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(1).आ० मोहम्मद आरिफ जी
मुआफी

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मेरी प्यारी सिमरन ,
सत श्री अकाल !
उम्मीद करता हूँ तुम खुश होगी । मैं भी ठीक हूँ । कंपनी की पाँच दिन की ट्रेनिंग के लिए पटियाला में हूँ ।
सच कहूँ , मैं बेचैनी की आग में दिन-रात झुलस रहा हूँ । लेकिन अब ऐसा नहीं चाहता । अपनी ज़िद्द के आगे तेरी नहीं चलने दी और मोटी फीस देकर तेरे पेट में पलने वाले का पता लगवाया । पता चला कि वह बेटी है और थोड़ी विकृत भी । फिर मैं उसे पेट में ही खत्म करवाने पर आमादा हो गया । लेकिन तुम अडिग थी जन्म देने को । मेरे अंतर्मन ने फिर इजाज़त नहीं दी । मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया । मैं बहुत बड़ा पाप करने जा रहा था । एक औरत पर उस वक़्त क्या गुज़रती है वही जानती है । औरत की कोमलता के आगे पुरूष की कठोरता हार गई । तुम बेटी को जन्म दोगी । जो भी होगा देखा जाएगा । वाहे गुरू सब ठीक करेंगे । " सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते" बस यही सोचकर मुझे मुआफ कर दो ।
सदा तुम्हारा
लखविंर सिंह सलूजा
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(2). आ० सविता मिश्रा जी
मन का बोझ-

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अस्पताल के कॉरिडोर में स्ट्रेचर पर पड़ा कराह रहा था विवेक। डॉक्टरों और नर्सों के बीच एक अजनबी व्यक्ति फुटबॉल बना हुआ था। बड़ी मुश्किल से कागजी कार्यवाही करने के बाद आपरेशन थियेटर के अंदर विवेक को ले जाया गया | ऑपरेशन हो खत्म हो चुका था। अजनबी अपना दो बोतल खून भी दे चुका था।
बदहवास माता-पिता वार्ड में दाखिल हुए |  देखते ही माँ तो बेहोश हो गयी | अजनबी पानी लेने बाहर चला गया | विवेक के माथे पर अपने काँपते हाथ फेरते हुए पिता ने कहा- "कैसे हुआ? मुझे लगा तू दोस्त के यहाँ देर रात हो जाने से रुक गया होगा।"
"चहलकदमी करती हुई तेरी माँ चिल्ला रही थी कि जन्मदिन इतनी देर तक मनाता है कोई भला । शाम को तेरा फोन भी बंद आ रहा था!!"
"पापा मैं तो रात...नौ बजे ही ..आहs..मुकेश के घर से चल दिया था..उह.. अह..लेकिन रास्ते में...!"
"तू आराम कर! बाद में पूछताछ कर लेना, मेरे बच्चे को ..!" फिर बेहोश सी हो गयी |
"एक सहृदय भले आदमी की नजर...उहs मुझपर सुबह गयी तो वह मुझे आह..अस्पताल ले आये।... रातभर लोगों से भीख मांगकर ऊहंss निराश हो गया था मैं तो..।"
सहृदय शब्द अंदर आते हुए मददगार के कानों में पड़ा तो वह बिलबिला पड़ा। जैसे उसका सूखा हुआ घाव कोई चाकू से कुरेद दिया हो।
बुदबुदाया चार साल पहले मेरी सहृदयता कहाँ खोई थी। दूर खड़ी भीड़ की आती आवाजें- चीखें अनसुनी करके निकल गया था ड्यूटी पर अपने। दो घण्टे बाद ही फोन पर तूफान की खबर मिली थी।" सहसा अपने सिर को झटक वर्तमान में लौटकर अजनबी बोला- "बेटा, मैं सहृदय व्यक्ति नहीं हूँ, बनने का ढोंग कर रहा हूँ। होता तो मेरा बेटा जिंदा होता।" चुप होते ही आँसू अपने आप ढुलक गए, जिसे अजनबी ने रोकने की कोई कोशिश नहीं की।
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(3). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
'बॉस-मति चाय'

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"सुस्वागतम आदरणीय! बधाई हो! सुनाओ क्या हुआ, जब यू मेट बॉस? कैसी रही चाय?" स्टाफ-रूम में वापस पहुंचते ही एक साथी शिक्षक ने दांत निपोरते हुए वर्मा जी से पूछा।
"हां, हां बताओ मासाब, कैसी रही 'चाय पर चर्चा'? खन्ना जैसी या शर्मा वाली?" पूर्वाग्रहों से ग्रस्त दूसरे साथी ने पूछा।
"मिशन दोस्ती, क़हर-ए-सोशल मीडिया या किक-आउट हुआ? तेरा क्या मामला है?" तीसरे ने वर्मा जी के कंधे पर हाथ डाल कर कहा - " कुछ भी हुआ हो, बताने से पहले तुम पचास का नोट निकालो, अब हम भी तो चाय मंगवा लें! होटल वाली ही सही!"
"मुझे भी तो होटल वाली ही मिली होटल के कप में!" वर्मा जी ने सिर झुकाए हुए कहा।
"तेरा लेवल भी यही है! कित्ती दफ़ा कहा कि जहां की खाते हो, वहां की बजाया करो! आदर्शवाद छोड़ो; क़िताबी नहीं, इस ज़माने वाला प्रेक्टीकल कर्मचारी बनो खन्ना या शर्मा जैसा या फिर हमारी टीम जैसा; लेकिन तू है कि मानता नहीं!" पहले सहकर्मी ने कहा।
"वैसे हुआ क्या? बॉस के घर की थर्मस वाली स्पेशल संचारी चाय नहीं मिली, तो क्या हुआ? बॉस के मन की बात सुनी या तुम ने अपनी ही सुना दी?" दूसरे साथी ने आंख मारते हुए कहा - "सुना है कि तूने बॉस की किसी फोटो पर ज़बरदस्त टिप्पणी कर दी थी!"
"नहीं, उस कमेंट पर तो कोई बात नहीं हुई। मेरी वह टिप्पणी तो बढ़िया काव्य शैली में थी सोशल साइट पर।" वर्मा जी उनके लिए लगाई गई विशेष कुर्सी पर बैठते हुए बोले।
"तो फिर ऐसी क्या बात थी कि बॉस का मूड ख़राब हुआ?"
"मति भ्रष्ट हुई है उनकी या की गई है! कह रहीं थीं कि हमारी संस्था को आप नुकसान पहुंचा रहे हैं। सत्ताधारी पार्टी के बारे में लिखते हो, तो सोच-समझ कर लिखो! स्टूडेंट्स भी अॉनलाइन रहते हैं, सोशल मीडिया पर सब कुछ पता चल जाता है उन्हें! आजकल बच्चे भी सत्ताधारी पार्टी के रंग में रंगे हुए हैं; आपके कमेंट पढ़ कर आपके बारे में जाने क्या-बातें करते हैं स्कूल में!" वर्मा जी ने बुरा सा मुंह बनाते हुए बताया।
"तो क्या मिल गई लास्ट वार्निंग चाय पिलाकर? कित्ती दफ़ा कहा है कि बॉस को और अपने स्कूल के छात्रों को अन्फ्रेंड कर दो सोशल साइट्स पर!"
"वैसी कोई बात नहीं है भाई!" वर्मा जी ने स्पष्ट करते हुए कहा- "कोई अपने स्कूल को रॉयल कहता है, तो कोई अपनी बॉस को! लेकिन आज पता चला कि सब पुरानी जंज़ीरों, संकीर्ण मानसिकता या सत्ता की राजनीति में ही जकड़े हुए हैं; सत्ता देश की हो या स्कूल प्रशासन की!"
"...'देर आयद, दुरस्त आयद'! बॉस के इशारे और ' सत्ताधारी पार्टी ' के दोनों मतलब अब समझ में आ गए न तुम्हें साहित्यकार महोदय जी! अब अपनी बॉस जैसी किसी रईस जवां विधवा से कॉन्टेक्ट्स के मतलब भी समझ लो, तो बेहतर; संपर्क आभासी हों या रूबरू!" तीसरे साथी ने वर्मा जी के नज़दीक़ आ कर धीमे स्वर में कहा - "क्या ज़रूरत थी सोशल मीडिया पर सरकारी मुद्दों पर कटाक्ष करने की... तलाक़शुदा और विधवा महिला विमर्श करने की?"
"तुम लोग अपनी हद तक सही हो सकते हो। यहां कर्मचारी होते हुए मुझे अपना लेवल ध्यान में रखकर अपनी औक़ात में ही रहना चाहिए था! आज ही सोशल साइट्स पर उन सब को अन्फ्रेंड कर दूंगा। मुझे यह स्कूल भी बहुत पहले ही छोड़ देना चाहिए था।" यह कह कर वर्मा जी ने 'सेवा-मुक्ति पत्र' साथियों को दिखाया और उनसे विदा लेते हुए कहा - "मैं अपनी हद में हूं, लेकिन अफ़सोस है कि इस सदी में भी युवा तलाक़शुदा और युवा विधवा के बारे में लोगों की सोच उसी हद में है, जहां थी!"
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(4). आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी
वही बीवी

