आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला जी । बेहतरीन लघुकथा।
वाह्ह्ह्ह वाह्ह आद० लक्ष्मण लडीवाला जी ,इशारों इशारों में बहुत कुछ कह दिया आपने .जय ओबीओ .
प्रदत्त विषय पर बढ़िया लघु कथा कही है \बहुत बहुत बधाई आपको |
वाह वाह हम सब के मन की बात लिख दी आपने हार्दिक बधाई आपको आदरणीय लक्ष्मण लडिवाला जी
वाह| सच में बहुत ही सुंदर लघुकथा हुई है, विषय भी अलग वाह! जय ओ बी ओ|
मुह्तरम लक्ष्मण लड़ीवाला साहिब , प्रदत्त विषय पर सुंदर लघुकथा हुई
है , मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ
ओबीओ जिन्दाबाद । प्रदत्त विषय को जिस जीवन्तता के साथ परिभाषित किया गया है वह सराहनीय है । आपकी लघुकथाओं की सदैव प्रतीक्षा रहती है आदरणीय लड़ीवाला जी । सादर
"अनावरण"-----
उनका जीवन तो खाना बनाने में ही बित गया था। चालीस वर्षो से सुबह शाम बस परिवार और कभी-कभी मेहमानों के लिए मनोयोग से भोजन बनाना। कहती थी भोजन की हांडी कुछ ही समय में खाली हो जाती है। पर पढे-लिखे लोग जो कागज़ पर लिख देते है वो नहीं मिटता। उन्हें अक्षर ज्ञान नहीं था पर समाचार पत्र के पन्ने हमेशा उलटती-पलटती घंटो बैठी रहती। कहती गाँव में कितनी ही महिलाएं है जिन्हें अपना हक नही मालूम, उनके लिए काम करना। वो खूद भी घर में दूध को दूध और पानी को पानी ही कहती और करती थी। बोलती थी नाहक पढी-लिखी बहू नही लाई ,तुम तो बस कलम चलाती रहो, मैं कलछी सम्हाल लूँगी। तुम्हें तो वकील बनना है। गाँव की महिलाओ को अपना हक दिलाना। उनकी बहुत इच्छा थी कि उनका इकलौता बेटा वकालात करे मगर उनका मन ....फिर हम शहर चले गये।
कुछ वर्ष वकालात सीखने और बच्चों की शिक्षा के बाद पुन: अपने घर लौट आए ..... वो एक रौ में बोलते चली जा रही थी और मैं बस नि:स्तब्ध सी उसको देखती रही थी । उसका पूरा का पूरा चेहरा आसूँओ से भीगा हुआ था।
"बहुत दिनों बाद मिली है हम दोनों सहेलियाँ आज,बहुत कुछ है कहने सुनने को हम दोनो के पास। मगर मैं तो बस अपनी ही ..."चेहरे को साड़ी के पल्ले से पोछते हुए उसने कहा।
मेरा ध्यान ड्राइंग रुम में सजी उस तेजस्वी मूर्ति के फोटो पर गया जो बरबस ही ध्यान खींच रही थी।
" सुन! ये तो वही है ना जिनकी मूर्ति का अनावरण कल न्यायालय परिसर में हुआ था।"
" सही पहचाना , यही मेरी सासू माँ हैं।"
"इस छोटे से गाँव में ब्याही तू! आज काले कोट मे देख तुझ पर गर्व होता है।" मैने कहा
" सच मे सखी! वे मुझे किसी दफ़्तर की कुर्सी पर बैठी देखना चाहती थी। "
बहुत कुछ था उसके पास कहने को .
उसके साथ साथ अब मेरी भी आँखें भर आई थी. मैं तो दूसरी बार उस अनावृत विशाल व्यक्तित्व के सागर में डूबकी लगा रही थी.
मौलिक व अप्रकाशित
अपने दिवंगत बेटे के सपने अपनी बहू के माध्यम से पूरे करवा कर एक सास ने जिस नेकी का परिचय दिया वह द्रवित कर देने वाला है. लघुकथा बहुत अच्छी हुई है और प्रदत्त विषय को संतुष्ट भी कर रही है जिस हेतु हार्दिक बधाई नयना ताई. बर्तनी की गलतियाँ चुभ रही हैं, उन्हें देख लीजियेगा.
प्रणाम भाई जी, आपने रचना को अनुमोदित कर दिया. दिली सुकून मिला. रचना का प्लाट तो ८-१० दिन पहले तैयार था .मगर टाईप करने का वक्त नहीं निकाल पा रही थी. आज जल्दी-जल्दी टाईप कर कथा पोस्ट की . वर्तनी की गलतियों को संपादन में ठीक करती हूँ.आभार आपका. इस बार दागो- भागो की स्थिती मेरी भी रही.क्षमा चाहती हूँ. वक्त ही कुछ ऐसा था. आभार आपका
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