आदरणीय साथिओ,
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शुक्रिया दीदी
बेहद सुन्दर लघुकथा है भाई सुधीर द्विवेदी जी, प्रदत्त विषय बहुत ही कुशलता से परिभाषित किया है, जिस हेतु आपको बहुत बहुत बधाईI लेकिन अभी इस लघुकथा में काट-छील की गुंजाईश बाकी हैI
1. //मामा -मामी माँ के लिये बनारसी साड़ी, और बाबा के लिए उनकी पसन्द का भागलपुरी सिल्क का कपड़ा लाए थे। माँ के लिए तो उनके भाई-भावज की आमद ही सब कुछ थी। पर रस्म निभाने के बाद वे वहां बैठी महिलाओं को उनके द्वारा लाई गई बनारसी साड़ी को इतराते हुए दिखाना नहीं भूलीं थीं। और बाबू जी! उन्हें कपड़े का रंग कम पसन्द था,पर माँ के आगे वे कुछ कह नहीं पा रहे थे। अनमने से अपनी आरामकुर्सी पर चाय सुड़कते वे कुछ बड़बड़ाते जा रहे थे।// नितांत अनावश्यक पंक्तियाँ, लघुकथा में इन्हें केवल माहौल सृजन के लिए रखा गया है, अन्यथा इनका कोई औचित्य मुझे नज़र नहीं आयाI
2. //घर का जर्रा-जर्रा भाभी-देवर की खिलखिलाहट के नूर से एक बार फ़िर से जगमगा उठा।// इसके बगैर भी लघुकथा सम्पूर्ण थीI
धन्यवाद सर ! सतत प्रयत्नशील हूँ इस ओर ! सादर
परिवार में आपसी स्नेह के छोटे छोटे लम्हों को समेट लेना ही सच्ची ख़ुशी है ...बहुत सुन्दर लघु कथा हार्दिक बधाई आपको आदरणीय सुधीर जी
हार्दिक बधाई आदरणीय सुधीर जी।आपने अच्छा विषय चुना।बहुत सुन्दर लघुकथा।
कमाल कमाल कमाल! लघुकथा का प्रवाह और सन्देश दोनों ने मुग्ध कर दिया. और सुखान्त का तो कहना ही क्या. आदरणीय सुधीर द्विवेदी जी, इस शानदार, संदेशप्रद, सफल लघुकथा के लिए दिल से बधाई लीजिये. सादर
देवर भाभी के रिश्ते को नया और साहसपूर्ण अर्थ देती सुंदर लघु कथा | हार्दिक बधाई श्री सुधीर द्विवेदी जी
वाह, वाह, बहुत खूबसूरत रचना विषय पर, एकदम अपने गांव का दृश्य आँखों के सामने नाच गया| बहुत बहुत बधाई आपको इस बढ़िया रचना के लिए
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