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''भाई शादी करनी है तो किसी ने किसी लड़की के लिए हां करनी पड़ेगी,'' मोहन ने समझाया तो केवल बोला, '' मगर, उस की उम्र 19 वर्ष है और मेरी 45 वर्ष. फिर उस के पिताजी गहने के साथसाथ 3 लाख की एफडी मांग रहे हैं. हमारी जोड़ी नहीं जमेगी ?''
'' और, उस दूसरी वाली में क्या कमी है ? उस से हां कर दो ?''
'' वह पति द्वारा छोड़ी हुई चालाक महिला है. फिर, उस के पिताजी को बहुत ज्यादा माल चाहिए. वह मैं  नहीं दे सकता हूं.''
'' तब इस कम उम्र लड़की से शादी कर लो ? इस में क्या बुराई है ? पिताजी गरीब और सीधेसादे है. वे जानते है कि तुम शिक्षक हो,  इसलिए उन्हों ने शादी के लिए हां की है. अन्यथा तुम जैसे उम्रदराज से वे शादी करने को राजी नहीं होते .''
'' नहीं भाई ! हमारे बीच उम्र आड़े आ जाएगी. मैं घर पर अपना काम निपटा रहा होऊंगा और वह पड़ोस में ताकझांक कर रही होगी. मेरे शरीर और उस का शरीर को देखो. हमारा मेल संभव नहीं है.''
'' यदि तुम्हें शादी करनी है तो कहीं न कहीं समझौता करना ही पड़ेगा ?'' मोहन ने कहा तो केवल ने मोटरसाइकल दूसरी ओर मोड़ दी.
'' अरे भाई ! अब किधर चल दिए ?  घर चलो. वैसे भी घुमतेघुमते बहुत देर हो गई है,'' मोहन ने केवल का कंधा पकड़ कर कहा.
'' जब समझौता ही करना है तो मेरी पुरानी बीवी कौनसी बुरी है ! वह इस से कम में तो वही मान जाएगी,'' कहते हुए उस ने मोटरसाइकल की गति तेज कर दी.
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(5). आ० तस्दीक अहमद खान जी
फ़र्ज़
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साहिल को यह पता न था कि उर्स के दौरान जिस दरगाह पर भीड़ में वो बम विस्फोट करने आया है वहाँ उसके माँ बाप भी मौजूद होंगे| मज़ार के पास जा कर उसने देखा कि उसके माँ बाप हाथ फैला कर रो ते हुए दुआ कर रहे थे:
"बाबा एसा करिश्मा करदो कि मेरा बेटा घर वापस आ जाए , जिसे आतंकबादी उठा कर ले गये हैं "
यह सुनते ही साहिल की आँखों में आँसू आ गये ,वो अपने साथी सईद के पास जा कर कहने लगा:
"मैं यहाँ बम विस्फोट नहीं कर सकता?"
सईद ने जवाब में कहा ,"अगर एसा नहीं करोगे तो चीफ़ तुम्हारे घर वालों को ख़त्म करवा देगा "
साहिल यह सुन कर सोच में पड़ गया, वो वापस मज़ार की तरफ गया वहाँ मौजूद एक सैनिक ऑफीसर से उसने कुछ बात की ,और देखते ही देखते मज़ार को सैनिकों ने अपने घेरे में ले लिया | सईद को गिरफ्तार कर लिया गया, अचानक भीड़ में मची अफ़रा तफ़री को देख कर सैनिक ऑफीसर ने फ़ौरन सब से कहा:
"घबराने की कोई बात नहीं , इस नौ जवान की वजह से एक बड़ा हादसा टल गया "
लोगों ने पूछा यह कौन है ," सैनिक बोला ,यह आतंकवादी है लकिन इसने आत्म समपर्ण कर दिया है "
साहिल के माँ बाप की जब उस पर नज़र पड़ती है तो वो पास जाकर मज़ार की तरफ देख कर रोते हुए उसे गले लगा लेते हैं
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(6). आ० बरखा शुक्ला जी
‘संस्कार ‘
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मिश्रा जी का बेटा उनसे बोला ,”पिताजी आप लोग यहाँ आ गए हमें बताया भी नहीं , वो तो गाँव के शर्मा चाचा के डॉक्टर बेटे से पता चला । “
मिश्रा जी बोले “बेटा हमने तो तुम्हें कितनी बार फ़ोन पर बताया तुम्हारी माँ के घुटनो में बहुत तकलीफ़ है , तुमने बाद में फ़ोन ही उठाना बंद कर दिया । “
“वो मैं बहुत व्यस्त हो गया था ।”बेटा बोला ।
“वो तो शर्मा जी का बेटा गाँव आया था ,तो तुम्हारी माँ की तकलीफ़ देख यहाँ ले आया ,अच्छे से ऑपरेशन भी हो गया । “मिश्रा जी बोले।
“और ये फ़्लैट “बहू ने पूछा । बेटे ने उसे ग़ुस्से से घूरा ।
“ये वन बेडरूम का फ़्लैट तो हमने ख़रीद लिया बहू “मिश्रा जी मुस्कुरा के बोले ।
“इतने पैसे कहाँ से आए “, बहू ने फिर से पूछा ।
“तुम चुप नहीं रह सकती “बेटा उसे डपट कर बोला।
“अरे नहीं पूछने दो बेटा , बहू हमारी जो ज़मीन थी ,वो बेच दी ,सड़क के पास होने से अच्छी रक़म मिल गयी ।वहाँ के घर के भी अच्छे दाम मिल गए , बुढ़ापे में हारी बीमारी चलती रहती है ,तो अब यही रहेंगे । “मिश्रा जी बोले । तभी नौकरानी नाश्ता रख गयी ।
“बहू ये गाँव की नौकरानी साथ आ गयी, हम लोगों का सब काम कर देती है । और मुझ मास्टर की पेंशन व घर ख़रीदने के बाद बचे रुपए की एफ डी के व्याज से आराम से घर चल जाता है ।”मिश्रा जी ने बताया ।
“पिताजी आप हमें माफ़ कर दे , आप ही तो कहते है ,सुबह का भूला शाम को वापस आए तो उसे भूला नहीं कहते ।”बेटा बोला ।
“बेटा तुमने तो लौटने में रात कर ली , पर तुम्हारी भी ग़लती नहीं है ,शायद हमारे ही संस्कार में कोई कमी रह गयी होगी । “मिश्रा जी बोले ।
बेटा बहू दोनो की नज़रें झुक गयी।
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(7). आ० वसुधा गाडगिल जी
आदतें

