आदरणीय साथिओ,
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जनाब मुज़फ़्फ़र इक़बाल साहिब आदाब, प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
बहुत बहुत शुक्रिया ,जनाब
इस सुंदर रचना के लिए बधाई आदरणीय मुज्जफर इकबाल सिद्दकी जी .
आदरणीय मुजफ्फर इक़बाल सिद्दीक़ी जी , दत्त विषय को सार्थक करती रचना के लिए बधाई , सादर।
हार्दिक बधाई आदरणीय मुजफ़्फ़र इक़बाल सिद्दिक़ी जी। प्रदत्त शीर्षक पर बहुत बढ़िया लघुकथा।आस्था किसी भी धर्म में रखो, वह अपना रंग अवश्य दिखाती है।
आदरणीय इक़बाल सिद्दीकी साहब, सुन्दर लघुकथा की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ।
//वक़्त गुज़रता गया//
लघुकथा में इस तरह वक़्त नहीं गुज़रा करता आ० मुज़फ्फ़र अली सिद्दीकी जी, कहानी या उपन्यास में गुज़रता हैI लघुकथा में आईएस मक़सद के लिए पूर्व-दीप्ति तकनीक इस्तेमाल की जाती है।
ईश्वर सर्वोपरि हैं,प्रार्थना अवश्य पूरी होती हैं,बस विलम्व थोड़ा हो जाता हैं.बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीय मुजफ्फर सरजी।
विषयांतर्गत बहुत बढ़िया रचना। हार्दिक बधाइयां मुहतरम जनाब मुज़फ़्फ़र इक़बाल सिद़दीक़ी साहिब। कालखंड दोष दूर किया जा सकता है।
प्रदत्त विषय पर अच्छी कथा है आदरणीय मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीक़ी जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। आपकी रचना में "कालखण्ड दोष" है जिस ओर आदरणीय योगराज सर ने इशारा भी किया है। उस पर ध्यान दीजिएगा। सादर।
आदरणीय मुज़फ़्फर जी आदाब,
प्रदत्त विषय को सार्थक करती बेहतरीन लघुकथा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
भोलापन या बड़बोलापन (लघुकथा) :
"मेरा विकास और सशक्तिकरण देख कर तुम बड़बोलेपन पर उतर आए हो आक़ाओं के हाथों मालामाल होकर!"
"तुम क्यों जल रहे हो? अवसरवादिता के साथ हम अपना पेशा यूं ही करते आये हैं और विकसित होते रहे हैं अपने सशक्तिकरण के साथ! जनता हम पर और हम जनता पर आस्था रखते हैं; तुम में दम हो, तो अपने घटक-दलों की 'खोई हुई जवानी' और 'खोई हुई ताक़त' अपने समूह में झोंक कर देख लो इस बार के आम चुनावों में!" लोकतंत्र के नवीन 'राजनीतिक-दल-महागठबंधन' के कटाक्ष पर वहां के 'मीडिया' ने बड़ी ढीटता से कह ही डाला - "हमारी विज्ञापन शैली, समाचारों और 'बहस-चर्चाओं' से मुक़ाबले में तुम्हें एक और चुनौती है इस बार!"
"उन रणनीतियों पर तुम्हारा विश्वास इस बार तुम्हें पिछली बार की तरह जीत नहीं, करारी शिकस्त देने वाला है गुरु! ..स्वीकार है तुम्हारा चैलेंज!" महागठबंधन ने अतिआत्मविश्वास के सुर अपनी भड़ास में मिलाते हुए कहा - "तुम्हारा ग़ुरूर तो ढह जायेगा, जब तुम्हारे झूठ, तुम्हारी लोकतंत्र-घातक रणनीतियों, छद्म-योजनाओं और धनसंचयन के घोटालों का हम मिलजुलकर पर्दाफाश करेंगे!"
"तुम बड़े दूध के धुले हो न! 'घोटालों की महामारियों 'और 'अनुभवी स्वच्छ छवि वाले क़द्दावर नेताओं के सूखे' से पीड़ित तुम्हारे घटक दल अब मृतप्राय हैं! हमसे कितनी ऑक्सीजन दिलवाओगे! हमारी भी सीमाएं हैं सत्ता के प्रभाव और दबाव में!" मीडिया ने कुछ पुरानी फाइलें, न्यूज़-कवरेज़ और रिपोर्ताज़ के हवाले पेश करते हुए महागठबंधन से इतराकर कहा।
'जनता' भौंचक्की सी सब देख-सुन रही थी। लोकतंत्र और संविधान में , धर्म और विधि-विधान में उसका विश्वास डावांडोल हो रहा था, किंतु ग़ायब नहीं!
"हम न तो अंधे हैं और न ही तुम दोनों के 'अंधे धंधों' में शामिल हूं!" 'जनता' ने अपने अनुभव आधारित पीड़ाओं को मुखरित स्वर में बयां करते हुए कहा - "हां, शोषित, दिग्भर्मित ज़रूर हूँ! ...तुम किसी मज़हब की दुखती रग़ पर हाथ रख हमारे भावात्मक शोषण की कितनी भी कोशिश कर लो या हमारी आस्थाओं पर कुठाराघात करते रहो; हम अपने मुल्क और इसकी असली तहज़ीब के साथ तुम्हारी तरह कभी दग़ा नहीं करेंगे! भटक सकते हैं, प्रलोभनों में अटक सकते हैं ...लेकिन लोकतांत्रिक आस्थाओं और ज़िम्मेदारियों से सटक नहीं सकते! जन-जागरूकता में देर है, अंधेर नहीं! तुम दोनों हमसे हो, हम तुमसे नहीं!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
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