब तक भागेंगे ?"
"अपना ज्ञान अपने पास रखो और उससे कहो अपना ध्यान अपनी पढ़ाई में रखे।" कहकर वह कमरे से बाहर निकल गये।
तभी एक व्यक्ति द्वारा चाय वाले को लगायी गयी आवाज से वह वापस वर्तमान में आये। उसी फार्मेसी का नाम लिखी शर्ट पहने उस आदमी को देखकर उनके कान उन दोनों के वार्तालाप पर केंद्रित हो गये।
"और हकीम साहब, बड़े खुश नजर आ रहे हो।" चाय वाले ने आगंतुक से पूछा।
"हाँ भाई, इस महिने के बकरे का इंतजाम जो हो गया।" चाय का गिलास हाथ में पकड़ते हुए उसने मुँह में भरे पान की पीक को थूककर जवाब दिया।
"और अगर अब वह वापस नही आया तो ?" चाय वाले ने उसे छेड़ते हुए पूछा।
"अररे ऐसे कैसे नही आयेगा। तुम देखना इस विषय पर न तो यह घर वालों से बात करेगा और न घरवाले इससे बात करेंगे। यहाँ तक की यह दोस्त से भी बात करने में शर्मायेगा। यह भी एक तरह का वर्जित क्षेत्र है जिसमें सिर्फ हमारा एकाधिकार है।" उस व्यक्ति ने बाईक पर बैठकर जाते रवीश की तरफ देखकर बड़े आत्मविश्वास से कहा।
उसकी बात सुनकर पास बैठे सोमेश जी के माथे पर पसीने की बूँदें तैर गयी। चाय का गिलास नीचे रखकर उन्होंने अपना स्कूटर स्टार्ट किया। स्कूटर की बढ रही रफ्तार बता रही थी कि वह जल्दी से जल्दी उस वर्जित क्षेत्र में प्रवेश करना चाह रहे थे।
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(9). श्री मोहन बेगोवाल जी
पलायन
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अब जब कभी मैं "पलायन" शब्द सुनता हूँ तो दिल को कुछ भी नहीं होता है । मगर अपने गाँव में पहुँच जाता हूँ, सोचता हूँ क्या कुछ नहीं पलायन हो चूका है, उस गाँव से यहाँ मैं कभी रहता था, मेरे बजुर्गों की पहचान, रिश्तों के नाम,गरीब की आगे बढने की तमन्ना,किसी आम आदमी के बुने सपने को पूरा करने की कोशिश और. पता नही क्या कुछ । अब मैं शहर की पोश कलोनी में रहता हूँ, मेरी सोचों में से और भी बहुत कुछ पलायन हो चूका है, मैं याद करने की अब कोशिश भी नहीं करता । संदीप के साथ कालोनी के लगभग सभी लडके लडकियाँ बैंक के खाते को खाली कर विदेश जा कि सेटल हो चुके या हो रहें हैं और हम लोग चकर में रहते हैं कभी इधर कभी उधर कि ।
अभी ब्रेड व् चाय के साथ बाहर लॉन में पड़ी कुर्सी पे बैठा धूप सेक रहा हूँ, चाय पीने के बाद अभी हिम्मत नहीं बर्तनों को रशोई तक छोड़ सकूं ।
मुझे हरनाम की याद रह रह कर आ रही है, जो मुझे छोड़ कर डेरे में जा कर पक्की सेवक बन गई है।
तभी आसमान से आ रही पक्षियों की आवाज़ों की तरफ मेरा ध्यान जाता है, और मेरी उनपे लगातार टकटकी रहती है , जब तक वो आँखों से दूर नहीं हो जाते ।
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(10). श्री मोहम्मद आरिफ जी
देशहित
सीमा पार से लगातार हो रही फायरिंग, गोला बारूद की वर्षा और युद्ध की आशंका के कारण सीमावर्ती गाँवों को खाली करवाया जा रहा है। किसान सुच्चा सिंह का घर भी उनमें से एक है। घरेलू सामान, बहू, पोते-पोतियों को दो बैलों की गाड़ी में बैठाया और रवाना हुआ। मीडियाकर्मी उसके विस्थापन को कवरेज करता हुआ साथ-साथ चल रहा था।
मीडियाकर्मी का सवाल पूरा भी नहीं हुआ था कि सुच्चासिंह गुस्से से बोल पड़ा-‘‘ओ जी! आप इसे पलायन कहते हैं। यह पलायन विस्थापन नहीं है जी, यह तो देशहित का सवाल है। हम इसलिए अपना घर बार छोड़ते हैं ताकि हमारी सेना दुश्मन का मुकाबला कर सके। उसे शिकस्त दे सके। हम महफूज रह सके। इसे पलायन नहीं करते। पलायन तो बंजारे करते हैं। हम कोई बंजारे नहीं हैं। मीडियाकर्मी को सुच्चासिंह का करारा जवाब मिल गया था।
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(11). सुश्री बबिता चौबे शक्ति जी
पलायन
" देखो रजनी मै फिर कह रहा हूं मेरी बात मान लो ! मै तुमको बहुत प्यार करता हूं ! " रवि ने फिर मौका देखकर अपनी बात कही !
