आदरणीय साथियो,
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शुभप्रभात आदरणीय मंच। रचनाओं की प्रतीक्षा है।
सीन नॉट अनसीन (लघुकथा) :
देश के रंगमंच पर एक तरफ़ शिक्षा, स्वास्थ्य और काम अर्थात रोज़गार नयी सदी के चलन और नियति अनुसार भूमिकाएं निभा रहे थे, तो दूसरी तरफ़ राजनीति, मीडिया और डिज़ीटल तकनीक। बदलते दौर के फ़ैशन की तरह उन सब की भूमिकाओं में बदलाव हो रहे थे। रोटी, कपड़ा और मकान पहले की तरह भयंकर उलझन में थे। क्या करें, क्या न करें? जियें, तो कैसे जियें? कपड़ा और मकान अब 'रोटी' पर हावी हो रहे थे। 'रोटी' शिक्षा और स्वास्थ्य पर हावी हो रही थी। काम अर्थात रोज़गार पर डिजिटल तकनीक हावी हो रही थी। डिजिटल तकनीक और मीडिया पर राजनीति कुछ तरह से हावी थी कि शिक्षा और स्वास्थ्य उसके हाथों कठपुतली बने रहें और काम अर्थात रोज़गार भी। रोटी की गोटी भी राजनीति के हाथों में ही थी और रंगमंच के खेल का पासा भी। 'दो जून की रोटी' हो या काम/रोज़गार, शिक्षा हो या स्वास्थ्य... इंसान तो बस भगवान के भरोसे था और भगवान कुछ बड़े या ख़ास लोग ही बने हुए थे। अजब माज़रा था। ग़ज़ब तमाशा था।
(मौलिक और अप्रकाशित)
आज की लघुकथा गोष्ठी का आगाज़ करने के लिये हार्दिक बधाई आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी। आपने प्रयास अच्छा किया है लेकिन मुझे आपकी इस लघुकथा में कहीं भी श्रेष्ठ लघुकथाकार शेख उस्मानी जी की झलक नहीं दिखाई पड़ी। आपकी कुछ लघुकथायें तो मील का पत्थर साबित हो चुकी हैं। मैं आपका और आपकी लेखनी का विशेष रूप से प्रशंसक हूँ।पर इस बार मुझे निराशा हाथ लगी। मुझे इस लघुकथा का मंतव्य और गंतव्य ही समझ नहीं आया। शायद आपको मेरी टिप्पणी बुरी लगे।उसके लिये क्षमा चाहूंगा।हालांकि मैं भी इस विधा में नौसिखिया ही हूं। इसलिये मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि यह मेरी निजी सोच है।कोई दावा नहीं।मैं गलत भी हो सकता हूं। सादर।
आदाब। श्रेष्ठता के लिये तो अभी आप सभी के सान्निध्य और मार्गदर्शन में बहुत मेहनत करना बाक़ी है । बेबाक स्पष्ट टिप्पणियों से ही सबक़ और मार्गदर्शन मिलते हैं। बहुत-बहुत शुक्रिया जनाब तेजवीर सिंह साहब इस अमूल्य हौसला अफ़ज़ाई हेतु। यह रचना एक अभ्यास है कुछ अलग तरह से रोटी की विडंबनाओं का संकेत करने का। इसे विवरणात्मक या मिश्रित शैली की अच्छी सम्प्रेषणीय लघुकथा में विकसित करने हेतु सुझाव आप सभी से चाहिए मार्गदर्शन तहत।
आद0 शेख शहज़ाद उस्मानी जी सादर अभिवादन। लघुकथा है ये या कोई लेख,,मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। मुझे लघुकथा जैसा कुछ प्रतीत नहीं हुआ। बहरहाल इस प्रयास पर बधाई
नमस्कार। हार्दिक स्वागत आदरणीय नाथ सोनांचली जी। उपरोक्त टिप्पणी अनुसार मैंने यह विवरणात्मक शैली की लघुकथा कहने का अभ्यास किया है। सुझावों का सदैव स्वागत है। शुक्रिया।
शिक्षा स्वास्थ्य रोजगार आदि आदि को पात्रों का रूप देकर संवादों के साथ र॔गमंच पर एकांकी शैली में रखा जाय तो एक प्रभावशाली लघुकथा बन जायगी।आप अपनी सशक्त कलम से इसपर काम कर सकते हैं
जी, पहले ऐसा ही सोचा था। लेकिन यह तरीक़ा भी आजमाना चाहा। उन शैलियों में रोटी विषयक अन्य रचना भी तैयार थी। आपके मार्गदर्शन अनुसार इसे भी तदनुसार लिखने की कोशिश करूँगा। प्रोत्साहन और सुझाव हेतु शुक्रिया आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी।
//इंसान तो बस भगवान के भरोसे था और भगवान कुछ बड़े या ख़ास लोग ही बने हुए थे//
कैसी विषम विडम्बना है समकालीन समाज की कि आम आदमी बस हतप्रभ है और हर तरफ से छला जाता है
सुंदर लघुकथा हुई है
बधाई आ० शेख़ शाहज़ाद उस्मानी जी
आदाब। हार्दिक स्वागत। पंक्ति इंगित करते हुए कम शब्दों में सारगर्भित समीक्षात्मक टिप्पणी, राय और हौसला अफ़ज़ाई हेतु हार्दिक धन्यवाद मुहतरमा डॉ. प्राची सिंह साहिबा।
"रोटी"
ये बात उस समय की है जब मैं सातवी कक्षा में पढ़ता था। मेरे साथ कुल 4-5 दबंग छात्रों का समूह बन गया था। हम अपेक्षाकृत घर से अमीर थे और हमें ग़रीबी क्या होती है इसका अहसास भी नहीं था।
