आदरणीय साथिओ,
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घर केवल सहूलियत नहीं जिम्मेदारी का नाम है और उसकी ज़रा सी बेपरवाही आपके संसार और आपके अधिकार दोनों को बर्बाद कर सकती है।
बहुत अच्छी रचना जनाब गंगाधर शर्मा जी।
हार्दिक बधाई आदरणीय गंगाधर शर्मा "हिंदुस्तान" जी। लघुकथा गोष्ठी का आगाज करने के लिये।आपकी लघुकथा में छिपा संदेश उत्तम है लेकिन ऐसी लघुकथा में किसी धर्म या जाति का उल्लेख करने से बचा जाय तो बेहतर होता है। यह मेरी निजी सोच है।
रचना का विषय बहुत क्रन्तिकारी सा है। 60 साल बनाम 16 साल भारतीय सभ्यता में हजम होना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन असंभव नहीं। इस रचना पर थोड़ा सा समय और दें तो बेहतरीन रचनाओं में से एक हो सकती है, मुझे ऐसा विश्वास है। सादर बधाई स्वीकार करें इस सृजन हेतु।
ओह, बहुत गंभीर भाव की रचना प्रदत्त विषय पर, आ चंद्रेश छतलानी जी की बात से मैं सहमत हूँ. बहरहाल बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए
बहुत सुंदर कथ्य है आद: गंगा धर जी, हालांकि प्रस्तुति में 'काल' का सही से संयोजन नहीं किया है वर्तमान में चलती कथा का अंत लेखकीय शब्दों में /मुद्दसर बेगम अपनी ऊपर-नीचे चलती साँस को काबू में करने की चेष्टा में जान ही न पाई उसका घरबार फिसल कर झाड़ू की तरह जरीना के हाथों में कब पहुँचा।/ कुछ असहज सा लग रहा है. बरहाल भाई चंद्सरेश कुमार जी की टिप्पणी काफी गौरतलब है ध्यान दीजिये, हार्दिक बधाई के साथ सादर भाई जी.
वाह! रचना का विषय वाकई क्रांतिकारी सा है| गोष्टी का आगाज़ करने हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय गंगाधर शर्मा 'हिनुदास्तान' जी जिसके लिए हार्दिक बधाई| साथियों की राय से सहमत हूँ| रचना और समय मांग रही है आदरणीय| सादर|
शीर्षक आधारित कथा के जरिये गंभीर विषय उठाया है।कथा के लिये बधाई आद० गंगाधर शर्मा जी ।
आदाब। कुछ नया गंभीर सा पढ़ने को मिला। हार्दिक बधाई जनाब गंगाधर शर्मा 'हिंदुस्तान' साहिब। रचना में आप जो कहना चाहते थे, वह मेरी पाठकीय नज़र में बहुआयामी है। नातिन का यतीम होना /बहुविवाह/ एक्स्ट्रा मेरिटल मुआमला/व्याभिचार/यतीम शोषण/ बुज़ुर्ग विमर्श .... आदि। आशय यह जो एक बात आप उभारना चाहते हैं, उस हेतु हम जैसे सामान्य पाठक के लिए रचना पर आपको और अधिक समय देना चाहिए। सादर।
आदरणीय Ganga Dhar Sharma 'Hindustan' जी प्रथम प्रस्तुति की
बहुत बहुत बधाई सुंदर रचना सादर ।
अच्छी लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
पव्वा
*****
फत्ता और नफे दोनों रिक्शा चलाते हैं। अभी 10 दिन से दोनों की जान पहचान हुई है। और दोनों की ऐसी पटी कि रोज़ शाम को पव्वे का कार्यक्रम साथ ही होता है। कल शाम की मुलाकात:
- चल फत्ते, चले अपने ठिकाने!
- नहीं भाई नफे, आज नहीं।
- क्यों?
- आज कमाई कम रह गई यार।
- तो क्या हुआ, 20 रुपये मुझसे ले ले। कल वापस कर देना।
- नहीं यार ये नहीं कर सकता। तुझे मेरे घर का सिस्टम नहीं पता।
- अच्छा तो चल बता दे।
- देख भाई। मेरे दो बेटे हैं। एक के जिम्मे बिजली-पानी का बिल, बच्चों की स्कूल फीस है। दूसरे के जिम्मे राशन, दूध, सब्जी। आने-जाने वालों का, हारी-बीमारी का सारा खर्चा मेरी घरवाली अपनी बचत से करती है।
- तो
- तो! भाई, रोज का 80 रुपये रिक्शा किराया, 100 रुपये तेरी भाभी को देने, 20 रुपये मेरी बीड़ी-चाय और 50 रुपये डाकखाने की कॉपी। टोटल ढाई सौ के बाद नंबर है अपने पव्वे का। जिसदिन ढाई सौ नहीं, उस दिन पव्वा नहीं। और उसकी भरपाई अगले दिन की कमाई से। इसलिए आज भी पव्वा नहीं, कल का कल देखेंगें।
- कोई ना। आज की छूट ले ले यार। आज की पार्टी मेरी तरफ से। यारों का यार है नफ़े भी। आजा अब।
- ना यार। मेरी देखा-देखी घर वाले भी छूट लेने लगे तो? एक पव्वे को तो मैं अपना घर बिगाड़ने दूंगा नहीं।
इधर नफ़े सोच रहा था कि ये 'पव्वा' किसे कह रहा है।
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