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दामिनी ससुराल से नाराज़ होकर मायके आई थी।उसकी भाभी ने उसे समझाते हुए कहा
"देखो दामिनी, पति-पत्नी की नोंंक-झोंक रिश्तों में नमकीन-मिठास भरा स्वाद देती है।आपस में लड़ाई तो होती है पर इसका मतलब यह नही कि तुम..."
" नहीं भाभी, वहाँ उनके साथ उनकी माँ मी मुझ पर इल्ज़ाम लगाने से नही चूकती।"उन दोनों में यह बात चल ही रही थी कि दामिनी की सास वहाँ आ पहुँची।
" चलो बेटी,  पति को ,अपने घर को यूं छोड़कर आना ठीक नहीं।"
"नही,मैं नहीं आऊंगी।मेरे थियेटर के शौक को आप लोग समझते नही।"
" थियेटर,उसका माहौल हम भी समझते हैं ।"
" वहाँ ऐसी पिछडी सोच नही रहती।"दामिनी ने तुनककर कहा।
" हमने तुम्हें रोका नही है,बेशक तुम अभिनय का शौक जारी रखो,लेकिन ज़रा ये तस्वीरें देखो!"कहते हुए उन्होंने दामिनी के सामने मोबाईल में सेव की हुई तस्वीरें दिखाई।
" यें... यें तस्वीरें मेरी नही।आप लोग मुझे..।"
" दिल से बेटी माना है तुम्हें...ऐसी तस्वीरें देखकर सिर्फ माँ ही अपनी बेटी को  घर में रख सकती है ,कोई और नही..."
तस्वीरें देखकर दामिनी के होश फ़ाक्ता हो गये। भाभी को असलियत का पता लगते ही वह भी नाराज़ हो गई।
दामिनी की सासुमाँ संयत थी।धीरे से बोली
" तुम मोबाइल पटक कर आयी थी नं! सचिन हमेशा तुम्हारे व्यवहार की शिकायत करता था।मैं विश्वास नहीं करती थी।इन तस्वीरों को तुम झुठला नही सकती।" उन्होंने उसके सिर से हाथ फेरते हुए कहा
" सम्हल जाओ ...अभी भी वक्त़ है।ऐसे में किसी गिद्ध का शिकार बनने में देर नही लगेगी।तुम्हें इतना प्यार लुटाने वाला पति मिला है ।नाम, इज़्ज़त की कदर करो बिटिया ....एक बात कहूं !आदतें सुधरती भी हैं !"सास द्वारा दी जा रही समझाईश सुन दामिनी उनसे लिपटकर फफक पड़ी।
" मुझे माफ़ कर दो माँ..... मेरी आदतें मुझे नर्क के रास्ते पर ले जा रही थी।आपने मुझे स्वर्ग की पहचान करवा दी।" फिर भाभी की ओर क्षमा-याचना भरी दृष्टि से देखते हुए सास के साथ चल पड़ी स्वर्ग सी सुंदर दुनियां की ओर ।
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(8). आ०  सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी
"अग्नि-परीक्षा"


पुराने बरगद के पेड़ के नीचे आज लगभग पूरा गाँव जमा हो चुका था। बड़े से चबूतरे पर गाँव के मुखिया पंचों के बीच बैठे थे और उनके ठीक सामने सुशीला खड़ी थी।
मुखिया जी ने बोलना शुरू किया
"आज की पंचायत सुशीला को लेकर बुलाई गई है, जिसको कुछ कहना है, आकर सामने कहे"
भीड़ से निकलकर विजय बोलना शुरू किया।
"पंचों! यह औरत एक डायन है। उस दिन मेरा लड़का खेलते खेलते इसके घर गया था, उसी शाम को उसकी हालत इतनी बिगड़ी कि हम डॉक्टर को भी न दिखा सके। अगर यह औरत जिंदा रही तो गाँव मे एक भी बच्चा जीवित नहीं बचेगा।"
"यह चुड़ैल है, काला जादू जानती है। करम जली अपना तो सब कुछ खा गई, अब सबके बच्चों पर नजर गड़ाई है। भरी जवानी में पति खा गई, जन्मते ही खुद का बच्चा भी....। मौत भी नहीं आती इसको"। बगल में खड़ी उसकी पत्नी भी चीखती हुई बोली।
"यह बात सही नहीं है। मैं डायन नहीं हूँ। मेरे पति जहरीली दारू की वजह से मरे थे न कि किसी काले जादू से । और गाँव के दूसरे लोग भी मरे थे। क्या उन सभी की औरतें डायन हैं?" सुबकती हुई सुशीला बोल पड़ी।
"अच्छा तो तेरा बच्चा, उसको तो तू पैदा करते ही खा गई" पास खड़ी औरत उलाहना देती हुई बोली।
"वह मेरी बदकिस्मती थी बहन हॉस्पिटल में नर्सों ने मुझे बताया कि मेरा बच्चा मृत पैदा हुआ था। पर मेरा दिल कहता है कि मेरे साथ धोखा हुआ है।" सुशीला सफाई देती हुई बोली।
भारी कोलाहल के बीच सुशीला पर चारो तरफ से व्यंग बाणों की बरसात हो रही थी। कोई उसे जिंदा जला देने तो कोई धक्के मार कर गाँव से बाहर फेंक देने की बात कह रहा था।
एक कोने में चुपचाप बैठा शिवमंगल अचानक चिल्लाते हुए बोल पड़ा-
"आज मुझे भी कुछ कहना है"
शोर अचानक थम सा गया। लोग उसके तरफ विस्मित होकर देखने लगे
शिवमंगल मुखिया की तरफ मुख़ातिब होते हुए बोल पड़ा-
"बहुत दिन से आत्म ग्लानि से जल रहा हूँ। शायद आज की स्वीकारोक्ति से मन को कुछ शांति मिले।"
"जो कहना चाहते है, कहिये" उधर से आवाज आई।
"आज से 4 साल पहले सुशीला और मेरी पत्नी की डिलिवरी एक ही हॉस्पिटल में हुई था। दुर्भाग्य से मेरा बच्चा मृत पैदा हुआ था पर मैंने नर्सों को प्रलोभन देकर अपना मृत बच्चा सुशीला के जीवित बच्चे से बदल दिया था।"
सुशीला की धड़कनें बहुत बढ़ गयी थी। उसने निगाहे शिवमंगल के बेटे को खोजने लगीं।
शिवमंगल हाथ जोड़े हुए आगे बोला-
"उस दिन मैं विवश था क्योकि पत्नी दिल की मरीज है और यह सदमा शायद बर्दास्त न कर पाती।
चारो तरफ कानाफूसी होने लगी, जितने मुँह उतनी बातें। इस बीच मुखिया जी खड़े हुए।
"शिवमंगल आपने जो किया गलत किया। आप के वजह से सुशीला को इतना कुछ सहन करना पड़ा। आप सुशीला के गुनाहगार हैं। आपको माफ करने का हक सिर्फ सुशीला को है।"
सुशीला आँखों में आँसू लिए बोली- "भैया आप से मुझे कोई शिकायत नहीं क्योकि अपना बच्चा खाने का कलंक तो कम से कम मेरे सिर से हट गया। वैसे भी यहाँ हर बार नारी को ही अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। पंचायत का भी हर फैसला सिर माथे पर"
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(9). आ० तेजवीर सिंह जी
तालीम

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मुनिया अपने घर की देहरी पर बैठी  गोटियाँ खेल रही थी। उसकी सहेली लीला स्कूल से लौट रही थी, मुनिया के घर के आगे से गुजरी तो मुनिया से पूछ लिया,
"क्यों री मुनिया, आजकल तू स्कूल क्यों नहीं आती"?
"अम्मा ने मना कर दिया"।
"और खेलने भी नहीं आती"?
"उसके लिये भी नहीं जाने देती अम्मा"।
"पर इसका कोई कारण तो होगा"?
"मुझे तो कुछ भी नहीं पता"।
"तेरे बापू ने कुछ नहीं कहा"?
"बापू और अम्मा में  आज खूब झगड़ा हुआ,इसी बात पर"।
"फ़िर नतीज़ा क्या निकला"?
"अम्मा अपनी ज़िद पर अड़ी रही, बोलती है मैंने अपनी आँखों से देखा था, स्कूल का चपरासी मेरी छोरी से खाने की छुट्टी में छेड़छाड़ कर रहा था| वह तो किस्मत से मैं मौके पर पहुंच गयी, छोरी का रोटी का डब्बा देने| मुझे मेरी छोरी की ज़िंदगी बरबाद ना करनी"।
"फ़िर"?
"बापू ने समझाया,” ना पढ़ेगी तो भी तो ज़िंदगी बरबाद ही होनी है"।
"वह कैसे"?अम्मा बोली|
बापू बोला , "भाग्यवान, तू जो सोचकर बैठी है, ऐसे हादसे तो घर पर भी हो सकते हैं।क्योंकि हम दोनों काम पर चले जाते हैं और छोरी घर पर अकेली होती है"।
अम्मा ने फिर  पूछा,"तो अब इसका क्या तोड़ है, आप ही बताओ"?
बापू कहने लगा,"देख मेरी बात मान, अभी भी देर ना हुई, उसे स्कूल जाने दे।छोरी पढ़ जायेगी तो अपना बचाव करना खुद ही सीख जायेगी"।
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(10). आ० मेघा राठी जी
सुबह का भुला


