आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक बधाई आदरणीय प्रतिभा पांडे जी ।पत्र शैली में गोष्ठी की बेहतरीन लघुकथा।
हार्दिक आभार आदरणीय तेजवीर सिंह जी
हार्दिक आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी
मुह्तरमा प्रतिभा साहिबा , प्रदत्त विषय पर बहुत ही सुंदर लघुकथा
हुई है , मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ
हार्दिक आभार तस्दीक जी
आदरणीय प्रधान संपादक की टिप्पणी से अक्षाक्षर सहमत । मैं जो कहना चाहता था वह उन्होनें कह दिया। सादर
हार्दिक आभार आदरणीय रवि प्रभाकर जी
ॅूुफरिश्तेे
आज तक आपके सामने हमने अपनी जुबान नही खोली है इस बार भी मुझे माफ ही कर दें। आपकी आज्ञा मेरे सिर माथे पर। यह कहकर मुनीब ने अपना सिर उनके चरणों में झुका दिया। मुनीब ने जब सिर उठाया तो देखा कि उनकी आंखें आसंुओं से तरबतर थीं।
मुनीब को वह दिन याद आया जब वह इस शहर में पहली बार आया था। स्टेशन पर उतरने के बाद उसको यह नजर नहीं आ रहा था कि वह किधर का रूख करे। घर से चलते समय भी यह तय नहीं किया था कि कहां जाना है। मंजिल कहां है। स्टेशन पर उतर कर चारों तरफ देखते हुए देेख कर उन्होंने उससे पूछा था कि बे टेे कहा जाना हेै। इसका जवाब देते समय हुई देर से ही उन्हें यह ताड़ते देर नहीे लगी कि लड़का किसी उलझन में हेै। दयालुहृदय व्यक्ति का हृदय पसीजते देर नहीं लगी। उन्होंने उसका हाथ पकड़ लिया और बड़े प्यार से उससे बात की तथा उसे अपने साथ अपने घर लेकर आये। घर में यह घोषणा कर दी कि कल से मुनीब है यह हमारा दुकान का काम करेगा।
दूसरे दिन से आज तक मुनीब दुकान का काम देख रहा था। इस समय उसका संपर्क अपने परिवार से भी हो चुका था। घर वाले मुनीब की शादी तय कर चुके थे। शादी पर घर जाते समय धन की व्यवस्था को लेकर दोनों में वार्तालाप हो रहा था। मुनीब को यथोचित धनराशि व निर्देशों के साथ उन्होंने उसे घर विदा किया। इस आश्वासन के साथ कि यदि आवश्यकता हो तो उन्हेंे वह अधिक धनराशि हेतु निश्चिंत हो कर सूचित करेगा।
मुनीब अब रास्ते में था और सोच रहा था कि क्या फरिश्ते ऐसे ही होते है?
मौलिक व अप्रकाशित
प्रदत्त विषय को पूर्णतया उभारती सार्थक लघुकथा के लिए बधाई प्रेषित है आदरणीय
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