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शुक्रिया अफ़रोज़ साहिब ।
आ. समर सर,
दूसरी ग़ज़ल पहली से भी बेहतर हुई है.. ऐसा कम ही देखने को मिलता है...और यही आपकी ख़ूबी भी रही है..
इस ग़ज़ल के लिए ढेरों बधाईयाँ
जनाब निलेश जी आदाब,बहुत बहुत शुक्रिया इस सुख़न नवाज़ी के लिए ।
वाह! ये ग़ज़ल भी शानदार। शेर-दर-शेर दाद के साथ मुबारक़बाद हाज़िर है आदरणीय समर कबीर सर। ढेरों बधाई। सादर।
जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब,बहुत बहुत शुक्रिया,सुख़न नवाज़ी के लिए आपका ।
बेहद उम्दा ग़ज़ल आ0 समर साहब.... क्या कहने !!!
जनाब आकाश जी आदाब,बहुत बहुत शुक्रिया ,नवाज़िश ।
आदरनीय समर जी, बहुत ही सुंदर शायरी की मुबारकबाद
बहुत बहुत शुक्रिया मोहन जी आदाब ।
आद० समर भाई जी दूसरी ग़ज़ल भी बहुत शानदार हुई शेर दर शेर दाद हाज़िर है
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वक़्त जब इम्तिहान का आया
छोड़ कर वो चला गया है मुझे
कोई मेरे सिवा न था उसमें
खोल कर दिल दिखा गया है मुझे
इन दोनों के लिए तो विशेष दाद लीजिये
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपका ।
वाह ! दूसरी ग़ज़ल भी !
ये भी जानदार अश’आर से पूरी हुई है, आदरणीय समर साहब.
याद फिर कोई आ गया है मुझे
ख़ूँ के आँसू रुला गया है मुझे ............. ख़ूँ के आँसू रुलाने वाले को लानत भेजिए साहब्. आप यों ही मुस्कुराते रहें. आमीन !
ये भी ऐज़ाज़ कम नहीं यारो
पास दिल के रखा गया है मुझे............. इस शेर के होने के पीछॆ की नर्म भावनाओं को समुचित आदर देते हुए इतना ही कहूँगा, कि आदमी वही जगह पाता है जो वह दूसरों के लिए बनाता है. इक़बाल बना रहे हुज़ूर का.
ज़िन्दगी थी तो साथ ग़म भी था
अब तो आराम आ गया है मुझे ............ ओह ! क्या ग़ज़ब की सचबयानी है ! सच है साहब, ग़म और मसाइल ही किसी ज़िन्दग़ी के होने की कहानी हुआ करते हैं. वर्ना आराम तो आखिरी मुद्रा को ही मिलती है.
कमाल साहब कमाल ..
आके हुजरे में एक शब कोई
ख़ुशबुओं में बसा गया है मुझे............... वहवा वहवा ! हुजरे में शब के आने का मंज़र क्या ख़ूब साझा किया है आपने. और फिर उसका खुश्बुओं के आग़ोश में बसा देना. एक मुलायम-सा शेर हुआ है, साहब.
वक़्त जब इम्तिहान का आया
छोड़ कर वो चला गया है मुझे............. यही ज़माना है, यही दुनिया है. एक कठिन जीवन की सच्चाई बयान हुई है.
कोई मेरे सिवा न था उसमें
खोल कर दिल दिखा गया है मुझे........... वाह, समर भाई वाह. शक की बुनियाद को ऐसा ज़ोरदार झन्नाटा मिले तो कहना ही क्या ? बहुत ख़ूब ..
कहते कहते वो यार जग बीती
आप बीती सुना गया है मुझे................ ऐसे अंदाज़ का एक शेर, शायद आ० गुरप्रीत जी का, थोड़ी देर पहले ही देखा है. मानव मनोविज्ञान का महीन अनुवीक्षण शाब्दिक हुआ है. बहुत ख़ूब
है ये मिसरा सभी के होटों पर
"सब्र करना तो आ गया है मुझे"................ भाई, यह तो आयोजन ही आपके नाम है..
आफ़ियत है इसी में मेरी समर
वो करूँ , जो कहा गया है मुझे.................. मक्ते का भी ज़वब नहीं. आम इन्सान की सीमाओं को रेखांकित करता हुआ यह शेर बहुत ख़ूब बन पड़ा है.
इस अच्छी और क़ामयाब ग़ज़ल के लिए दिल से दाद कह रहा हूँ. फिर से बधाइयाँ.
शुभातिशुभ
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