आदरणीय साथिओ,
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पलायन (लघुकथा)
अब जब कभी मैं "पलायन" शब्द सुनता हूँ तो दिल को कुछ भी नहीं होता है ।
मगर अपने गाँव में पहुँच जाता हूँ, सोचता हूँ क्या कुछ नहीं पलायन हो चूका है, उस गाँव से यहाँ मैं कभी रहता था, मेरे बजुर्गों की पहचान, रिश्तों के नाम,गरीब की आगे बढने की तमन्ना,किसी आम आदमी के बुने सपने को पूरा करने की कोशिश और. पता नही क्या कुछ ।
अब मैं शहर की पोश कलोनी में रहता हूँ, मेरी सोचों में से और भी बहुत कुछ पलायन हो चूका है, मैं याद करने की अब कोशिश भी नहीं करता ।
संदीप के साथ कालोनी के लगभग सभी लडके लडकियाँ बैंक के खाते को खाली कर विदेश जा कि सेटल हो चुके या हो रहें हैं और हम लोग चकर में रहते हैं कभी इधर कभी उधर कि ।
अभी ब्रेड व् चाय के साथ बाहर लॉन में पड़ी कुर्सी पे बैठा धूप सेक रहा हूँ, चाय पीने के बाद अभी हिम्मत नहीं बर्तनों को रशोई तक छोड़ सकूं ।
मुझे हरनाम की याद रह रह कर आ रही है, जो मुझे छोड़ कर डेरे में जा कर पक्की सेवक बन गई है।
तभी आसमान से आ रही पक्षियों की आवाज़ों की तरफ मेरा ध्यान जाता है, और मेरी उनपे लगातार टकटकी रहती है , जब तक वो आँखों से दूर नहीं हो जाते ।
"मौलिक व अप्रकाशित"
मोहतरम जनाब मोहन बेगोवाल साहिब , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुन्दर लघुकथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ---
प्रदत्त विषय पर बहुत अच्छी रचना, बच्चे तो रोजगार के सिलसिले में निकल जाते हैं और बुजुर्ग अकेले पीछे छूट जाते हैं| बधाई इस रचना के लिए
लघुकथा प्रदत्त विषय को काफी हद तक परिभाषित कर रही है लेकिन टंकण त्रुटियों ने मज़ा किरकिरा कर दियाI बहरहाल, बधाई स्वीकार करेंI
//अब जब कभी मैं "पलायन" शब्द सुनता हूँ तो दिल को कुछ भी नहीं होता है ।//
//मैं याद करने की अब कोशिश भी नहीं करता //। .. मन गाँव में और तन शहर में ,ऐसे व्यक्ति की कशमकश को बहुत बढ़िया तरीके से शाब्दिक किया है आपने .. हार्दिक बधाई आपको आदरणीय मोहन बेगोवाल जी ...
सभी दोस्तों का मेरी रचना को पसंद करने के लिए धन्यवाद
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