रवि रजनी का बॉस था और शादीशुदा था !
रजनी के पति संजीव सीमा पर तैनात थे और पिछले साल से लापता थे ! उनकी कोई खबर नहीं मिल पा रही थी ! हर कोई यही कहता कि खोजने के प्रयास किए जा रहे हैं ! संजीव के मां बाप भी आर्थिक रूप से मजबूत नही थे मगर रजनी को मनहूस कहकर त्रास देने में चूकते नहीं थे ! मजबूरन रजनी को रवि के ऑफिस में नौकरी करना पड रही थी । कई बार मन भटकने लगता था मगर हर बार संजीव की वो बात याद आ जाती थी.... फौजी कभी पीठ दिखाकर पलायन नही करता है !
" ठीक है सर मैं आपकी बात मान लूंगी मगर आपको मुझसे शादी करना होगी और संजीव के माता पिता को भी साथ रखना होगा ! कहिये मंजूर है ! "
" मगर... मगर ये नही हो सकता ! मेरी कुछ जिम्मेदारीयां है ! "
" जब आप भाग नही सकते अपनी जिम्मेदारी से तो मै कैसे पलायन कर जाऊं !
अपने फर्ज से न तो कभी फौजी पलायन करते हैं ना ही उनके परिवार वाले ! "
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(12).डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव
पलायन
विधुर चाचा की पालिता थी वह . उसे याद नहीं चाचा ने उसे कबसे पाला था . अब वह सत्रह वर्ष की हो गयी है. इधर कुछ दिनों से उसे चाचा के रंग ढंग अच्छे नजर नहीं आ रहे हैं . रात को शराब पीकर आता है और देर देर तक उसे घूरता है .कभी गाल सहलाता है . कभी शरीर पर हाथ फेरता है . वह सहम कर रह जाती है . एक दिन उसने दिल कड़ा कर कहा था - चाचू शहर जाकर कुछ काम करो . यहाँ की मजदूरी से अब पेट पालना मुश्किल हो रहा है और अब मेरी फ़िक्र मत करो , बड़ी हो गयी हूँ अकेले रह लूंगी . पर चाचू को अच्छा नहीं लगा था . वह बोला - तुझे अकेला छोड़ दूं तो दुनिया हँसेगी मुझ पर . फिर मैंने अपने बापू को बचन दिया था कि अपने जीते जी घर की देहरी नहीं छोडूंगा . वह इसी उधेड़बुन में थी कि उस रात चाचू फिर शराब पीकर आया और नशे की झोंक में या फिर जान बूझ कर उसके ऊपर भहराकर गिरा . उठने के प्रयास में उसने भतीजी के शरीर को कस कर दबाया . उसकी आँखों में आंसू आ गये .
‘चाचू, तुमारी नीयत में शैतान है’- वह बिफर पड़ी .
‘वाह मेरी-- बिल्ली ---मुझी से ---म्याऊँ ? चाचू ने अटक-अटक कर कहा .
