आओ और निकट से देखो
हिलोरें लेते इस पारावार को
हमारा जीवन भी ऐसा ही है
नीर जैसा स्वच्छ और निर्मल
जब पयोधि क़ी लहरें छूती हैं
रेत क़ी फ़ैली हुई कगार को
तब वह समेट लेती सब कुछ
और ले जाती है पयोनिधी में
हम मनुष्य भी तो ऐसे ही हैं
जब हम प्रेम में होते हैं तब
ढूंढते रहते हैं बस एक साहिल
ताकि समेट सकें स्वयं में सब कुछ
किंतु उदधि और मनुज क़ा प्रेम
उदर में ज्य़ादा काल नहीं टिकता
अर्णव तट को लौटाता अगले दिन
और मनुष्य उपयोग के बाद! !
मौलिक व अप्रकाशित
-प्रदीप देवीशरण भट्ट -01.01.2020
Comment
Shandaar rachna
आ. भाई प्रदीप देवीशरण जी, रचना के 'फीचर्ड' होने पर हार्दिक बधाई ।
जनाब प्रदीप जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
आद0 प्रदीप देवीशरण भट्ट जी सादर अभिवादन। बढ़िया भाव सम्प्रेषण,, बढिया सोच,, इस उम्दा सृजन पर मेरी कोटिशः शुभकामनाएं और बधाई आपको
आदरणीय श्री प्रदीप देवीशरण भट्ट जी इस सार्थकरचना पर बधाई।
आ. भाई प्रदीप देवीशरण जी, सादर अभिवादन। सुंदर रचना हुई है हार्दिक बधाई स्वीकारें ।
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