परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 123वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब क़ैसर-उल जाफ़री साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"लोगों ने फूलों के बदले तलवारें मँगवा ली थीं "
22 22 22 22 22 22 22 2 (कुल जमा 30 मात्राएं)
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
बह्र: मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ 16-रुक्नी (बह्र-ए-मीर)
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 25 सितंबर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 26 सितंबर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आद0 रचना भाटिया जी सादर अभिवादन। अच्छी तरही ग़ज़ल कही है आपने। बधाई स्वीकार कीजिये
आदरणीया रचना भाटिया जी बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई क़ुबूल कीजिए
ग़ज़ल
अपनी उलफत से पुर आँखें हम ने जिन पर डाली थीं l
वो सब अपना कहते कहते धोका देने वाली थीं l
जिन से तुम उम्मीद लगाए बैठे हो हमदर्दी की
तुम से पहले उसने कितनों की फरियादें टाली थीं l
उलफत की राहों में जिनसे धोका खाते आए हैं
उनकी फ़ितरत का मत पूछो शक्लें भोली भाली थीं l
हम जब उनके पास गए लेकर पैग़ाम मुहब्बत का
लोगों ने फूलों के बदले तलवारें मंगवा ली थीं l
वो आंखें क्या बतलाएंगी क्या करना उम्मीद भला
जो हैरानी में डूबी थीं जो ख़ुद एक सवाली थीं l
मंज़र बदला उस दम आमद उनकी हुई न महफिल में
सब बैठा करते थे जिन पर वो सब कुर्सी ख़ाली थीं l
अम्बर की जानिब वो इक दिन चली गईं उड़ते उड़ते
जो चिड़ियां बचपन से हम ने पिंजरे में ही पाली थीं l
जिनके ऊपर तुमने किया तस्दीक भरोसा उलफत में
मीठी मीठी उसकी बातेँ सच्ची नहीं खयाली थीं l
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
अच्छी तरही ग़ज़ल हुई तस्दीक़ साहब। दाद क़ुबूल फरमाएं।
Iजनाब अजय साहिब, ग़ज़ल पसंद करने और हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय तस्दीक़ अहमद ख़ान साहिब
सादर अभिवादन
उम्दा तरही ग़ज़ल के लिए ढेरों बधाइयाँ स्वीकार करें. सादर.
जनाब सालिक साहिब, ग़ज़ल पसंद करने और हौसला अफजाई का बहुत-बहुत शुक्रिया
आ. भाई तस्दीक अहमद जी, सादर अभिवादन । उम्दा गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब भाई लक्ष्मण धामी साहिब, ग़ज़ल पसंद करने और आपकी हौसला अफजाई का बहुत-बहुत शुक्रिया
मोहतरम तस्दीक़ साहब बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है दिल से मुबारकबाद आपको।
मतले में पुर आँखें की जगह पुर नज़रें मेरे ख़्याल से ज़्यादा अच्छा रहेगा।
मुहतरमा राजेश कुमारी साहिबा, ग़ज़ल पसंद करने और हौसला अफजाई का बहुत-बहुत शुक्रिया l मशवरे का शुक्रिया
जनाब तस्दीक़ अहमद साहिब आदाब, तरही मिसरे पर अच्छी ग़ज़ल कही आपने, बधाई स्वीकार करें ।
'जिन से तुम उम्मीद लगाए बैठे हो हमदर्दी की
तुम से पहले उसने कितनों की फरियादें टाली थीं'
इस शैर में शुतर गुरबा है, ऊला में 'जिन' को "जिस" कर लें ।
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