" खट- खट" , रात के सन्नाटे को तोड़ती हुई ये आवाज जैसे ही दुलारी के कानों में पड़ी वो चौंक कर नींद से जाग गई।गठिये से जकड़े अपने घुटनों को सीधा करते हुए एक आह निकल गई उसके मुंह से । पास में रखी लाठी को अपने हाथों में जकड़ कर वो सोच ही रही थी कि इस वक्त कौन हो सकता है।उसके दोनों बेटे अपने बीवी बच्चों के साथ शादी में गए थे,मगर दुलारी कहीं नही जाती थी। इतने में फिर दरवाजा खटखटाने आवाज आई।
" कौन है?" , कहती हुई दुलारी धीरे धीरे चलती हुई दरवाजे तक गई।उसने दरवाजे को थोड़ा सा खोल कर बाहर झांका। सड़क पर लगे खम्बे के बल्ब की पीली रोशनी में इतने साल बाद भी उसने उसे पहचान लिया।
"तुम!", दुलारी के मुँह से घुटी - घुटी सी चीख निकली। " अब क्यों आये हो यहां?"
" माफ कर दो दुलारी। उसने मेरा सब कुछ छीन लिया। अब जब मैं बूढ़ा हो गया , बीमार रहने लगा और उसे देने के लिए कुछ नही बचा तो वो मुझे छोड़कर चली गई।", वो यानि सोहन सिर झुकाए खड़ा था।
विस्फारित सी उसे देखती दुलारी की आंखों में वो दृश्य कौंध गया जब वो अपने बच्चों के साथ उसे बिलखती हुई उसको रोक रही थी मगर वो उसे शहर के स्टेटस में मिसफिट कह कर अपनी प्रेमिका के पास चला गया था।
तबसे हर रात पास में लाठी ओर दिन भर की मेहनत ने ही उसके जीवन को सहारा दिया था।
" बोलो दुलारी, माफ कर दोगी न मुझे? वैसे भी सुबह का भुला अगर शाम को घर आ जाये तो उसको भुला नही कहते हैं।", आशा से दुलारी को देखते सोहन ने कहा।
" हाँ, सही कहते है मगर अब शाम नहीं रात हो चुकी है", कहती हुई दुलारी ने सोहन के मुँह पर दरवाजा बंद कर दिया।
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(11). आ० मनन कुमार सिंह जी
रिटायरमेंट

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अपने रिटायरमेन्ट के पहले पाठक जी के द्वारा दी जा रही डिनर पार्टी में विभाग के इक्के-दुक्के लोग ही नहीं आये हैं।वैसे भी बारह-चौदह लोगों का विभाग ठहरा।लाल बाबू आयेंगे कि नहीं, यह चर्चा का विषय है,क्योंकि दोनों लोग साथ-साथ काम तो करते हैं,लेकिन लाल बाबू पाठकजी के ढुलमुल व्यवहार से खिन्न रहते हैं।हाँ,उनकी(पाठक जी) योग्यता ,कर्मठता के लाल बाबू कायल जरूर रहे हैं।
‎..आयेंगे नहीं ,मुझे पक्का भरोसा है,'गंगू बोला।
‎-जरूर आयेंगे रे गंगुआ।पता है,दोनों लंगोटिया यार हैं,' लाखन गुर्राया।
‎-चल बाजी लगा ले,सौ-पचास की।
‎-पक्की रही ,सौ की।
‎-ठीक है।
‎समय गुजरता जा रहा है।पाठक जी निराश होने लगे हैं। तभी कलुआ चपरासी दौड़ता हुआ आता है।पाठक जी की आँखों में चमक आ गई।वे समझ गए।
‎लाल बाबू हॉल में प्रवेश कर रहे थे।दोनों गले मिले।लगा चिर-विछोह के बाद मिले हों।साथ-साथ काम करते हुए भी वे इतने दूर हो गए थे।
‎---लग रहा है....,' पाठक जी बोले।
‎--कि सुबह के भूले मिल रहे हों जैसे।',लाल बाबू के मुँह से अनायास निकल गया।
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(12). आ० महेंद्र कुमार जी
द रेप ऑफ़ द मदरलैण्ड

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ज़मीन पर गिराने के बाद एक ने उस महिला का हाथ पकड़ा, दूसरे ने पैर और तीसरे ने मुँह। चौथा आदमी उस्तरे से उस महिला के सर के बाल छीलने लगा।
"ये कौन लोग हैं?" विदेशी टूरिस्ट ने अपने गाइड से पूछा। "इस महिला के बेटे।"
"बेटे!" टूरिस्ट चौंका, "कोई अपनी ही माँ के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करेगा?"
"पैसा साहब, पैसा! इस महिला के बाल बहुत कीमती हैं।" गाइड ने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा।
महिला के सर के पूरे बाल अब उस आदमी के हाथ में थे। उसने अपने साथियों की तरफ़ देखा। सभी की आँखें चमक उठीं। चारों ने अपने सूट में लगी हुई धूल को झाड़ा और देखते ही देखते वहाँ से गायब हो गये।
गाइड ने हतप्रभ खड़े टूरिस्ट की तरफ़ देख कर मुस्कुराते हुए कहा, "जब इसके बाल बढ़ जाएँगे तो ये लोग फिर आयेंगे।"
टूरिस्ट ने अपने को संभाला और पूछा, "ये सब कब से चल रहा है?"
"जब से आपके पुरखे यहाँ से गए हैं।" गाइड ने अपनी टोपी सीधी करते हुए कहा।
इससे पहले कि वह कुछ और कह पाता अचानक ही वहाँ उस महिला के दूसरे बेटे आये और उसके कपड़े नोचने लगे। किसी के हाथ में कुछ आया तो किसी के कुछ। उन्होंने एक-दूसरे को देखा और आपस में भिड़ गए। छीना-झपटी में जिसके हाथ जो लगा वो वही ले कर वहाँ से भाग गया।
गाइड ने आगे कहना शुरु किया, "आपके पुरखों से अपनी माँ को आज़ाद कराने के बाद एक दिन सुबह इसके बेटे यह कह कर निकले कि वो अपनी माँ के लिए अच्छी सी साड़ी और सुन्दर सी चूड़ियाँ लेने जा रहे हैं। लेकिन पता नहीं ये कौन से बाज़ार में गए कि जहाँ जा कर अपनी माँ को ही भूल बैठे। न जाने क्यों इस बेचारी को अभी भी यह उम्मीद है कि इसके बेटे लौटेंगे।"
टूरिस्ट की आँखें चौड़ी हो गयीं। उसने अपना कैमरा निकाला और कहा, "मुझे इसकी तस्वीर खींचनी चाहिए। अच्छे दाम मिलेंगे।" गाइड ने अवसर देखकर नाड़ा उठाया और अपनी जेब में रख लिया जो छीना-झपटी में वहीं ज़मीन पर गिर गया था।
थोड़ी ही देर में वहाँ फिर से चहल-पहल हो गयी। "अब चलें?" गाइड ने टूरिस्ट से कहा और उसे ले कर वहाँ से चला गया।
महिला वैसे ही निर्वस्त्र पड़ी थी। कुछ समय बाद कार से एक आदमी उतरा और उस के पास जा कर खड़ा हो गया। महिला उसे देख कर मुस्कुरायी और बोली, "बेटा तुम आ गए।" मगर उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ। उसने अपनी जेब से चाकू निकाला और महिला की आँख को देख कर घूरने लगा।
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(13). आ० डॉ विजय शंकर जी
जिस भूल का सुधार नहीं

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एक दोस्त - यार ये घोड़ों के ही अस्पताल क्यों होते हैं ?
दूसरा दोस्त - क्यों होते हैं , क्या मतलब ? अरे आदमी घोड़ों की फ़िक्र करता है , इसलिए होते हैं।
ए० दो० - फ़िक्र करता है या इस्तेमाल करता है? और भी तो तमाम जानवर हैं जंगल में , उनके लिए अस्पताल नहीं बनवाता ? क्यों ? वो नहीं बीमार पड़ते हैं क्या ?
दू० दो० - अरे जंगल में रहने वाले , समुन्दर में रहने वाले कभी बीमार नहीं पड़ते हैं।
ए० दो० - वही तो , जंगल में रहने वाले बीमार नहीं पड़ते हैं। बीमार तो शहर में रहने वाले पड़ते हैं। घोड़े भी जब से आदमी की संगत में आये उन्हें भी अस्पतालों की जरूरत पड़ने लगी।
दू० दो० - सही कहता है , यार तू।आदमी की सोहबत में आकर घोड़े भूल कर बैठे।
ए० दो० - और इस भूल का सुधार भी नहीं है।
दू० दो० - मतलब ?
ए० दो० - मतलब अब जंगल में वापसी भी नहीं है।
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(14). आ० डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
सुबह का भूला