नशा शायद कुछ ज्यादा था . कुछ ही देर में वह खर्राटे भरने लगा .पर भतीजी की आँखों में ज्वाला भरी हुयी थी , उसे नींद कहाँ ?. धीरे-धीरे मन को स्थिर कर उसने एक संकल्प लिया . अपने जमा किये हुए कुछ पैसे उसने अपनी ओढनी में बांधे . एक उचटती निगाह चाचू पर डाली और आगे बढ़कर धीरे से दरवाजे की सांकल खोली . बाहर निकल कर खुली हवा में उसने उन्मुक्त पक्षी की तरह स्वतंत्रता की सांस ली और अनिश्चित पथ पर एक जीवंत आशा लेकर बढ़ गयी . अचानक ही उसे लगा कोई पीछे से आ रहा है, उसने पलट कर देखा . चाचू लड़खड़ाते क़दमों से उसकी और बढ़ रहा था . उसने अपनी गति तेज कर ली . जवान तो थी ही .हिरनी की भांति कुलांचे भरती शीघ्र वह दृष्टि से ओझल हो गयी .
चाचू निराश होकर वापस लौट आया . ‘आजकल की छोकरियाँ’ - वह बुदबुदाया , देहरी पर आकर वह अचानक ठिठक गया . कुछ देर तक निर्निमेष दरवाजे को देखता रहा . फिर उसने कुंडी चढ़ाकर बाहर से ताला लगाया और भारी क़दमों से शहर की राह पर चल पड़ा .
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(13). श्री सतविन्द्र कुमार जी
आत्मबल
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बॉन मेरो सर्जरी की सफलता के कुछ दिन बाद सभी डॉक्टरों की टीम ज़हीर को घेर कर बैठ गई।उसके साथ हँसी-ठिठोली भी की।कई लतीफे सुनाए और उससे सुने भी।फिर उससे इलाज़ के लंबे भयावह दौर के अनुभव के बारे में पूछते हुए सीनियर डॉ ने सवाल किया,"हमारे स्टाफ में तुम्हें सबसे बुरा व्यक्ति कौन लगा?"
वह कुछ बोल नहीं पाया,पर उसकी आँखों में क्रोध और दुःख दोनों के भाव उभर आये।
डॉ ने उससे दोबारा आग्रह किया।
ज़हीर की नजरें डॉ राजीव तुली की तरफ घूम गई।नजरें घुमाते हुए भर्राती आवाज़ में बोला,"छोड़ों न डॉ साहब।अब इन बातों में क्या रखा है?"
"जब तुमने सबसे अच्छे व्यवहार वाले व्यक्ति के बारे में बताते हुए संकोच नहीं किया,तो फिर इसमें संकोच क्यों?"
अब उसे बोलने का हौंसला मिल गया।वह बोल उठा,"यह डॉ तुली मेरे को सबसे खराब लगा।"
सभी डॉ तुली की और देखकर हँस पड़े।जो खुद भी मुस्कुरा रहे थे।
फिर उसकी तरफ देख बोले,"ऐसा क्यों?"
दाँत पीसते हुए,"इसने उस दिन मेरे को रोटी भी नहीं खाने दी।रोटियों से जबरदस्ती उठवाकर बुलाया और...।",कहते हुए गला रुंध गया।
"इसने कहा कि मैं कल ही अपने गाँव चला जाऊँ,जिससे मिलना है मिल आऊँ,उसके बाद यहाँ दाखिल होना है। यहीं महीनों तड़पकर मरना है।मैं और मेरी बीवी खाना भी नहीं खा पाए थे।",उसने बात पूरी की।
सीनियर डॉ ने माहौल को हल्का करने की कौशिश करते हुए मुस्कराहट के साथ,"तुम्हें मालूम है उन्होंने ऐसा क्यों किया?"
"उसने मेरे को,मेरे परिवार वालों को डराया था,हमारा हौंसला गिराया था।"
"बात तो सही कह रहे हो,इस बीमारी के ज्यादातर मरीज़ इलाज के दर्द को नहीं सह पाते।इसी के दौरान वे...।यह भी टेस्ट का एक हिस्सा ही है।"
"मतलब आप मुझे इलाज से पहले ही ,जिंदगी से भगाना चाहते थे?"
"पर तुम भागने वाले थे क्या!"
इसी के साथ सब खिलखला दिए।
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(14). सुश्री नीता कसार जी
"दुर्लभ दर्शन "
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"बहिन जी दरवाज़ा खोलिये ना,भैया जी आपसे मिलने आये है "।
ये घर है किसी पार्टी का आफिस नही, गलत जगह आ गये है आप, आगे जाईये ,कहते हुये कुसुम ने ताव में आकर जोर से कहा और दरवाज़ा बंद करना चाहा ।
देखिये तो भैया जी घर आये है सौग़ातें लाये है।थोड़ा समय तो दीजिये सही ।नेता जी के साथ आया समूह में शामिल शख़्स बोला ।
पहिले बताईये आप जो सौग़ातें पिछले चुनाव में पिटारे में भर कर लाये थे ,उनका क्या हुआ ?
