आदरणीय साथिओ,
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थोड़ी उलझी हुई सी लगी मुझे। दो-तीन बार पढनें पर कथ्य समझ आता है। हाँ! शीर्षक में एक्सपेरिमेंट अच्छा लगा।
आदरणीय उस्मानी भाई, मुझे आपकी लघुकथा अच्छी लगी। हालांकि लंबाई कुछ अधिक हो गई परन्तु सब कुछ प्रवाह में है। पूर्वदीप्ति शैली यानि, कथ्य को वर्तमान से तोड़कर अतीत के साथ जोड़ा और पाठय कथ्य के मुख्य अंश को वर्तमान में अनुभव करता हुआ भूतकाल की कथा का भी अनुभव कर रहा है, का बहुत निपुणता से इस्तेमाल किया है। कथाकथक (नैरेटर) पूरी कथा को बहुत अच्छे से कह रहा है और कहीं भी लेखकीय प्रवेश दिखाई नहीं दे रहा। लघुकथा में दादा, चाचा का घर पे रिएक्शन व दर्शकों और अध्यापकों का स्कूल में रिएक्शन बहुत कुछ कह रहा है। लघुकथा में निहित संदेश प्रदत्त विषय सेपूर्णत न्याय कर रहा है । हालांकि कुछ शब्दों में भी लघुकथा को कहा जा सकता था। लघुकथा का शीर्षक हैरान हामिद मुझे परेशान उस्मानी भाई लगा जो अक्सर शीर्षक को लेकर उलझ जाते हैं (क्षमा सहित :-)) इस लघुकथा हेतु मेरी ओर से बधाई स्वीकार करें ।
अगले ही दिन// इसके पहले दिन के बारे में कुछ बताये बिना ' ही ' का प्रयोग कुछ अटपटा लग रहा है I यहाँ पर 'उस दिन ' का प्रयोग ठीक रहता I आपकी कथा का कथ्य शानदार है पर बीच बीच में कहीं ट्रैक से भटक भी रही है , इसका थोडा सम्पादन कर आप और प्रभावशाली लघुकथा का रूप भी दे सकते हैं और विस्तार देकर एक कथा का भी I हार्दिक बधाई इस शानदार सृजन पर आदरणीय उस्मानी जी
1. आ. शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी, जहाँ तक मैं समझता हूँ आपकी लघुकथा यह कहना चाहती है कि जब एक मुस्लिम बालक राम का चरित्र निभाता है तो वह भले ही अभिनय में कितना ही कुशल क्यों न हो लोग उसकी उपेक्षा करते हैं. कारण सिर्फ इतना कि वह दूसरे धर्म का है. ऐसा होता है. हमारे समाज में बहुत से लोग ऐसे हैं (और ये सभी धर्मों में हैं) जो चीजों को इसी दृष्टिकोण से देखते हैं. पर इस बात को कहने के लिए आपने जिस बैकग्राउंड को लिया है वह मुझे सही नहीं लगा. भेदभाव की ये चीजें कमोबेश स्कूल में कम और कॉलेज व यूनिवर्सिटी में ज़्यादा देखने को मिलती हैं. ऐसा मेरा निजी तौर पर मानना है. इसीलिए लोगों द्वारा हामिद की उपेक्षा उभर कर नहीं आ पा रही. यह सब स्वाभाविक न लग कर अस्वाभाविक सा लग रहा है.
2. स्कूल में कार्यक्रम के दिन छुट्टी हो भी सकती है और नहीं भी लेकिन सामान्य परिस्थिति यही है कि ऐसे दिनों में छुट्टी होती है और अगर नहीं होती तो पढ़ाई तो फिर नहीं ही होती है. फिर यदि मान भी लिया जाए कि ऐसा हो सकता है तो इस बात से (दोबारा स्कूल ड्रेस पहन कर कक्षाओं में जाना) लघुकथा पर क्या प्रभाव पड़ता है?
3. आपने मुख्य पात्र के चरित्र को उभारने के लिए "दो दिन पहले से ही श्रीराम की फैंसी ड्रेस घर लाकर संवादों का रिहर्सल करना, दादा जी की नाराज़ घूरती निगाहें, चाचा के बच्चों को उस दिन स्कूल न भेजना, शिक्षकों की मदद के बिना उसका तैयार होना" जैसी चीजें डाली हैं. ये अच्छी बात है पर इस क्रम में विस्तार कुछ अधिक हो गया है. साथ ही, यदि ये बातें एक-दो संवादों के माध्यम से कही जातीं तो ज़्यादा प्रभावी होतीं.
4 शीर्षक पर एक बार पुनः विचार करें.
5 कुछ वाक्यों को देख लीजिएगा :
5.1 // स्वेच्छा से ज़िद// केवल "ज़िद" ही पर्याप्त है.
5.2 //अनपेक्षित बेहतरीन प्रस्तुति// "अनपेक्षित" की आवश्यकता नहीं है.
6. कथा का अन्त बहुत अच्छा और सकारात्मक है.
7. लघुकथा प्रदत्त विषय से पूर्णतः न्याय कर रही है.
मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
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