हम लोग घर से स्कूल के लिए अपना टिफ़िन नहीं लाते थे। टिफ़िन न ले जाने के पीछे का कारण कुछ ख़ास नहीं था। बस टिफ़िन ले जाने में बेइज्जती महसूस होती थी और साथ -ही साथ घर की गेहूँ की बनी रोटी और हरी सब्जी पता नहीं क्यों पसंद भी नहीं आती थी।
स्कूल में हम लोग लंच के समय अक्सर कमज़ोर बच्चों का टिफ़िन खा जाया करते थे। चूँकि हमलोगों की प्रवृत्ति दबंग क़िस्म की थी और घर से भी हम लोग जमीदार टाइप के थे इसलिए वे बच्चे हम लोगों की शिकायत भी नहीं करते थे।
बरसात का समय था और खेतों में मक्के की फसल तैयार हो गयी थी। एक लड़का जिसका नाम गोपाल था वह मक्के की रोटी लाता था। उसकी माँ सील बट्टे पर कच्चे मक्के को पीस कर उसके आटे से रोटी बनाती थी और वह रोटी बेहद स्वादिष्ट लगता था। हम लोग उसकी रोटी लंच से पहले ही खा जाते थे और वह भूखा रह जाता था।
एक दिन हिंदी के अध्यापक ने कविता "ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी" को घर से याद करके आने को बोला। अगले दिन वे सबसे पूछने लगे। सबसे पहले मेरी बारी थी। मैं चूँकि याद किया हुआ था इसलिए तुरन्त सुना दिया।
पर कई बच्चे नहीं बता पाए। न बता पाने वाले लड़को में वह गोपाल भी था।
अध्यापक ने मारने के लिए छड़ी उठायी और न बता पाने वाले लड़कों को एक-एक कर मारने लगे। जब वे मारते तो मेरा उदाहरण देते और बोलते कि देखो वह इसे याद करके आया है न? फिर तुम लोग इसे याद क्यों नहीं कर सकते थे।
मारते -मारते वे गोपाल के पास पहुँचे और उसके दोनों हाथों पर दनादन छड़ी से मारने लगे। मारते वक़्त उन्होंने पुनः मेरा उदाहरण दिया। इतने में गोपाल की सहन शक्ति जवाब दे गई।
वह बोल पड़ा- "गुरुजी जी आपको जितना मारना है मार लीजिये लेकिन सुरेश का उदाहरण मत दीजिये। अपने पुराने और गन्दे शर्ट को पेट से ऊपर उठाकर वह आगे बोला 'गुरुजी ये देखिये, कल से कुछ खाया नहीं हूँ, पेट एकदम खाली है।"
वह आगे बोला "सुरेश घर जाता है तो इसके पास पढ़ने के सिवा कोई और काम नहीं होता है। जबकि जब मैं घर जाता हूँ तो रात के लिए भोजन की व्यवस्था कैसे हो, इसमें लग जाता हूँ। गुरुजी आप तो जानते ही हैं कि हम मजदूर जैसे लोगों के लिए तो रोज कुआ खोदना रोज पानी पीना है। चूँकि मेरे पापा भी नहीं है तो मम्मी ही किसी न किसी के खेत पर काम करती हैं और बन्नी (मजदूरी) के रूप जो मक्का मिलता है तथा उसी के पीस कर रोटी बनाती है और किसी तरह एक टाइम का जुगाड़ हो पाता है। चूँकि मुझे स्कूल जाना होता है तो मम्मी शाम की रोटी में से एकाक रोटी बचाकर अगले दिन के लिए दे देती हैं। वही खाकर पूरे दिन हम रह जाते हैं।"
जब गोपाल यह बता रहा था तो मैं बस यही सोच रहा था कि यह जो रोटी खाने के लिए लाता है वह तो हम सब छीन कर खा जाते हैं। पर यह तो उफ्फ भी नहीं करता। मैं कितना गिरा हुआ लड़का हूँ । मेरे लिए भले इसकी एक रोटी की क़ीमत कुछ न हो लेकिन इसके लिए रोटी कितनी क़ीमती है कि इसका अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता।
(मौलिक व अप्रकाशित)
वाह। बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण संस्मरणात्मक रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय नाथ सोनांचली जी। /एक दिन/ और /अगले दिन/ के उल्लेख के साथ लघुकथा में वर्जित कालखण्ड उपस्थित हो गया है बेहतरीन रचना में। यह लघु संस्मरण या लघु कहानी हुई है मेरे विचार से। रचना के अंतिम भाग में एक लघुकथा या दो पृथक लघुकथायें अवश्य विद्यमान प्रतीत होती हैं विसंगतियों को उभारती। आशय यह कि इस लम्बी रचना में से आप बेहतरीन दो छोटी-छोटी लघुकथायें सृजित कर सकते हैं अथवा सम्पूर्ण रचना का सम्पादन कर दोनों कालखण्ड हटाकर संस्मरणात्मक या आत्मकथ्यात्मक शैली की कम शब्दों की एक ही बढ़िया लघुकथा कह सकते हैं ... मुझे ऐसा लगा। शेष गुरुजन बतायेंगे ही।
/ वह रोटी बेहद स्वादिष्ट लगता था (लगती थी)/
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