देखा है हमने, चुनाव के समय ही रिश्तेदारियाँ याद आती है,आप लोगों को।
कितनी आसानी से भूल जाते है । हम जिताते है ,आप जैसे लोग जनहितकारी योजनाऔ में पलीता लगाते है।
पिछले वादों योजनाओं का क्या हुआ ?
याद रखिये जनता अनपढ़ अंजान नही है अब।
भैया जी ने आगे बढ़ने में भलाई समझी । महिला के शब्द कानों में शीशा उँडेल रहे थे ।
जनता ही शासक और सरकार और आप लोग नुमाईन्दे, समझ गये ना या आइना लाऊं।
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(15). योगराज प्रभाकर
(सारांश)
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आसपास हो रही घटनायों से वे दोनों भाई आज भी बहुत उदास थेI आहत ह्रदय, नम आँखें और भरे हुए गले लिए दोनों मौन की चादर ओढ़े बैठे हुए थेI
"ये क्या हो गया है हमारे बच्चों को? ये एक दूसरे के खून के प्यासे क्यों हो गए?" छोटे भाई ने मौन तोड़ते हुए पूछाI
"शायद हमारी तरफ से ही इनकी परवरिश में कोई कमी रह गई होगी भाईI" बड़े भाई ने ठण्डी सांस भरते हुए कहाI
"लेकिन हमने तो अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी थीI"
"तो फिर हमारी शिक्षायों का इन पर असर क्यों नहीं हुआ?"
"यही तो समझ नहीं आ रहा! न जाने ये कैसे भूल गए कि इनकी रगों में हमारा ही खून दौड़ रहा हैI"
"अफ़सोस की बात तो यही है कि ये सारा खून खराबा किया भी हमारे नाम से ही जा रहा हैI"
"रोज़ रोज़ की हैवानियत देखकर मन उचाट हो गया है मेरा तोI"
"मेरा भी मन बहुत उदास हैI मैं तो यह सोच रहा हूँ कि यहाँ से कहीं दूर चला जाऊँ, बहुत दूरI"
"ठीक है! मुझे भी ऐसी जगह नहीं रहना है, मैं भी चलूँगा तुम्हारे साथI"
"लेकिन सोच लो, हम दोबारा लौट कर यहाँ कभी नहीं आएंगेI"
"ऐसी जगह पर कौन वापिस आना चाहेगा? चलो यहाँ सेI"
"रास्ते में बाकी भाईओं को भी साथ ले चलें?"
"हाँ! वे भी हमारी ही तरह अपनी औलादों से दुखी हैI"
"चलो जल्दी से इस नरक से बाहरI"
जाने के निर्णय पर सहमति होते ही दोनों के पंख प्रकट हो गएI दोनों ने एक ठंडी आह भरते हुए अपने अपने घरों की तरफ देखा और द्रुत गति से किसी अज्ञात स्थान की ओर उड़ चलेI उन्हें यूँ जाते हुए देखकर कुछ वृद्ध सामूहिक स्वर में चिल्लाए:
"वो देखो! हमारे भगवान और अल्लाह हमें छोड़ कर जा रहे हैंI"
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(16). श्री वीरेंद्र वीर मेहता जी
" माँ बोलने लगी "
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"तुम्हे ठीक से याद है न कि यही वो जगह थी।" माँ के कहने पर एक बारगी उसे भी लगा कि कहीँ वो गलत जगह तो नही आ गया। लिहाजा उसने उस झोपड़ीनुमा घर के बाहर बैठे वृद्ध से पूछ लेना मुनासिब समझा। "बाबा! यहाँ इस घर में हरी काका रहा करते थे न, जो मिट्टी के दीए और बर्तन आदि बनाते थे।"
.......कई बरस पहले गाँव की खेतीबाड़ी छोड़ शहर आ बसे बेटे के लिए ये पहला अवसर था जब दिवाली पर माँ उसके साथ थी और बेटा उन्हें शहरी संस्कृति की चमक-दमक से प्रभावित कर देना चाहता था लेकिन माँ चुप थी लेकिन पुरी तरह पारम्परिक दिवाली की पक्ष ले रही थी। सो इसी इंतजामात में माँ के पसंदीदा मिट्टी के दीयों का जिक्र आते ही उसे हरी काका याद आ गए, लिहाजा वो माँ को साथ ले यहां चला आया था।.....
