आदरणीय साथिओ,
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इस उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय विनय जी ...आपकी टिपण्णी से सहमत हूँ
आदरणीय प्रतिभा पांडे जी बहुत बढ़िया रचना हुई है. बधाई अप को इस रचना के लिए.
आद0 प्रतिभा पांडेय जी बेहतरीन लघुकथा पर आपको बधाई। पढ़कर अच्छा लगा।
आदरणीया प्रतिभा जी प्रदत्त विषय को चरितार्थ करती आकर्षक रचना के लिए बहुत बहुत बधाई
नीड़ की ओर
पादरी ने पंजीकृत लिफाफा खोला. उसमें मात्र सौ रुपये का एक चेक था . लिफ़ाफ़े पर प्रेषक का नाम था -आपका कृतग्य . पता अधूरा था . पादरी के चेहरे पर एक अद्भुत मुस्कान फ़ैल गयी –‘आज भी हैं ऐसे लोग ‘ उन्होंने सीने के सामने क्रास बनाकर प्रभु यीशु को याद किया . इसी के साथ उनकी आँखों के सामने हठात उस लड़के का चेहरा नुमांयां हुआ जो कुछ दिन पहले लहूलुहान अवस्था में गिरिजाघर में आया था . उसने पादरी को बताया कि वह वहाँ एक काम्प्टीशन देने आया था, पर उसका एक्सीडेंट हो गया. उसका सारा सामान नष्ट हो गया और पैसे भी किसी ने निकाल लिए. उसने बहुतेरे लोगों से मदद माँगी, पर किसी ने उसकी मदद नहीं की और यह कि वह बड़ी आश लेकर फादर के पास आया है.
पादरी ने उस युवक को ध्यान से देखा . उसे चोटें तो लगी थीं, पर गनीमत यह थी की वह चल फिर सकता था . उसकी बेबसी उसके चेहरे से टपक रही थी .
‘वेल बॉय, यह हाउस ऑफ़ गॉड है’ -फादर ने गंभीरता से कहा ,” यहाँ पहले तुम्हारी प्राथमिक चिकित्सा होगी. इसके बाद हम और बात करेंगे .”
पादरी चाहते थे कि युवक कुछ दिन गिरिजाघर में रहकर चिकित्सा कराये और स्थिति सामान्य होने पर अपने घर जाये. पर युवक ने जिद की, “‘फादर, मैं तुरंत अपने घर जाना चाहता हूँ . मेरे न पहुँचने पर मेरे माता-पिता बहुत चिंतित होंगे . वहां जब माँ मेरे सर पर हाथ फेरेगी और पिता सहारा देंगे तो मैं जल्द ही ठीक हो जाऊँगा. फादर, घर तो घर ही होता है न ‘
‘एस माय बॉय ‘ पादरी ने समर्थन में सिर हिलाया ,”यू अर राईट”. फादर के मन में एक द्वन्द चल रहा था –“ मुझे कॉन्फेशन कराना चाहिए था, पर इससे क्या कराता . यह तो सचमुच दुखियारा है. “
यह सोचते-सोचते पादरी ने अपना पर्स निकाला और युवक के सामने बढाकर कहा –“टेक एज मच यू नीड”
युवक ने सकुचाते हुए सौ रूपये का एक नोट निकाला .
‘टेक मोर, इट विल नॉट बि सफीशिएन्ट .’
युवक ने हाथ जोड़ लिये. पादरी ने फिर कुछ नहीं कहा. वे अपनी कार से युवक को बस स्टेशन ले गए. बस रवाना होने के बाद भी फादर वहीं खड़े रहे और पक्षी को तब तक नीड़ की ओर जाते देखते रहे, जब तक बस आँखों से ओझल न हो गयी.
(मौलिक व् अप्रकाशित )
मुहतरम जनाब गोपाल भाई साहिब, ज़बरदस्त लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं।
आदरणीय गोपाल नारायण जी आदाब,
प्रदत्त विषय पर बेहतरीन लघुकथा ।सोद्देश्यतापूर्ण भी । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।र
पिछली टिप्पणियों में आपके द्वारा दिये गये मार्गदर्शन जैसी प्रदत्त विषय के मूल भाव पर बढ़िया प्रस्तुति के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव साहिब। हालांकि पादरी/फादर वाला यह दृश्य आंशिक रूप से पहले भी किसी रचना में पढ़ चुके हैं, लेकिन विषयांतर्गत इस रचना में आपकी उत्कृष्ट लेखनी और शैली बहुत बढ़िया है। शीर्षक के मद्देनज़र यह कहना चाहता हूं कि बेहतरीन अंतिम पंक्ति में // ..... तब तक नीड़ की ओर जाते देखते रहे....//... के बजाय यह कहना काफी है :
//बस रवाना होने पर पक्षी को जाते हुए तब तक देखते रहे, .............//
(इस गोष्ठी की जानकारी पढ़ते रहने के बावजूद पता नहीं मेरे दिमाग़ में यह बात रही कि यह गोष्ठी 30 व 31 दिसम्बर को होगी; इस कारण उपस्थिति में देर हो गई!)
आद0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी सादर अभिवादन। बेहतरीन विषयान्तर्गत लघुकथा कही आपने, अच्छा लगा। कोटिश बधाई आपको इस प्रस्तुति पर। सादर
प्रदत्त विषय पर बढ़िया लघुकथा है आदरणीय डॉ. गोपाल नारायन सर. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ गोपाल नारायन जी।लाज़वाब लघुकथा।
प्रदत्त विषय पर सुन्दर कथा ..हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी
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