आदरणीय साथिओ,
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आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी, बहुत खूब. विषय को सिरे से पकड़ा और और एक ऐसा कथानक बुना जिसमें सन्देश भी है और सार्थक प्रश्न भी जो सोचने को विवश करता है. मेरे लिए यह एक सफल लघुकथा है. सधी शैली और झन्नाटेदार अंत. शान्ति का साहस और मां की पीड़ा को एक ही पंक्ति में समेटकर आपने मुग्ध कर दिया. शब्दों की कहीं भी फिजूलखर्ची नहीं. कोई अनावश्यक की भूमिका या गद्य वृतांत नहीं. सीधी बात सीधा सन्देश. बधाई बधाई बधाई. दिल से. सादर
"बेटे को मिर्गी का दौरा पद चूका है जिसकी अभी तीन साल और दवा चलेगी" अक्सर माँ-बाप अपने बच्चे की बीमारी छिपा लेते है | पर माँ ने साहस का परिचय दिया ताकि विवाह के बाद कही सम्बन्ध तोड़ने की नोबत न आ जावे | इस दृष्टी से सुंदर लघु कथा है आदरनीय अर्चना त्रिपाठी जी | बधाई स्विकारे
वाह, बहुत बढ़िया रचना विषय पर, बहुत बहुत बधाई आपको
नारी
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‘‘ दीदी ! मैं आपके दरवाजे पर घण्टी बजाने के पहले जो कुछ सुन पा रहा था क्या वह रोज ही होता है ?‘‘
‘‘ क्या हुआ? मुझे तो कुछ नहीं पता‘‘
‘‘ क्यों झूठ बोलती हो ? अभी अभी आपकी मदर- इन- ला आप पर कितना बरस रहीं थीं और आपने एक शब्द भी नहीं बोला?‘‘
‘‘ अरे, वह तो यों ही बोलती रहती हैं, उनका यही स्वभाव है, उन्हें जवाब देने का किसी में साहस नहीं ।‘‘
‘‘ तो तुम पिछले तीन साल से इस प्रकार की मानसिक प्रताड़ना झेल रही हो और हम लोगों को कभी नहीं बताया? जानती हो, यह घरेलू हिंसा कहलाती है और इस पर सरकार ने कड़े कानून बना रखे हैं? जीजा जी तो खुद पुलिस अफसर हैं इतना तो जानते ही होंगे?‘‘
‘‘ अवश्य जानते हैं, परन्तु वे इतने मातृभक्त हैं कि उनके कहने से एक पैर पर दिनभर खड़े रह सकते हैं ‘‘
‘‘ अच्छा, तो अब हमें ही कुछ उपाय करना पड़ेगा, आखिर चार भाइयों की इकलौती बहिन हो, तुम्हें इस प्रकार से गुलामों जैसी जिंदगी नहीं जीने देंगे, चलो आज ही मेरे साथ, मैं तुम्हें लेने ही आया हॅूं।‘‘
‘‘ नहीं भैया। तुम वकील हो, कानून जानते हो अतः तुम जो कह रहे हो वह उचित है। लेकिन मैंने अपने बाबा के पास बैठ कर मनोविज्ञान के कुछ सूत्र सीखे हैं जिनमें एक सूत्र यह है कि क्रोध को अक्रोध से जीता जा सकता है। मैं उसी का प्रयोग कर शाॅंत रहती हॅूं‘‘
‘‘ तुम सूत्र कहो या शस्त्र, तीन साल से तो इसको प्रयोग में ला ही रही हो और स्थिति ज्यों की त्यों है । अब तो भाइयों का एक ही अस्त्र आजमा कर देखो, चार दिन में ही सब सरेंडर हो जाऐंगे, आखिर हम किसी से कम हैं क्या?‘‘
‘‘ भैया ! यह बताओ, जो लोग मानसिक रूपसे बीमार होते हैं, उनको दवा देना चाहिए या सजा ?‘‘
‘‘ अरे ! तो उन्हें मनोचिकित्सालय में भरती क्यों नहीं करते ? मेरी बहिन ने ही उनकी गुलामी करने का ठेका ले रखा है ? चलो मेरे साथ, अब यहाॅं मैं एक पल भी तुम्हें नहीं रहने दूंगा।
‘‘ ठीक है, कब तक रहॅूंगी वहाॅं ? ‘‘
‘‘ आजीवन रहो, हमारे पास क्या कमी है ? ‘‘
‘‘ क्या तुमने इस धरती पर बिना पहिए का कोई वाहन चलते देखा है ? अथवा क्या बिना तार की वीणा बजते देखी है ?‘‘
‘‘नहीं‘‘
‘‘ तो बिना पति के नारी की कल्पना कैसे की जा सकती है ? तुम निश्चिन्त रहो मुझे कोई कष्ट नहीं है। ‘‘
-मौलिक और अप्रकाशित
विनम्र आभार आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी।
आदरणीय डॉक्टर सुकुलजी, आप ने बहुत सुंदर विषय उठाया है. बिना तार की वीणा देखी है ? से आप ने सुंदर तुलना की है. बधाई इस परंपरागत विषय के लिए.
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