"हाँ रहते थे बेटा, लेकिन उन्हें ये घर छोड़े तो तीन बरस हो गए। कहिये कुछ काम था क्या ?" वृद्ध ने उनकी ओर देखते हुए जवाब दिया।
हाँ बाबा! लेकिन वो तो पीढ़ियों से यही रह कर अपना पुश्तैनी काम करते आ रहे थे, सब छोड़ कर चले गए ?"
"बेटा! जमाना बदल गया है लोगों की सोच बदल गयी है। कहीं मिट्टी के बर्तनों की जगह 'डिस्पोज़ल' चीजों ने ले ली तो कहीं आधुनिक दीयों ने अपनी चमक फैलानी शुरू कर दी है।"
"लेकिन उन्हें ये पुरखों की जमीन और अपना धंधा यूँ ही छोड़ कर नही जाना चाहिए था। कुछ संघर्ष करते तो शायद कोई राह बनती और हो सकता है उन्हें पलायन......"
बेटा ! उन्होंने तो हालात और भूख के मद्दे नजर, सिर्फ अपनी जमीन को छोड़ा था मगर" वृद्ध उसकी बात को बीच में ही काट चुका था। "इस नई पीढ़ी को क्या कहोगे जो शहरी रंग में ड़ूब कर जमीन के साथ साथ अपनी संस्कृति और परम्पराओं से भी पलायन कर रही है।"
वो कुछ नही कह सका, उसे लग रहा था वृद्ध के शब्दों में माँ बोलने लगी है।
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(17). डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी
रसीला फल
उस राज्य में सियासी सरगर्मी और बढ़ गयी, चुनावों के मौसम में दंगों के वृक्ष पर पलायन नामक एक फल लगा था। राजनीतिक दल ‘अ‘ का प्रमुख सोच रहा था, इस वृक्ष को मैनें सींचा है, पानी दिया है इसलिये यह फल मेरे लोग खायेंगे, उसी तरह राजनीतिक दल ‘ब‘ का प्रमुख भी सोच रहा था कि इस पेड़ का बीज हमने बोया है, इसलिये इस फल को खाने के अधिकारी मेरे लोग हैंj
दोनों दलों के लोग उस वृक्ष के पास पहुँच गये और अपने-अपने तरीके से उस फल को तोड़ने का प्रयास करने लगे। लेकिन एक दल के कार्यकर्ता उस फल को तोड़ने वृक्ष के ऊपर चढ़ते तो दूसरे दल के कार्यकर्ता शोर मचा कर उन्हें उतार देते और ऐसा ही दूसरे दल के साथ भी होता। आखिर दोनों जनता की अदालत में चले गए, लेकिन उस अदालत के अनुसार दंगो का वृक्ष अवैध और अनैतिक था।
‘अ‘ के प्रमुख ने रंग बदलते हुए अपनी पैरवी में कहा, "दंगों के पेड़ का बीज 'ब' ने बोया है, इसलिये ‘ब’ बुरा है।"
और ‘ब‘ के प्रमुख ने भी समय को पहचान कर अपनी दलील में कहा, "दंगों के पेड़ को 'अ' ने सींचा है, अतः ‘अ’ बुरा है।"
उसी समय यह समाचार आया कि एक और जगह अकाल नाम का पेड़ अपने आप ही उग आया है और ‘किसान-पलायन’ नाम का एक फल उस पर भी लगा है।
दोनों दलों के प्रमुखों ने तब धीमे स्वर में अपने कार्यकर्ताओं से कहा, "उस राज्य में फ़िलहाल चुनाव का मौसम नहीं है, इसलिए वहां के फल में रस की सम्भावना नहीं।"
और बहस पुनः प्रारंभ हो गयी।
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(18). श्री विनोद खनगवाल जी
फर्क पडता है
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"माँ, हमारा पुश्तैनी काम बिल्कुल ठप्प पड़ गया है देखो ना एक मटका भी नहीं बिका है अब तकI"- मटकों से भरे कमरे को देखकर वह तड़प गया था।
"................................"- माँ बिना कोई जवाब दिए अपने शहीद पति की फोटो को एकटक देखती रही।
कोने में रखे टीवी पर न्यूज चल रही थी सैनिकों पर एक बड़े आतंकवादी हमले से पूरे देश में विदेशी सामान के बहिष्कार की मुहिम ने तेजी पकड़ ली। नुकसान के डरी कई कंपनियाँ पलायन की भी तैयारी कर रही थीं। बिजनेस एडवाइजर हिसाब किताब लगाने में लगे हुए थे कि इस मुहिम से सरकार और विदेशी कंपनियों के मुनाफे पर क्या फर्क पडता है।