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उसका मन कहीं लग नहीं रहा था. सुबह से ही अवसाद में डूबा था. आफिस जाने से पूर्व पत्नी ने अपनी योजना समझायी और देर से घर आने की हिदायत दी. इसलिये आफिस से निकलकर वह अपने एक मित्र के घर चला गया .
‘अरे, पसीना-पसीना हो रहे हो’ मित्र ने देखते ही प्रश्न किया , ‘सब ठीक तो है ?’
‘हाँ ठीक है, पर मन बड़ा अशांत है’
‘कमाल है. तुम्हारे जैसा खुश-मिजाज इंसान और परेशान ?
‘कुछ उलझनें ऐसी होती हैं, जिन्हें साझा कर पाना मुश्किल होता है, यार’ उसने थके स्वर में कहा. ‘ खैर छोड़ो, अपनी, बताओ अंकल कैसे हैं?’
‘हां चल रहे हैं, दिल की बीमारी है, इलाज करा रहा हूँ ‘-मित्र ने गंभीर होकर कहा ‘सच तो ये है कि जब तक वे हैं;  तभी तक मैं जवान और निश्चिन्त हूँ.  बड़ों का साया बहुत बड़ा होता है भाई ‘-मित्र ने दार्शनिक अंदाज में कहा.  फिर जैसे उसे कुछ याद आ गया हो. वह उत्साहित  होकर बोला –‘यार तुम तो बैंक में हो , मुझे कुछ लोन दिला दो ‘
‘क्यों, इलाज मंहगा पड़ रहा है ?  
‘हाँ यार, पी. एफ़. से तो पहले ही लोन ले चुका हूँ . पर बाई-पास सर्जरी ! तुम तो जानते हो, पर यार, जब तक मेरे शरीर में खून की एक भी बूँद बाकी है. मैं पिटा जी को ऐसे ही मरने नही दूँगा  . चाहे घर-बार भी क्यों न बेचना पड़े. भला माँ-बाप से बड़ा भी कोई होता है ? ’ मित्र के इतना कहते ही वह फफक कर रो पड़ा . मित्र ने हैरान होकर कहा  –‘अरे, अब तुम्हे क्या हुआ ?’
‘कुछ नही यार, मैं बड़ा पापी हूँ.’  उसने पगलाये स्वर में कहा और घड़ी देखते हुये उतावली से उठ खड़ा हुआ, ‘चलता हूँ , तुम्हारे लोन पर फिर बात करूँगा  ‘
वह ऐसे भागा मानो मौत उसके पीछे पड़ी हो. घर पहुँचते ही वह आंधी-तूफान की तरह अंदर गया और पत्नी को देखते ही डरे स्वर में बोला –‘चुड़ैल, क्या तूने पापा  को वह पुडिया खिला दी ?’
पत्नी उसके तेवर देखकर चकरायी  फिर सहमकर बोली -‘हाँ, अभी-अभी तो ’
उसकी आँखों में खून उतर आया. उसने पत्नी की लात-घूंसों से खूब मलामत की और दहाड़ते हुआ बोला –‘साली, मन में जहर भरने वाली, तुझे तो बाद में देखूंगा,’
वह तुरंत पिता के कमरे में गया. उनके अस्त-व्यस्त शरीर को कंधे पर लादकर  किसी प्रकार सड़क तक आया; फिर एक टेम्पो पर लिटाते हुये वहशत से बोला  –‘ ड्राईवर, हॉस्पिटल, फ़ौरन ‘
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(15). आ० प्रतिभा पाण्डेय जी
'कान’

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जेठ की बेटी की शादी संपन्न हो गई थी I विदाई की तैयारियाँ चल रहीं थीं I पर सीता सबसे अलग थलग अपने में खोयी थी I उसका पूरा ध्यान अपने पल्लू में बंधी उस छोटी सी चीज़ पर था I
आज से लगभग दो महीने पहले सीता अपने दुखों का पिटारा लेकर एक स्वामी जी के पास गई थी I अपने ससुराल में खुश नहीं थी वो I सुबह शाम उसे ये सोच खाए जाती थी कि  ससुराल वाले उसके खिलाफ उसके पति के कान भरते रहते हैं I तब स्वामी जी ने उसे ये चमत्कारी चीज़ दी थी I कान की आकृति वाली इस छोटी सी चीज़ को कानों के पीछे चिपकाते ही दूर चलने वाला वार्तालाप या फुसफुसाहट सुनी जा सकती थी I  स्वामी जी ने सीता को ये हिदायात भी दी कि इस कान का पहला परिक्षण किसी पारिवारिक आयोजन के दौरान ही होI
पति और जेठानी उसकी तरफ देखकर कुछ बातें कर रहे थे  I कान के उपयोग का सही समय जान, सीता ने पल्लू टटोला पर ‘कान’ वहाँ नहीं थाI वो घबराकर पल्लू झाड़ने लगी I
“भाभी! आप ये तो नहीं ढूँढ रहीं ? मुझे ये यहीं घास में पड़ा मिला है I” ननद  हाथ में ‘कान’ लिए खड़ी थीI
“ हाँ हाँ ये मेरे बुंदों के पीछे की कील हैI दिखने में अजीब है न?” अपनी घबराहट छिपाते हुए वो बोली I
“ मुझे पता है ये क्या है I ऐसा ही ‘कान’ मुझे भी स्वामी जी ने दिया था तीन साल पहले I” ननद मुस्कुरा  रही थी I
“क्या ! फिर ?’’ सीता अवाक थी I
“फिर क्या! बीमार कर दिया इसने मुझे I न ढंग से नींद आती न खाना पचता I हमेशा इसे चिपकाये बातें सुनती रहती और सबसे खिंची रहती I और फिर एक दिन ..”
“ क्या ..क्या किया ?’’ सीता बेसब्र हो रही थी I
“झोंक दिया मुए को आग में I अब बहुत खुश हूँ I’’ ननद के चेहरे पर गहरी राहत थी I
सीता कुछ और पूछती उसके पहले विदाई लेती भतीजी पास में आ गई I
“ बुआ जा रही हूँ I” रोती हुई वो ननद के गले लग गई I
“खुश रहना लाडो और देख बेकार की यहाँ वहाँ की बातों में कभी कान मत देना I” भतीजी का सर सहलाती हुई ननद ने भेद भरी मुस्कान सीता पर डाली I
“ चाची अपना ध्यान रखना I आप ढंग से खाती पीती नहीं हैं I” भतीजी सीता के गले लग कर सुबकने लगी I
“ खुश रहना बिटिया और हाँ, बुआ की कही बातों का ध्यान रखना I”  उसको प्यार से सहलाते हुए आज सीता बहुत हल्का महसूस कर रही थी I
“ तो भाभी क्या सोच रही हो ?”  भतीजी के आगे निकल जाने पर ननद ने सीता का हाथ अपने हाथ में ले लिया I
“ सोचना क्या है, अभी जाकर झोंकती हूँ इस मुए को आग में I”
पत्नी और बहन को साथ में खिलखिलाते हुए देख, दूर खड़ा सीता का पति भौंचक्का था I
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(16). आ० कुसुम जोशी जी
उजाले की और

