आदरणीय साथिओ,
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***तुलसी***
" मैं इतनी देर से जो समझा रहा हूँ ,तुम समझने की कोशिश करो सुरेश! हमें समाज में रहना है तो समाज के नियम भी मानने पड़ेंगे।समाज को नकारने का दुस्साहस कौन कर सकता है?"
"भाईसाहब!समाज का तो पता नहीं , लेकिन मैं अपनी औलाद को नहीं नकार सकता।"
"फिजूल की बातें मत करो, औलाद हमारी भी है। परिवार में और भी बच्चियां हैं ।उन्हें ब्याहना है या नहीं।"
"तो इसमें मेरी बच्ची बीच में कहाँ से आ गयी? आपने तो देखा था ना, क्या हाल किया था उन लोगों ने मेरी बच्ची का ।"
"ससुराल में छोटी-मोटी लड़ाई झगड़ा तो होता ही रहता है। और रही उनके डिमांड की बात, तो वह कौन सी अनोखी बात है!आजकल कई लोग करते हैं।"
"आपके कहने का क्या मतलब है?"
"मतलब ये है कि कोई अपनी ब्याहता लड़की को महीनों मायके बैठाता है क्या ?"
"भाईसाहब ! ना मैं उन लालचियों को एक धेला नहीं दूंगा ।और ना ही अपनी बच्ची को मरने के लिए दोबारा वहां भेजूंगा... "
" अरे...,जरा समझ से काम लो सुरेश ! लड़कियां अपने घर में ही सुहाती है। तुम ..."
बात पूरी होती, इससे पहले वह भाईसाहब की बात काट कर बोला,
"इन सब बातों को मैं नहीं जानता भाईसाहब! मैं तो इतना जानता हूँ, जिस पौधे को उखाड़ कर मैनें उन्हें सौंपा था।अब उसे वापस अपने आँगन में रोप चुका हूँ। और तुलसी किसी और के नहीं, अपने ही घर में है।"
मौलिक एवम अप्रकाशित
मुहतर्मा राहिला साहिबा ,प्रदत्त विषय पर जबरदस्त लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें।
बहुत सुन्दर रचना .आपकी चिरपरिचित सशक्त शैली में हार्दिक बधाई प्रिय राहिला जी .काफी समय बाद आपको गोष्ठी में देखकर अच्छा लगा
वाह, बहुत खूबसूरत लघुकथा प्रदत्त विषय पर, पढ़कर अच्छा लगा| शीर्षक चयन शानदार है और प्रस्तुति भी बहुत प्रभावित करती है| बहुत बहुत बधाई आपको इस प्रस्तुति पर
विषय पर आधारित चिर-परिचित कथानक पर आपकी शैली में बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया राहिला जी। इसमें बेटी को आत्मनिर्भर बनाने जैसी बातें भी शामिल की जा सकती हैं मेरे विचार से।
हार्दिक बधाई आदरणीय राहिला आसिफ़ जी।बहुत मार्मिक और हृदय स्पर्शी लघुकथा।
बहुत शुक्रिया आदरणीय तेजवीर सर जी!सादर आभार
बहुत शुक्रिया आदरणीय उस्मानी साहब! आपकी राय पसंद आई।सादर
बढ़िया संदेशप्रद लघुकथा है आ. राहिला जी. मेरी तरफ़ से भी हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
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