"सुनो, घर में कोई है क्या? एक मटका दिखाना....।" -दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी थी।
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(19). श्री महेंद्र कुमार जी
अच्छा वाला आईना
फ्लोरेंस की मेहनत पूरी हो चुकी थी। उसने पोस्ट का बटन दबाया और अपनी फोटो अपलोड कर दी। रोज की तरह आज भी कॉलेज से सीधे घर न जा कर वह उसी पार्क में बैठी थी जिसकी शहर में अपनी ख़ूबसूरती के कारण एक अलग पहचान है। अपलोड होने के बाद फ्लोरेंस ने अपनी फोटो दोबारा देखी। उसके चेहरे पे मुहांसे का छोटा सा दाग़ था जो पता नहीं कैसे उसकी नज़रों से बच गया। उसने पोस्ट डिलीट की और उसे फिर से एडिट किया। पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद फ्लोरेंस ने वह फोटो पुनः अपलोड कर दी।
फ्लोरेंस अपनी प्रोफाइल को स्क्रॉल करके देख रही थी। वहाँ उसकी ढेर सारी तस्वीरें पड़ी थीं। कुछ इस पार्क की थीं तो कुछ रेस्टोरेंट की। कुछ सिटी मॉल की तो कुछ सिनेमा हॉल की। प्रोफाइल में कुछ फोटो एयरपोर्ट और विदेशों की भी थीं जैसे ऑस्ट्रिया, जर्मनी, इटली और रोम। इनमें से रोम वाली तस्वीर उसे सबसे ज़्यादा पसन्द थी। आख़िर यही तो उसकी वह तस्वीर थी जिसमें उसकी ख़ूबसूरती को सबसे ज़्यादा सराहा गया था।
थोड़ी देर बाद फ्लोरेंस की इस ताजा पोस्ट पर कुछ लाइक और कमेण्ट आये। उसने सभी कमेण्ट्स को लाइक किया और उनका जवाब दिया। पर केविन का इंतज़ार उसे अभी भी था। सूरज ढल रहा था। फ्लोरेंस उठी और अपने घर की ओर चल दी।
फ्लोरेंस की माँ नहीं है। वह अपने पिता के साथ अकेली रहती है जो कि एक फैक्ट्री में काम करते हैं। फ्लोरेंस ने दरवाज़ा खोला। एक चिरपरिचित गंध धूल के साथ उसके पास से गुजरी। उसने पिता से कई बार कहा कि कहीं और मकान ले लें पर वो हर बार यही कहते कि इससे बेहतर और कम किराये पर घर कहीं भी नहीं मिलेगा। वह क्या कर सकती थी। सीधे अपने कमरे में जाने के बाद उसने पर्स से फ़ोन निकाला। नेट अभी भी ऑन था। ये क्या! उसकी खुशी का ठिकाना नहीं। ढेर सारे लाइक्स के साथ केविन का कमेण्ट भी! उसने अपनी तस्वीर को चूमा और नाचने लगी।
वह पूरे कमरे में उन्मुक्त हो कर घूम रही थी। उसका चेहरा सुर्ख़ लाल हो चुका था। तभी उसकी नज़र आईने पर पड़ी। वह रुक गयी। उसमें एक बदसूरत सा चेहरा था, निहायत बदसूरत। वह उसकी तरफ देख कर घूर रहा था। फ्लोरेंस डर गयी और कांपने लगी। उसे घबराते देख आईने का चेहरा ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। उसे उसकी सारी अच्छी तस्वीरें उससे दूर जाती दिख रही थीं, आईने के अंदर। पार्क, रेस्टोरेंट, मॉल, एयरपोर्ट और रोम वाली भी। वह ज़ोर से चीखी:
"बदसूरत आईने! मुझे नफ़रत है तुमसे।"
उसने आईने को उठाया और खिड़की से बाहर फेंक दिया।
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(20). सुश्री सुचिसंदीप अग्रवाल जी
"नयी आशा" लघुकथा
आशा हमेशा की तरह आज भी पूरी रात सिसकियाँ ले रही थी। तकिये पर सुबह तक आँसुओं के धब्बों को देखकर मुझे इसका अहसास हो जाता था।
पति का देर रात को शराब पीकर घर लौटना, नशे की हालत में रिश्तेदारों को फोन करके परेशान करना, मुँह से आती वो तेज दुर्गन्ध, और फिर बिस्तर पर ऐसे ढेर हो जाना मानो कोई निर्जीव....