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शादी के बारह साल , श्रद्धा नही जानती कि मीठा बोल किसे कहते है , कर्कश नवेन्दु का अब धीरे धीरे हाथ भी उठने लगा ,सबको शिकायत करती श्रद्धा ,पर सब वक्त का हवाला देते ।
इन अन्तहीन निराशा के बीच भी पारुल और पारस का आगमन नवेन्दु और श्रद्धा की जिन्दगी में हुआ ।
पर दोनों बच्चों का सहमा बचपन , घबराया हरपल ,ये हकीकत थी। ।
आज नवेन्दु ने फिर श्रद्धा पर हाथ उठाया ,तो हमेशा खामोश रहने वाली पारुल बोल पडी "पापा'! आप मम्मा को क्यों मारते हैं , कितनी अच्छी हैं मां.."इतना सुनते ही पहली बार थप्पड़ गूंजा था पारूल के गाल में ।
इस थप्पड़ की की गूंज श्रद्धा दिल और दिमाग में ज्यादा गहरी गूंजी थी , सहमा सा पारस जोर जोर से रोने लगा , "अब और नही..बच्चो को नवेन्दु नही बनाना है मुझे..एक कोंध सी उठी श्रद्धा के मन में"।
रोशनी जगमगाती है तब भी , जब हम अन्तहीन निराशा के गर्त में होते हैं, ....कई बार एक किरण भी हमें उबार लाती है ,यही सोच उठ खड़ी हुयी श्रद्धा ।
"अब एक पल भी नही रहना है.." मैं अनपढ़ तो नही ...मेरे जीवन के गहन संघर्ष मेरे बच्चों के जीवन में आत्म विश्वास और खुशियां भरेगें ....ये निर्णय रोशनी भरा था ..निकल आई श्रद्धा उन अंधेरों से।
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(17). आ० नीता कसार जी
लाकेट

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"नही माँ अब संभव नही,आप लोगों के साथ रहना ,अलग रहेंगे हम ,माला आप लोगों के साथ नही रहना चाहती ।" अनमोल ने माँ की ओर देखे बिना फ़रमान सुना दिया ।
"पर क्या हुआ है बेटा हम अकेले कैसे रहेगें।" माँ ने अपनी साड़ी के पल्लू से भर आई आंखो को पोंछते हुये कहा ।
"आप रोकिये ना अनमोल के पापा ये क्या कह रहा है।" माँ ने पति से गुहार लगाई ।
वे सब सुनते समझते चुप थे क्योंकि जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो कोई क्या करे।
"हमने क्या चाहा बेटा खाना और थोड़ा सा प्यार,हमने कुछ कमी ना की तेरी परवरिश में आज हमें तुम्हारी ज़रूरत है बेटा और तुम हमें " आगे कुछ ना बोल पाई,डबडबायी आँखे बोलने लगी ।
"तुम्हारी बहू के प्रति मेरी ज़िम्मेदारी है वह ख़ुश रहें माँ के कंधे पर हाथ रखते हुये बोला ।"
"और हम किसकी ज़िम्मेदारी है अनमोल हमारा सब तुम्हारा है तब भी हम तुम लोगों के बिना रह लेंगे ।
"जा बेटा ख़ुश रह अपनी दुनिया में,फिर हमारी निशानी छोड़ता जा गले का लाकेट दे दे अपनी मॉ को ।वरना तुझे याद आती रहेगी उसकी ।" पिता चुप ना रह सके ।
"ओह !! मुझे माफ़ करो माँ सब याद है मुझे बुरी नजर से बचाने के लिये पहनाया था ना मुझे" कहते हुये अनमोल ने माँ के गले में बाँहें डाल दी । तुम्हारे बिना कैसे ज़िंदा रह सकता हूँ मैं ।
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(18).  आ० अन्नपूर्णा बाजपेई जी
परिवर्तन

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" ट्रिन ट्रिन ! ट्रिन ट्रिन !"  फोन की घंटी ने शादाब का ध्यान भंग किया । उठा और अनमने भाव से फोन को कान से सटा कर बोला , " हेलो"

उधर से रोते हुये आमिना बोली  ," भाईजान ! गजब हो गया , मेरी तो ज़िंदगी ही तबाह हो गयी । अब मैं दोनों छोटी-छोटी बेटियों को लेकर कहाँ जाऊँगी ।"
" क्या !! क्या हुआ !! " शादाब चीख पड़ा ।
आमिना उसी तरह रोते हुये बोली ," क्या बताऊँ भाईजान ! कोई बात नहीं थी आज अचानक जरा सी बात पर झगड़ा हुआ और इन्होने  दो तलाकें मेरे मुंह पर मार दीं  ।"
"काट कर फेंक दूंगा उस रईस जादे को ! अगर मेरी बहन को तलाक देने की जुर्रत की तो । तू फिक्र न कर ! अभी आता हूँ । "शादाब गरजा  और फोन पटक दिया और बाहर की ओर लपका ।
उसके इस तरह चीखने से उसकी माँ और पत्नी भी कमरे में आ गए थे । शादाब के बड़बड़ाने से माँ को बात समझते देर न लगी । उन्होने कहा " मैंने कहा था तुझसे दूसरे की बेटी को तलाक देने जा  रहा है तू ! वो भी बिला वजह ! खुदा की गारत कहीं ऐसा न हो तुझ पर ही गिर जाए , कभी किसी की हाय नहीं लेनी चाहिए । बहू की क्या गलती थी जो तूने उसे तलाक देने की सोची ? क्यों जरा सी बात पर तलाक देना क्या जरूरी है  ?  क्या किसी की बेटी की कोई इज्जत नहीं ? क्या ये किसी की बहन नहीं ! बोल !! "  
शादाब आसमान से जमीन पर आ गिरा । उसे अपनी गलती का अहसास हुआ ।
" हाँ  ! मैं खुद भी तो यही गलती करने जा रहा था ।" उसने लपक कर पत्नी से माफी मांगी । और उसको साथ लेकर बहन के घर को जाने के लिए बाहर भागा ।
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(19). आ० लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी
भटका हुआ
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रोहतक कॉलेज के प्राचार्य ने अपने समाज के परिचित ईश्वर दास को फोन किया “ईश्वर दास जी, आपने अपने लड़के चाँद बाबू का किसी तपन सोनी को संरक्षक बना दिया है क्या जिसके हस्ताक्षरों से आपके लड़के ने प्रवेश फार्म जमा कराया है, और उसमे पता भी आपके घर का न होकर आकाश कालोनी रोहतक का है ?” यह सुनकर ईश्वर दास सकते में आ गए | वे फ़ार्म में अंकित पते पर गए तो वहाँ पुत्र चाँद बाबू बैठा शराब पीते और ट्रांजिस्टर पर गाने सुनते मिला | उससे बाते करते और उसके दिवंगत माँ की टंगी तस्वीर की दुहाई देते बात कर ही रहे थे कि कॉलेज के प्राचार्य भी वहाँ आ गए जिन्हें ईश्वर दास आने को कहकर ही घर से रवाना हुए थे |

कालेज प्राचार्य ने समझाया कि कोई व्यक्ति तुम्हारा ख्याल रख जिन्दगी बना सकता है तो वह माता-पिता के अलावा दूसरा इतना हितेषी नहीं हो सकता | तुम्हे किसी तरह की शिकायत हो तो मुझे बताना |  मैंने तुम्हारे तुम्हारे पिताजी से बात की है, उनका आँखों में आंसू देखों | अपने पिताजी को दोस्त जैसा समझ कर अपनी इच्छा इन्हें बताये और इनकी बात समझने की  कोशिश करे | आपके पिताजी का विधवा से पुनर्विवाह करना इनकी सामाजिक जागरूकता को दर्शाता है | कुछ समय में ही तुम्हे पता चल जाएगा कि तुम्हारी नयी माँ तुम्हे कितना चाहती है | उसे मै जानता हूँ और उससे तुम्हारे पिता सब कुछ बताकर और वायदा करने के बाद ही उसे व्याह कर लाये है |
कॉलेज प्राचार्य की बातों का असर तो हुआ और चाँद बाबू बोला –“मै अब पुनः घर आउंगा तो मेरी फजीहत होगी और दोस्त में मजाक बनायेंगे |” प्राचार्य ने समझाया “देखो,  जो शुभ चिन्ग्तक और सच्चा  दोस्त होता है वह कभी अपने साथी का बिना सोचे मजाक नहीं बनाता | अगर तुम्हे किसी मित्र ने घर से निकलने और किसी गैर को संरक्षक बना प्रवेश लेने की गलत सलाह दी है तो वह मित्र या तो खुद भटका हुआ है या फिर उसे अभी कुछ भी समझ नहीं है | गलती इस जवानी में सभी से होती है, इस उम्र में भटक जाना संभव है | किन्तु समय रहते अपने माता-पिता अथवा शिक्षक से सीख लेकर भूल  सुधार ले तो उसका जीवन बर्बाद होने से बच जाता है | तुम अभी इसी समय पिताजी के साथ अपने घर वापस जाओ |
इतने मकान मालिक तपन सोनी भी वहाँ आ गए, उसने कहाँ “मैने ही प्राचार्य को बताकर तुम्हारे पिताजी से बात करवाई थी | तुम्हारे पिताजी को मै पहले से जानता हूँ और तुम्हें सबक सिखाने के लिए उन्हें और प्राचार्य को यहाँ बुलाया है | मैं समझ गया था कि तुम भटके हुए हो | तुम अपने पिताजी और प्राचार्य की बात समझो| और घर लौट जाओ | सुबह का भूला शाम को लौट आये तो भूला नहीं कहाता | चाँद बाबू पिताजी के साथ घर लौटने को सहमत हो गया |
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(20). आ० नयना(आरती)कानिटकर जी
"ट्रायलरुम"


