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मतलब पिशाचिक प्रवर्ती जीत गई संवेदना दम तोड़ गई ..सच में दंगाइयों के अन्दर का इन्सां मर चुका होता है उन्हें अच्छाई से कोई लेना देना नहीं लघु कथा के अंत ने झकझोर कर रख दिया | हार्दिक बधाई इस शानदार लघु कथा के लिए आ० योगराज जी .
हार्दिक आभार आ० राकेश कुमारी जी।
मशालों की शर्मिन्दगी वाली बात दो ढाई दशक के सतत अध्ययन और अनुभव के बाद समझ आएगी कांता रॉय जी। रचना पसंद करने के लिए शुक्रिया।
सही है ,सारे दंगा फसाद करने वाले सैद्धांतिक रूप से एक दुसरे के साथी ही हैं एक तेल डालता है दूसरा आग लगाता है, हार्दिक बधाई आपको इस उत्कृष्ट रचना के लिए आदरणीय योगराज प्रभाकर जी
क्या aकहने आदरणीय, प्रत्येक लघुकथा गोष्ठी में आप आपनी लघुकथा के द्वारा एक मानक स्थापित कर देते हैं, दंगाइयों का कोई मजहब नही होता, बहुत ही सुन्दर लघुकथा, बहुत बहुत बधाई आदरणीय योगराज जी.
साथी--
" दुर्र, दुर्र, कहाँ चला आया फिर से| ये पिल्ला भी ना, एक दिन दो रोटी क्या खिला दिया, पीछे ही पड़ गया", शर्माजी ने अपनी पुरानी छड़ी से दुत्कारा पिल्लै को और कमरे में घुस गए| गाँव का छोटा सा घर जिसमे कभी वो अपनी पत्नी और बच्चे के साथ रहते थे, लेकिन आज उस कमरे में बच्चे और पत्नी की सिर्फ तस्वीर ही थी|
" देखो जाना तो मुझे ही है पहले, तुम तो अकेले भी बिता लोगे| आखिर ये गाँव और इतने साथी हैं तुम्हारे यहाँ, मेरा तो लेदेकर एक तुम हो और दूसरा ये दमा जो साथ नहीं छोड़ता", पत्नी की कही बात याद आने लगी उनको| धीरे धीरे सब साथी बिछुड़ने लगे थे, कुछ अपने बच्चों के साथ बाहर चले गए तो कुछ अकेलेपन को नहीं झेल पाये और सदा के लिए चले गए|
" देखो, किसी जानवर को क्यों नहीं पाल लेते हम, निःस्वार्थ भाव से साथ देते हैं| मेरे मायके में तो दो दो कुत्ते थे जो सालों बाद भी जाने पर इस तरह लिपट जाते थे जैसे हमेशा साथ रहे हों", पत्नी की बात फिर जेहन में घूम रही थी| लेकिन पता नहीं क्यों उनको हमेशा से चिढ थी कुत्तों से| अक्सर दुआर पर कुत्ते कहीं भी मल करके चले जाते थे और उसको साफ़ करते समय वो उनकी सात पुश्तों को कोसते थे|
" चाहे जो हो जाय, मैं कुत्ता नहीं रखूँगा| गाँव क्या इंसानों से खाली हो जायेगा कि कुत्ते साथी रहेंगे", और वो हमेशा नकार देते थे पत्नी की बातों को|
कमरे में मन नहीं लगा तो फिर बाहर निकले शर्माजी| उनको आभास हुआ, पिल्ला फिर से पीछे चल रहा था| पिछले एक हफ्ते से, उनके लगातार दुत्कारने के बावजूद, हमेशा उनके आगे पीछे घूम रहा था वो| दुआर पर पड़ी कुर्सी पर बैठ कर वो सोच में डूबे ही थे कि उसी पिल्लै ने उनका पैर चाट लिया| शर्माजी ने चौंक कर देखा, उनको लगा कि पत्नी ने ही उसको भेज दिया है अकेलापन काटने के लिए| उन्होंने प्यार से उसके ऊपर हाथ फेर दिया और अब उनको भी लगने लगा कि उनका एक साथी मिल गया है|
मौलिक एवम अप्रकाशित
जानवर अच्छा साथी बनकर सिर्फ अकेलापन ही नहीं काटता बल्कि कई बार इससे भी कहीं आगे जाकर साथी के काम आता है , बहुत सुन्दर कथानाक चुना है आपने और प्रस्तुतीकरण भी सुन्दर है ,हार्दिक बधाई आपको इस रचना पर आदरणीय विनय कुमार जी
रचना को सराहने का बहुत बहुत आभार आ प्रतिभा पाण्डे जी
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