आशा के जीने की कोई भी वजह अब शेष नहीं रह गयी थी, लेकिन प्रेरणा और प्रतीक के भविष्य के खातिर अपने वर्तमान के बोझ को ढो रही थी। पति का आचरण और मेरा आत्महत्या का निर्णय मेरे बच्चों का भविष्य उज्जवल होने से पहले ही अन्धकार में डूबा देगा। अभी तो प्रेरणा को अपने पावों पर खड़ा करना है ताकि पुरुष समाज उसे भी पाँव की जूती और भोग वस्तू न समझ कर मानसिक वेदना का शिकार न बना सके।
बुद्धि मरने के ताने बाने बुनती है लेकिन मैं जिन्दा हूँ क्योंकि विवेक अभी जिन्दा है।यह कहते हुए वो आँसुओं को पोंछती हुई मुस्करा कर अपनी दिनचर्या शुरू कर देती है एक नयी आशा के साथ।
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(21). श्री विनय कुमार सिंह जी
शुतुरमुर्ग
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सारे पैकेट संभाल कर उन्होंने कार में रखे और घर की तरफ चल पड़े| कल से बैंक बंद था, दीवाली की छुट्टी थी और रिश्तेदारों के साथ साथ पड़ोसियों को भी देने लायक मिठाईयाँ और तोहफे मिल गए थे| प्रसन्न मन से घर पहुंचकर उन्होंने सारे पैकेट निकाले और श्रीमतीजी को पकड़ाकर कपडे बदलने चले गए| टी वी के सामने कुर्सी पर आराम से लेटे तो जॉग्राफीक चैनल पर शुतुरमुर्ग के बारे में चल रहे प्रोग्राम को देखने लगे| बैंक के माहौल को देखकर आजकल उनका मन कभी कभी कचोटने लगता, फिर वो अपने आप को तसल्ली देते कि वह इसमें कहाँ शामिल हैं|
"आखिर उसी ऑफिस में तो काम कर रहे हो तो शामिल कैसे नहीं हो", मन में एक आवाज़ आयी|
"मेरा विभाग अलग है, अब ऋण विभाग वाले और प्रबंधक जो भी करें, मैंने तो कभी कुछ नहीं माँगा", उन्होंने मन को समझाया|
"मतलब आँख के सामने सब कुछ हो रहा है, छोटे छोटे दुकानदारों तक को पैसे देने पड़ते है ऋण लेने के लिए| और तुमको लगता है कि तुम्हारा कोई रोल नहीं है इसमें", मन ने फिर से समझाया|
"देखो, न तो मैं किसी भी कागज पर हस्ताक्षर करता हूँ और न ही किसी भी ऋण लेने वाले से कोई ताल्लुक रखता हूँ| अब मुझे इन चीजों के लिए क्यों दोष दे रहे हो", उन्होंने एक बार फिर मन को समझाया|
"हाँ, ताल्लुक तो सिर्फ उनके द्वारा दिए गए उपहारों से रखते हो| संस्था के प्रति भी कोई जिम्मेदारी होती है या वह भी बाकी लोग ही देखेंगे", मन ने इस बार कस के फटकारा|
"लीजिये चाय पीजिये, इस बार की काजू कतली तो बेहतरीन है, बाजार से तो खरीदने की हिम्मत नहीं थी इस बार", पत्नी ने चाय के साथ मिठाई रखते हुए कहा|
उनकी निगाह टी वी पर पड़ी, उन्होंने देखा कि शुतुरमुर्ग को शेर ने मार डाला|
"ये मिठाई ले जाओ यहाँ से", एकदम से उन्होंने पत्नी से कहा| पत्नी ने उनको अजीब सी नजर से देखा और मिठाई लेकर चली गयी|
उन्होंने अब शुतुरमुर्ग बने रहने का फैसला बदल दिया था|
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(22). श्री विजय जोशी जी
'पलायन'
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"माधुरी तुमने पिता जी का खाना भेज दिया?"
