आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय महेन्द्र भाई जी, सुन्दर शब्दों से सुसज्ित इस काव्यात्मक लघुकथा के परिमाण के बारे में गुणीजन कह ही चुके हैं। सुन्दर व कुछ कठिन शब्दों में लघुकथा की आत्मा उलझ सी गई प्रतीत होती है। इस संदर्भ में मैं पंजाबी के वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय तेजवंत मान साहिब की एक बात कहना चाहूंगा, मान साहिब कहते हैं कि कई बार कोई व्यक्ित आता है और किसी घटना के बारे में बहुत लंबी चौड़ी बात बताता है। तो हम एकदम से उसे कहते हैं कि 'अरे यार! असल बात बता क्या कहानीयां बताने बैठ गया है । ये 'असल बात' ही दर असल लघुकथा होती है। सादर
कर्ज मुक्ति--
"चलिए राजूभाई, सब सामान ले लिया है", चचा ने बड़ी वाली डेकची उठायी और बाहर निकल गए| राजू ने भी झोले उठाये और पीछे पीछे चल दिया| बाहर खड़ी ऑटो में बैठ कर दोनों मंदिर के बाहर जाकर रुके|
रोज रात को मंदिर के बाहर बैठे भिखारियों और कुछ अन्य भूखे लोगों को भर पेट खाना खिलाना, दोनों का नियम था| जैसे ही दोनों सामान लेकर पहुंचे, लोग कतार में बैठ गए और अपने अपने पत्तल में खाना लेने लगे| खाना देकर दोनों किनारे बैठ गए और लोगों को खाते देखने लगे|
चचा को याद आया, एक समय था जब उनके मोहल्ले में लोगों ने बहुत खरी खोटी सुनाई थी| सबसे ज्यादा दिक्कत उनको मंदिर के बाहर खाना खिलाने को लेकर थी, आखिर गैर मज़हबी होकर मंदिर के बाहर सेवा लोगों के गले नहीं उतरती थी| लेकिन उन्होंने कभी किसी की बात की परवाह नहीं की और इसी क्रम में उनको राजू मिला जिसको एक दिन उन्होंने यहीं खाना खिलाया था|
चचा इसी सोच में डूबे हुए थे कि उनको थोड़ी दूर से एक बुजुर्ग महिला आती दिखीं| चचा लपक कर उठे और एक थाली में जल्दी जल्दी खाना निकाल कर उनकी तरफ बढे| बड़े प्यार से उन्होंने उस महिला को बिठाकर खाना दिया और वहीँ बैठ गए| राजू उनके पास आया और बोला "अरे चचा, माताजी खाना खा लेंगीं, मैं हूँ यहीं, आप चलकर ऑटो में बैठो"|
चचा ने एक बार राजू को देखा और फिर खाना खाती बुजुर्ग महिला को देखा| फिर बहुत संतुष्टि भरी मुस्कराहट चहरे पर लाते हुए बोले "रहने दो राजूभाई, तुमको नहीं पता, इसी बहाने मैं इस मंदिर का कर्ज उतार रहा हूँ| इसी मंदिर के सामने मेरी माँ को किसी ने तब खाना खिलाया था, जब वो बेहद भूखी थीं"|
बुजुर्ग महिला खाना खा रही थीं, चचा उनको बेहद प्यार से देख रहे थे और आज राजू को भी इसका राज पता चल गया था|
मौलिक एवम अप्रकाशित
अंधी डगर के मुसाफिरों की धज्जियाँ उड़ा रही है यह लघुकथा, वाह वाह!! बेहद खूबसूरत लघुकथा हुई है भाई विनय कुमार सिंह जीI कथ्य सादगी भरा, शिल्प उत्तम तथा सदेश साफ़-शफ्फाक़ और प्रेरणादायकI इस उत्कृष्ट लघुकथा पर हार्दिक बधाई स्वीकार करेंI
बहुत बहुत आभार आ योगराज सर, आपकी टिपण्णी ने मनोबल बढ़ा दिया
बहुत बहुत आभार आ डॉ विजय शंकर जी इस उत्साहवर्धक टिपण्णी के लिए
बहुत बहुत आभार आ सतविंद्र कुमार जी
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