आदरणीय साथिओ,
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बहुत सुन्दर रचना विषय पर, कभी कभी ऐसे चोट की जरुरत होती है. बधाई इस रचना के लिए आ नीता कसार जी
आदरणीया नीता कसार जी, दिए गए विषय पर सुन्दर रचना की प्रस्तुति। हार्दिक बधाई।
बहुत बढ़िया रचना आदरणीय नीता जी ,बधाई आपको ,सादर
बहुत अच्छे से विषय को परिभाषित करती हुई कथा
विषयांतर्गत रिश्ते निभाने पर केंद्रित बदलाव का नज़रिया पेश करती बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया नीता कसार साहिबा। कहींं-कहीं कौमाज़/इन्वर्टेड कौमाज़ छूट गये हैं। नाम 'नरेन्द्र' के उल्लेख की उतनी आवश्यकता नहीं थी बाद के संवाद में! अथवा पहले ही उल्लेख किया जा सकता है किसी संवाद के साथ।
हार्दिक बधाई आदरणीय नीता कसार जी।प्रदत्त विषय पर बढ़िया लघुकथा।
आदरणीया नीता कसार जी आदाब,
प्रदत्त विषय को सार्थक करती बेहतरीन कथा । संवाद भी अच्छे । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
मुह तरमा नीता साहिबा, प्रदत्त विषय पर सुंदर लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l
सुन्दर रचना के लिए बधाई
प्लेटो की गुफ़ा
प्लेटो की हैरानी का ठिकाना नहीं था। बदन पर चमकदार जीन्स, टी-शर्ट, सर पे उल्टी टोपी, आँखों में रंगीन चश्मा और कानों में हेडफ़ोन! क्या यही उसका सुकरात है?
"तुम यहाँ बैठे हो? मैंने तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा।" सुकरात को प्लेटो ने पहचान लिया था। "और ये क्या हाल बना रखा है?"
अपनी ही धुन में मस्त सुकरात की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया। उसने बोतल से शराब को गिलास में उड़ेला और उसे पीने लगा।
"लगता है तुम भूल गये हो कि तुम्हें क्या करना है।" प्लेटो ने सुकरात को याद दिलाते हुए कहा। "ये गुफ़ा एक छलावा है। असली दुनिया इसके बाहर है। वहाँ जाओ और लौटकर सबको बताओ कि सच क्या है।"
बोतल अब तक खत्म हो चुकी थी। सुकरात ने दूसरी बोतल उठायी और एक बार फिर पैग बनाने में व्यस्त हो गया।
"सुकरात! तुम एक दार्शनिक हो।" प्लेटो ने उसे पुनः समझाने का प्रयास किया। "अगर तुम ही परछाईयों को वास्तविक समझोगे तो आम लोगों का क्या होगा? इन्हें बताओ कि मूल प्रतियाँ बाहर हैं।"
सुकरात की दूसरी बोतल भी खत्म हो चुकी थी। उसने प्लेटो की तरफ़ देखा और कहा, "बाहर कोई दुनिया नहीं है प्लेटो। यही असली दुनिया है। अपनी नजरें उठाकर देखो। ये तुम्हारी गुफ़ा नहीं, दिव्य लोक है।"
'ऐसा कैसे हो सकता है?' मन ही मन सोचते हुए प्लेटो गुफ़ा को चारों तरफ़ से देखने लगा।
सुकरात ठीक कह रहा था। गुफ़ा बदल चुकी थी। अब वो अँधेरे से नहीं बल्कि रोशनी से भरी थी। आग की जगह सूरज को साफ़ देखा जा सकता था। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, बादल-झरना, वहाँ सबकुछ था। जो बन्दी कभी ज़ंजीरों से जकड़े हुए थे, अब वो पूरी तरह आज़ाद थे और आसानी से गुफ़ा में घूम रहे थे। अब वे सिर्फ़ एक ही दीवार की तरफ़ देखने के लिये विवश नहीं थे। दीवार के चारों ओर बड़े-बड़े पर्दे लगे थे जिनमें कठपुतलियाँ नाच रही थीं। उन्हें देखते हुए सभी के चेहरे पर एक मुस्कान थी। हर कोई खुश था।
"कुछ तो गड़बड़ है।" अपनी आँखों से सबकुछ देखने के बाद भी प्लेटो को यकीन नहीं हुआ। "यहाँ ज़रूर कहीं न कहीं बाहर निकलने का रास्ता होना चाहिये।"
प्लेटो ने बहुत कोशिश की पर उसे कहीं कोई रास्ता नहीं मिला। वह अपनी ही गुफ़ा में बुरी तरह से फँस चुका था।
मगर वह सही था। असली दुनिया गुफ़ा के अन्दर नहीं बल्कि बाहर थी जहाँ लोग ज़ंजीरों से जकड़े हुए थे। वे भूखे-प्यासे, ग़रीब और मजदूर थे जिन्हें ग़ुलाम बना कर रखा गया था।
प्लेटो अब तक समझ चुका था कि गुफ़ा के अन्दर ही एक कृत्रिम दुनिया का निर्माण कर उसे जेल में बदल दिया गया है। जब बाहर कोई जा ही नहीं पाएगा तो लोगों को सच्चाई का पता कहाँ से चलेगा। इस तरह अब दार्शनिकों को मारने की ज़रूरत ही नहीं बची थी।
प्लेटो ने सुकरात की तरफ़ देखा और कहा, "ये दुनिया गुफ़ा नहीं एक बहुत बड़ी जेल है।" मगर सुकरात अपनी ही दुनिया में मस्त था।
(मौलिक व अप्रकाशित)
प्रदत्त विषय पर एक लाजवाब परिकल्पना आदरणीय महेंदर कुमार जी, समाज के वर्तमान हालात और मनुष्य विचारधारा को लक्ष्य करती ये रचना सहज ही एक ऐसा दृश्य सामने रखती है पलेटो और सुकरात के आपसी वार्तलाप के जरिये, जो पाठक को सोचने पर विवश कर देता है... हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय भाई जी, इस विचारशील रचना के लिए...सादर
ये दुनिया गुफ़ा ही नही एक बहुत बड़ी जेल है ।प्लेटों ,सुकरात को आधार बना कर लिखी कथा के लिये बधाई आद०महेंनद्र कुमार जी ।
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