मॉल के ट्रायलरूम में खड़ी वह अपने नितांत सौंदर्य को निहार रही थी..अपने पसंदिता शॉर्ट टॉप और शॉर्ट स्कर्ट में। उसके कानों में माँ के  साथ संवाद के शब्द बार-बार टकराने लगे...
"अब चाहे कुछ भी हो, मैं भी नये फैशनेबल कपड़े पहनूँगी ही पहनूँगी.  मैं चाहे कितना भी अच्छा काम कर लू ऑफ़िस में सब लोग मुझे गाँव की गवार से ही नवाज़ते हैं." सोना ने माँ से कहा था।
"हूsss"
"ये सिर्फ़ हूsss क्यों? मेरी रूम मेट्स को भी देख रही हो ना आप. उनके घर में कोई कुछ ऐतराज नहीं करता"  सोना ने  नाराजी से कहा था।
"आज तक सादगी ही तुम्हारी पहचान रही है बेटा और हमारी मर्यादा, हमारे संस्कार... सुधा मूर्ति को जानती हो ना.." माँ ने सादगी से कहा था किंतु उस पर तो धुन सवार थी फैशन की। वह भी अपनी जीद पर अड गई।
शब्द काहे के माँ की दी जाने वाली वार्निंग ही थी वो तो। वह जानती थी कि माँ उसके भले के लिए ही कहती है फिर भी उसे ये सब सुनना हमेशा चुभता था। कई बार विद्रोह कर उठने का मन किया था उसका किंतु अपने पर निश्छल प्रेम करने वालों का दिल दुखाना उससे नहीं बन पाया.
 इसी के साथ उसे कॉलेज के कोने पर खड़े होकर लड़कियों  की तरफ़ विकृत नज़रों से निहारते आवारा लोगों की गैंग भी याद आ गई। अपने संपूर्ण ढके शरीर पर घूमती गंदी नज़रों को याद करते हुए उसने अपना सलवार-कमीज फिर से पहना और बालों को कस कर पिछे बाँध लिया।
मन ही मन उन्हें एक-एक तमाचा जडने का भी प्रण करते हुए ट्रायल रूम से बाहर निकल आई..!!
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(21). आ० विनय कुमार जी
नयी मम्मी

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लक्ष्मी हतप्रभ खड़ी थी, उसे अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था| आज तीसरा दिन था और अधिकांश रिश्तेदार जा चुके थे| उसके कमरे में आयी उस लड़की से उसने ऐसे ही पूछ लिया "तुम किसकी लड़की हो?
पहले तो वह लड़की चुप रही और लक्ष्मी को अजीब सी निगाहों से देखती रही लेकिन जब दुबारा उसने पूछा तो उस लड़की ने जवाब में सवाल कर दिया "तुम हमारी नयी मम्मी हो ना?
इस बात के लिए वह बिलकुल तैयार नहीं थी, उसे इतना तो पता था कि उसके पति की यह दूसरी शादी है| लेकिन उसे यह नहीं बताया गया था कि उसके एक बेटी भी है| अभी वह इन्हीं सवालों से जूझ रही थी कि उस बच्ची ने फिर से एक सवाल किया "तुम हमें मारोगी नहीं ना, हम बिलकुल परेशान नहीं करेंगे? रानी की नयी मम्मी उसे बहुत मारती है"|
उसके सवाल ने उसे एक झटका सा दे दिया, उसे अपना घर याद आ गया| उसकी मम्मी की मौत के बाद आयी नयी मम्मी ने उसको हर कदम पर जलील किया था और यह शादी भी उसी की वजह से हुई थी| अब उसकी आँखों के सामने उसके पति की तस्वीर, जिस पर उसे बेहद क्रोध आया था, धुंधलाने लगी और उस बच्ची के चेहरे में उसे अपना अक्स नजर आने लगा|
बच्ची ने जब देखा कि उसे कोई जवाब नहीं मिल रहा है तो वह चुपचाप बाहर की तरफ जाने लगी| लक्ष्मी झटके से उठी और दौड़ कर उसने उस बच्ची को अपने सीने से लगा लिया और उसे चूमते हुए बोली "तुम मुझे मम्मी ही कहना बेटी, नयी मम्मी नहीं"|
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(22). आ० राजेश कुमारी जी
'दिलफेंक'


“तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इस दरवाज़े पर कदम रखने की मिस्टर विशाल!!  या रास्ता भटक गये हो?” मौली ने गुस्से के लहजे मैं कहा|
“रास्ता आज नहीं भटका मौली वो तो पहले भटक गया था जिसके लिए मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ आज तो वापस लौट के आया हूँ अपने घर वापस चलो प्लीज़ मैं सब बीती बातों के लिए सबके सामने माफ़ी माँगता हूँ” कह कर विशाल माँ बाबू जी के चरणों में झुक गया|
“माफ़ कर दो बेटी, दामाद जी अपने किये की माफ़ी मांग रहे हैं वो कहते हैं ना सुबह का भूला” ...
”बस-बस.. माँ मुझे पता है आप क्या कहोगी जिस कहावत के चक्कर में  आप भाई की हर गलती माफ़ करती आई हो और भाभी को समझाती आई हो मैं उसे नहीं मानती मैं एक स्वावलम्बी लडकी हूँ सही और गलत अच्छे से पहचानती हूँ |
और कितनी बार माफ़ करूँ ये तो अपना दिल ताश के पत्तों की तरह बाटता फिरता है यही फितरत है इसकी|
और इस बार पता है क्यूँ लौट कर आया है क्यूंकि ये रंजीता नाम की जिस चुड़ैल के  साथ रंगरलिया  मनाता था वो इसको लूटकर भाग गई और ऊपर से रेप के चार्ज में भी इस को फँसाया बचने के लिए पन्द्रह लाख देकर इन्होने पीछा छुड़ाया वरना नौकरी से भी हाथ धोना पड़ता|
इस से पूछो यदि यही गलती मैंने की होती तो क्या ये माफ़ कर देता?”
“मेरी आत्मा ने भी  इसी प्रश्न को लेकर  मुझे बार बार धिक्कारा मौली तभी मैं तुमसे माफ़ी मांगने की हिम्मत कर पाया बस एक मौका मुझे और देदो” हाथ जोड़ कर विशाल बोला|
“बेटी दामाद जी रास्ता भटके थे वापस तो आये किन्तु बहुत बड़ा जख्म खाकर आये इस लिए एक अवसर देकर देख लो बेटा कई बार गाँठ लगा धागा प्लेन धागे से मजबूत निकलता है” माँ ने कहा |
“ठीक है माँ एक अवसर और देकर देखती हूँ कहते कहते मौली अंदर जाकर फोन पर बात करने लगी  थैंक्स यार रंजीता तेरा प्लान सफल हो गया | चेहरा देखने लायक है उसका तरस भी आ रहा है दुबारा एसा न करने की कसमें खा रहा है मेरे इस दिलफेंक पति को सुधारने का बेहद शुक्रिया सखी तेरा एहसान जिन्दगी भर  नहीं भूलूँगी पन्दह लाख मेरे अकाउंट में पँहुच चुके हैं”|
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एक और सफल लघुकथा गोष्ठी और संकलन के लिए आदरणीय मंच संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर साहिब, सभी सहभागी रचनाकारों और टिप्पणीकर्ताओं को तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और आभार। मेरी रचना को स्थान देने के लिए सादर हार्दिक आभार। जिस धीमी रफ़्तार से रचनाएं आ रही थीं, तो लग रहा था कि बेहतरीन दमदार लघुकथाएं मिलने वाली हैं। फिर भी 22 रचनाओं में से बहुत सु बढ़िया रचनाएं हमें पढ़ने को मिलीं। कुछ नये साथियों की सहभागिता से ख़ुशी हासिल हुई। 'सुबह के भूले' कुछ रचनाकारों की प्रतीक्षा हमेशा रहती ही है। नियमितता से सीखने-सिखाने की गति तेज़ हो सकती है। सादर।
आद0 मंच संचालक भाई योगराज जी सादर अभिवादन। रचनाओं के त्वरित संकलन और उत्सव के सफल संचालन पर मेरी कोटिश बधाइयाँ आपको। मेरी लघुकथा को संकलन में मान देने के लिए हृदय तल से आभार। सभी लघुकथाकारों और उत्साहवर्धन करने वालो सभी विद्वत जनों का भी आभार। सादर