"हाँ ! बाबा हाँ ! .... रोज नियम से भेज देती हूँ।"
प्रति रविवार रमेश स्वयं ही टिफिन लेकर चला जाता। उस दिन बाप -बेटे पुश्तैनी मकान में घण्टों बातें करते और शाम को घर लौटते समय पिता जी रमेश को हमेशा की तरह टोकते "बेटा, बहू -बच्चों का ख्याल रखना। उनको वह हर ख़ुशी देना। जो मैं, तुम्हें न दे सका। तेरी पढ़ाई के बाद कुछ बचता ही नहीं था। पर तू तो अच्छी नौकरी में लग गया है ना!"
आज माधुरी की छोटी बहन -जीजा घर आये हुए, देखकर रमेश ने माधुरी को बिना कुछ बताये ही टिफिन सेंटर से खाना भर कर भिजवा दिया। संयोग से माधुरी ने भी खाना भिजवा दिया था। पिता जी की खुशियों का ठिकाना न था। आज रमेश प्रसन्नचित होकर घर पहुँचा, पिता जी भी घर की सीढ़ियां चढ़ ही रहे थे।
आअो पिता जी, आज माधूरी आपको देखकर बहुत खुश होगी।
जैसे ही बाप-बेटे घर में प्रवेश करने वाले थे, माधुरी की आवाज दोनों के कानों में पड़ी ।
माधुरी अपनी बहन से कह रही थी "रोज खाना भेजने की मेरी भी मजबूरी है। वरना बाबूजी यहाँ ही आ धमकेंगे|
मेरा जीवन एक माह में ही नरक बन जाये।
बड़े प्रयास से इस बंगले के कागजात रमेश ने अपने नाम करवाए है। इसलिए यह प्रयास रहता है कि खाना बन्द न हो।" बूढ़े पावँ देहरी पर बिना रखे ही वापस रिश्तों से बहुत दूर पलायन कर गए।
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(इस बार कोई भी रचना निरस्त नहीं की गई है, अत: यदि किसी साथी की रचना भूलवश संकलन में सम्मिलित होने से रह गई हो तो वे अविलम्ब सूचित करेंI)
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मोहतरम जनाब योगराज साहिब , ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्टी अंक --19 के त्वरित संकलन और बेहद कामयाब संचालन के लिए
मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ----
आपकी मुबारकबाद सर आँखों पर आ० तसदीक़ अहमद खान साहिब, हार्दिक आभारI
एक और सफल प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई आ योगराज सर, बस इस बार सर्वर ने थोड़ा रंग में भंग कर दिया| अपनी रचना पर आयी टिप्पणियों का जवाब नहीं दे पाने का खेद है लेकिन जब सबका दिल से आभार| आशा है अगली गोष्ठी और बेहतर और सार्थक होगी
इस बार सर्वर बार बार्दोवं हो रहा था, ऊपर से दिवाली का त्यौहार था तो मैं रचनायों पर स्वयं खुल कर बात नहीं कर पायाI आशा करता हूँ कि अगली गोष्ठी में हर कमी-बेशी पूरी करने का प्रयत्न होगाI
ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक - १९ के सफ़ल आयोजन, संकलन और त्वरित प्रकाशन हेतु आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी को अनंत शुभ कामनायें एवम बधाई।
हार्दिक आभार भाई उस्मानी जी.
आदरणीय योगराज जी सर, ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी-19 के सफलतापूर्वक संपन्न होने पर आप और सम्पूर्ण ओबीओ टीम बहुत-बहुत बधाई स्वीकार करें| सादर,
आप भी इस बधाई के पात्र हैं भाई डॉ चंद्रेश कुमार छ्तलानी जी.
हार्दिक आभार आ० सत्यनारायण सिंह जी.
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