आदरणीय साथियो,
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स्वागतम
मैं हारी नहीं हूँ.....
मानवता को शर्मसार करते दुर्व्यवहार से बिन पानी की मछली की तरह तड़पती तीन महीने जीवन-मौत के संघर्ष मे न्याय की गुहार लगाती सुकन्या ने दम तोड़ दिया। सुकन्या के मां-बाप को जांच-पड़ताल में बेशर्मी भरी बातें बर्दाश्त से बाहर हो रही थी।अदालती कार्यवाही में सुकन्या के साथ हुये अमानुषी कृत्य करने वालों को दण्ड देना तो दूर बल्कि उसकी बेटी के चरित्र पर लांछन लगाकर अपराधियों को बरी कर दिया गया।
टीवी, अखबारों, लोगों के व्यंग्य वाणों की बौछारों से सुकन्या के मां-बाप का कलेजा चीत्कार कर रहा था।
सुकन्या के बापू का अंतर्मन धिक्कार रहा था...पुरजोर कोशिश के बाद भी अपनी बेटी को न्याय न दिला सके।
बेटी के गम में बुत बनी सुकन्या की माँ को संभालते हुये सुकन्या के बापू के हारे कदम घर की ओर घिसट रहे थे कि तभी अपनी ओर आते नारे लगाते जुलूस की ओर देखा....लोगों के दबे आक्रोश ने आंदोलन का रूप ले लिया था...महिला ,पुरूष, लड़कियां...चारों दुष्कर्मियों का घेराव कर...सुकन्या के साथ हुये अन्याय के खिलाफ नारे लगाते हुये लाठी-लात-घूंसे बरसाने लगे।और देखते-देखते जन आंदोलन बन गया।
आक्रोशित जनता की आग्नेय नेत्रों में अपराधियों के प्रति घृणा की चिन्गारी और बुलंद दृढ़ात्मक आवाजों में सुनाई देती सुकन्या की आवाज.. .. बापू ! गुहार दफन नहीं हुई, अभी जिन्दा हैं।
स्वरचित व अप्रकाशित
आदाब। गोष्ठी के आग़ाज़ में विषयांतर्गत गंभीर रचना हेतु हार्दिक अभिनंदन और बधाई आदरणीया बबीता गुप्ता जी। रचना पर हमारी पाठकीय राय शाम तक।
बहुत-बहुत धन्यवाद, सर
नमस्कार, आदरणीया! बहुत गम्भीर विषय को उकेरती सार्थक रचना है, आपकी! परन्तु, क्षमा करें, लघुकथा कम रिपोर्ताज ज्यादा प्रतीत हुई!
आ. बबीता बहन, सादर अभिवादन । अच्छी कथा हुई है। हार्दिक बधाई।
मैं जीत गई
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सुहाग की सेज पर लाल जोड़े में लिपटी बैठी झुनकी अपने अतीत में खोई हुई है। चेहरे पर घूंघट नहीं है।आज पहली रात अपने साजन को क्या सौगात भेंट करेगी,यह सवाल उसे कुरेदे जा रहा है।मन उद्विग्न है,मस्तिष्क भावशून्य।
मद्धिम ध्वनि के साथ दरवाजा खुला।साजन ने प्रवेश किया। वह नजरें झुकाए रही। दीदार पाकर खुद को धन्य समझ साजन ने उतावली में बत्ती बुझा दी।
'ओह!' झुनकी के मुंह से अनायास ही निकल गया।
'क्या हुआ?'साजन ने सहमते हुए पूछा।
' कु...कुछ नहीं। वह हड़बड़ा गई।
साजन उसके समीप बैठ गया।फिर उसकी स्पर्शजनित ऊष्मा से वह मानो ऊर्जस्वित हो उठी।उसने कहा,
'अंधेरे ने डरा दिया था।'
'अंधेरे से डर लगता है तुम्हे?'
'पहले तो नहीं लगता था,पर आज लगा।'स्वतः उसके मुंह से निकल गया।
'मसलन?' साजन ने कुरेदा।
' ऐं ऐं....अंधेरे में जीना तब मेरी नियति बन गया था।' साजन की मजबूत होती पकड़ उसमें पुनः साहस का संचार करने लगी थी।
'कैसा अंधेरा?कैसी नियति,रानी? मैं कुछ समझा नहीं। खुलकर बताओ। मैं तुम्हारा हूं।तुम भी मेरी हो जाओ।'
' हो चुकी हूं।पर कितना हो सकती हूं,यही दुविधा है।'
'कैसी दुविधा, प्रिये?बोलो तो।'
'साथ दोगे?'
'क्यों नहीं?'
'तो सुनो।'
और उसने अपने अतीत की पोटली अपने पति के सामने खोल दी।ढोंगी बाबा,नशेरी पुजारी, गांव के दल्ले -दलालों और नेता के उसके साथ हुए नंगापन को उसने विस्तारपूर्वक बयां कर दिया। फिर मौन हो गई।
पति की पकड़ ढीली हुई।वह सहम गई।पति बिस्तर से उतरा।बत्ती जलाई।देर तक प्रेयसी के मुख चंद्र को निहारा।फिर बोला, 'चांद का दाग भी पूजनीय है, प्रिये। कल ही अदालत चलेंगे।मुकदमा ठोक देंगे इन कमीनों पर।'
यह सब सुनकर झुनकी साजन का मुखड़ा चूमने लगी।साजन की मजबूत पकड़ उसे अब भाने लगी थी।अनायास ही उसके मुंह से निकला, 'मैं जीत गई।'
"मौलिक व अप्रकाशित"
आदरणीय मनन कुमार सिंह जी बहुत ख़ूब लघुकथा हुई बधाई।
नमस्कार, मनन कुमार सिंह भावपूर्ण लघुकथा है! परन्तु भाव- बोध का पटाक्षेप कथ्य पर होता, कदाचित श्रेयस्कर होता!
आभार आदरणीय चेतन जी।
आभार आदरणीया रचना जी।
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