आदरणीय भाई साहब / प्रणाम. आप के जज्बे को सलाम. इतनी तीव्रता से संकलन निकाला हैं. इस की जितनी तारीफ की जाए वह कम है. यह आप की साहित्य के प्रति लग्न, इच्छा, आकांक्षा तथा साहित्यप्रेम को प्रदर्षित करता है. इस जज्बे को मेरा नमन. 

मेरी लघुकथा में कुछ त्रुतिगत संशोधन है- कृपया प्रतिस्थपित करने की कृपा कीजिएगा--

(4). आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 
वही बीवी

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''भाई शादी करनी है तो किसी ने किसी लड़की के लिए "हां" करनी पड़ेगी,'' मोहन ने समझाया तो विनय बोला, '' मगर, उस की उम्र 19 वर्ष है और मेरी 45 वर्ष. फिर उस के पिताजी गहने के साथसाथ 3 लाख की एफडी मांग रहे हैं. हमारी जोड़ी नहीं जमेगी ?''
'' और, उस दूसरी वाली में क्या कमी है ? उस के लिए "हां" कर दो ?''
'' वह पति द्वारा छोड़ी हुई चालाक महिला है. फिर, उस के पिताजी को बहुत ज्यादा माल चाहिए. वह मैं  नहीं दे सकता हूं.''
'' तब इस कम उम्र की लड़की से शादी कर लो ? इस में क्या बुराई है ? पिताजी गरीब और सीधेसादे है. वे जानते है कि तुम शिक्षक हो,  इसलिए उन्हों ने शादी के लिए हां की है. अन्यथा तुम जैसे उम्रदराज से वे शादी करने को राजी नहीं होते .''
'' नहीं भाई ! हमारे बीच उम्र आड़े आ जाएगी. मैं घर पर अपना काम निपटा रहा होऊंगा और वह पड़ोस में ताकझांक कर रही होगी. मेरे शरीर और उस के शरीर को देखो. हमारा मेल संभव नहीं है.''
'' यदि तुम्हें शादी करनी है तो कहीं न कहीं समझौता करना ही पड़ेगा ?'' मोहन ने कहा तो विनय ने मोटरसाइकल दूसरी ओर मोड़ दी.
'' अरे भाई ! अब किधर चल दिए ?  घर चलो. वैसे भी घुमतेघुमते बहुत देर हो गई है,'' मोहन ने विनय का कंधा पकड़ कर कहा.
'' जब समझौता ही करना है तो मेरी पुरानी बीवी कौनसी बुरी है !  इस से कम में तो वही मान जाएगी,'' कहते हुए उस ने मोटरसाइकल की गति तेज कर दी.

लघुकथा गोष्ठी के सफल संचालन हेतु बहुत २ बधाई आदरणीय योगराज सर जी ,मेरी लघुकथा को संकलन में स्थान देने के लिए बहुत २ धन्यवाद ,आभार ,सादर
जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब,त्वरित संकलन पेश करने में आपका कोई सानी नहीं,संकलन और सफ़ल संचालन के लिए आपको बहुत बहुत मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मुहतरम जनाब योगराज साहिब ,ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्टी अंक 32 के त्वरित संकलन और कामयाब संचालन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें

ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक - 32  के सफल आयोजन,सुव्यवस्थित संचालन एवम त्वरित संकलन हेतु आपकी जितनी प्रसंशा की जाय कम है। हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी।

सादर अभिवादन भैया ...संशोधित कथा ..सभी को हार्दिक बधाई भी 

मन का बोझ-
 
अस्पताल के कॉरिडोर में स्ट्रेचर पर विवेक कराह रहा था | डॉक्टर से उसके जल्द इलाज की मिन्नतें करता हुआ एक अजनबी, बहुत देर तक डॉक्टरों और नर्सों के बीच फुटबॉल बना हुआ था। बड़ी मुश्किल से कागजी कार्यवाही करने के बाद, विवेक को आपरेशन थियेटर के अंदर ले जाया गया | अजनबी अपना दो बोतल खून भी दे चुका था। एक-दो घंटे में ऑपरेशन खत्म हुआ तो विवेक को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया | अजनबी लगातार विवेक की खिदमत में लगा हुआ था |
तभी विवेक के बदहवास माता-पिता वार्ड में दाखिल हुए | विवेक को देखते ही माँ तो बेहोश हो गयी | अजनबी पानी लेने बाहर चला गया |
विवेक के माथे पर हाथ फेरते हुए काँपती आवाज में पिता ने पूछा - "कैसे हुआ? मुझे लगा तू दोस्त के यहाँ, देर रात हो जाने से रुक गया होगा।"
"पापा, मैं तो रात...ग्यारह बजे ही ..आहs..मुकेश के घर से चल दिया था..उह.. अह ह..लेकिन रास्ते में...!"
पत्नी की तरफ देखने के बाद पिता ने विवेक से फिर कहा - "चहलकदमी करती हुई तेरी माँ चिल्ला रही थी कि 'जन्मदिन, इतनी देर तक कोई मनाता है क्या भला' ! शाम को तेरा फोन भी बंद आ रहा था !!"
"आराम करने दो ! बाद में पूछताछ कर लेना, मेरे बच्चे को कितनी तकलीफ ..!" कहते हुए फिर बेहोश सी हो गयी |
"एक सहृदय भले आदमी की नजर...उहs मुझपर सुबह पड़ी, तो वह मुझे आह..अस्पताल ले आये।... पापा ! रातभर लोगों से भीख मांगकर ऊहंss निराश हो गया था मैं तो..और मोबाईल की बैटरी भी ...।" किसी तरह विवेक ने टूटे-फूटे शब्दों में पिता से अपनी व्यथा बयान की |
'सहृदय' शब्द अंदर आते हुए अजनबी के कानों में गया, तो वह बिलबिला पड़ा। जैसे उसके सूखे हुए घाव को किसी ने चाकू से कुरेद दिया हो।
अजनबी खुद से ही बुदबुदाया - "चार साल पहले, मेरी सहृदयता कहाँ खोई थी। सड़क किनारे खड़ी भीड़ की आती आवाजें- चीखें अनसुनी करके निकल गया था ड्यूटी पर अपने। दो घण्टे बाद ही फोन पर तूफान की खबर मिली थी।"
सहसा अपने सिर को झटक के वर्तमान में लौटकर अजनबी बोला- "बेटा, मैं सहृदय व्यक्ति नहीं हूँ, बनने का ढोंग कर रहा हूँ। यदि मैं सहृदय व्यक्ति होता तो मेरा बेटा जिंदा होता।" चुप होते ही आँसू अपने आप ढुलक गए, जिसे अजनबी ने रोकने की कोई कोशिश नहीं की।
 
"मौलिक व अप्रकाशित"
आदरणीय योगराजजी ,लघुकथा गोष्ठी के सुव्यवस्थित, सुसंगठित, सफल संचालन हेतु हार्दिक अभिनंदन और आभार।आपके मार्गदर्शन से लघुकथा लेखन में मुझे बहुत कुछ सीखने-समझने का अवसर मिल रहा है।अन्य सभी सुविज्ञ रचनाकारों की रचनाएं ,सहभागिता ,प्रतिक्रियाएं मेरी प्रेरणा और ऊर्जा शक्ति का स्त्रोत सिध्द हो रही हैं।इस मंच को साधुवाद।

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Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
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Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
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Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
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