आदरणीय साथिओ,
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आपकी लघुकथा मेरे तो ऊपर से निकल गई आ० मोहन बेगोवाल जी।
जनाब मोहन जी आदाब,आयोजन मे सहभागिता के लिए धन्यवाद ।
समय के साथ बदलती मानसिकता का बखूबी चित्रण,बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय सरजी.
//दादी माँ ने सिर की चुनरी ठीक करी,// आदरणीय मोहन बेगोवाल जी, इस पंक्ति को लघुकथा से निकाल दीजिए तो संप्रेष बढ़ जाएगा और वह स्पष्ट हो जाएगी। विवाह के बदलते समीकरण पर दादी का चौंकना स्वाभाविक है पर यदि यहाँ दादा जी होते स्वाभाविकता और बढ़ जाती। इस बढ़िया लघुकथा पर मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
बदल रहे समीकरण
आज यहाँ लड़की के घर वाले विवाह की तारीख फिक्स करने आये हैं। क्योंकि वह बिटिया की शादी लड़के के शहर में आ कर करना चाहते हैं।
इस लिए जरूरी था कि ये प्रबंध पहले से हो जाए कौन से होटल में मैरिज करनी है और विवाह से इक दो दिन पहले आ कर भी रहना होगा तो कहाँ रहेंगे ?
सभी लोग ड्रइंग रूम बैठे लड़के वालों से सलाह मशिवरा कर रहे हैं। थोड़ी देर बाद ममता चाय ले कर ड्रइंग रूम में दाखिल हुई और चाय परोसने लगी।
तभी ससुर ने कहा,”देखिए, हमारी बहू कितनी अच्छी है, अभी से मेहमानों का कितना ध्यान रखने लगी है।“
दादा जी की आँखे खुली रह गई और वह ये सब देख कर हैरान हो गए।
"मौलिक व अप्रकाशित"
आदरनीय महिंदरा जी,लघुकथा के बारे राए देने के लिए बहुत धन्यावाद जी।
यथार्थवादी लघुकथा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय मोहन बेगोवाल जी ।
वाह| सुंदर लघुकथा हुई है आदरणीय मोहन बेगोवाल जी \ बधाई स्वीकारें|
उजड़ा फूल
" हाय! कुलच्छिनी खा गई मेरे इकलौते बेटे को । तिल-तिल मरता रहा छोरा उसे और अपने बच्चे को याद कर , पर उस पत्थर औरत का कलेजा जरा भी नहीं पसीजा ।"
" चुप हो जाओ माँ ! भाई इतनी ही जिंदगी लिखाकर लाया था ऊपर से । मौत को तो बस बहाना चाहिए आने का ।" जवान भाई की मौत और अकेली माँ को कैसे संभालेगी सोच ने उसे पत्थर बनाकर रख दिया था ।
माँ का करुण रुदन जारी था । पास ही घूँघट निकालकर बैठी स्त्रियाँ अपने तरह से शोक प्रकट कर रही थीं ।
" बहुत बुरा हुआ बेचारी के साथ । पति तो पहले ही नहीं था , अब बेटा भी नहीं रहा ।"
" हुआ क्या था ? सुना है बहू भी घर छोड़कर चली गई थी ।"
" सुना तो यही है कि ब्याह के तीन साल बाद जो रूठकर गई तो फिर न लौटी । अपने साथ दूध मुँहे बेटे को भी ले गई ।"
" हे भगवान ! "
" सुना तो ये भी है रूठना तो एक बहाना था असल बात तो कुछ और ही थी ।"
" बुआ... बुआ...मुझे भूख लगी है , कुछ खाने को दो न ।" नन्हे दीपू ने आँचल खींचकर उसके ख्यालों की श्रृंखला तोड़ दी । जिसे वह उसकी माँ की मृत्यु का समाचार सुन कुछ दिन के लिए अपने पास ले आई थी । एक तरह से अनाथ ही तो हो गया था दीपू । अदिति का मन नहीं माना तो वह सारा मान-अपमान भूलकर पहुँच गई थी उसके सौतेले पिता के पास ।
" हमें अपने ही किये की सजा मिली है । न हम इस तरह समाज की मर्यादाओं को तोड़ते और न आपके परिवार को ये जलालत सहनी पड़ती । हम दोनों के एक गलत कदम ने आपसे भाई और माँ दोनों छीन लिए ।"
अदिति खामोश रही । भाई और माँ को यादकर उसकी आँखें भर आईं तो उसने अपना हाथ दीपू के सिर पर रख दिया जो उसके अनजाने चेहरे को टुकुर-टुकुर ताक रहा था ।
" मैंने निर्णय कर लिया है कि दूसरा विवाह न कर अपने पाप का प्रायश्चित करूँगा । अभी तक दीपू को पाल रहा था पर अब उसका पिता बनूँगा , ताकि कभी उसे जीवन में अपने अनाथ होने का दुख न हो । फिर शायद ऊपर वाला मेरे गुनाह की सजा कुछ कम कर दे ।"
और इस तरह एक नया समीकरण बन गया था उन रिश्तों के बीच । अदिति के पति ने दीपू को लाने का विरोध तो नहीं किया था , पर उसे सही भी नहीं ठहराया था । वह जवाब में सिर्फ इतना ही बोली थी , " माली बदल गया तो क्या ? वह फूल है तो मेरे ही बाग का । थोड़ी देर को ही सही , उसकी खुशबू तो ले ही सकती हूँ न ?"
मौलिक एवम अप्रकाशित ।
अंतिम पंक्ति सच्चाई को बयाँ करती भावपूर्ण रचना,बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीया शशि दी.
सादर आभार आद0 बबिता गुप्ता जी ।
रचना का विषय तो बढ़िया है लेकिन प्रस्तुतीकरण में थोड़ा उलझाव है जिससे बहुत स्पष्ट नहीं हुई मुझे यह, शायद मेरी समझ का फ़र्क़ है. एक बार पुनः रचना पर गौर कीजिये, बधाई आपको आ शशि बंसल जी
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