आदरणीय साथिओ,
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वाह वाह, क्या बात है भाई विनय कुमार सिंह जीI पलायन विषय को एक निराले ढंग से शुतुरमुर्ग के प्रतीक के ज़रिये परिभाषित किया है, आनंद आ गयाI आखिर कब तक कोई शुतुरमुर्ग बन कर पलायनवादी बनकर रह सकता है? कभी न कभी तो अपनी गर्दन रेट से बाहर निकालनी ही होगीI इस लाजवाब लघुकथा हेतु ढेरों ढेर बधाई प्रस्तुत हैंI
आदरणीय विनय कुमार सिंह जी शीर्षक को संतुष्ट करती लघु कथा के कथ्य का अंदाज मन को भा गया बहुत बहुत बधाई.
आज दोपहर बाद ओबीओ सर्वर डाउन होने के के कारण आयोजन काफी देर तक बाधित रहाI कई साथिओं के फोन भी इस बाबत आए जोकि अपने रचनाएँ पोस्ट करने अथवा टिप्पणियां पोस्ट करने में असमर्थ थेI यह सब देखते हुए आयोजन का समय कल दोपहर (1 नवम्बर 2016) 12 बजे तक बढ़ा दिया गया हैI
हार्दिक बधाई आदरणीय विनय जी। बेहतरीन प्रस्तुति।।।
आदरनीय विजय जी, कमाल का पंच पूरी लघुकथा अर्थ प्रदान कर गई । बधाई स्वीकारें
विषय आधारित लघुकथा
'पलायन'
"माधुरी तुमने पिता जी का खाना भेज दिया?"
"हाँ ! बाबा हाँ ! .... रोज नियम से भेज देती हूँ।"
प्रति रविवार रमेश स्वयं ही टिफिन लेकर चला जाता। उस दिन बाप -बेटे पुश्तैनी मकान में घण्टों बातें करते और शाम को घर लौटते समय पिता जी रमेश को हमेशा की तरह टोकते "बेटा, बहू -बच्चों का ख्याल रखना। उनको वह हर ख़ुशी देना। जो मैं, तुम्हें न दे सका। तेरी पढ़ाई के बाद कुछ बचता ही नहीं था। पर तू तो अच्छी नौकरी में लग गया है ना!"
आज माधुरी की छोटी बहन -जीजा घर आये हुए, देखकर रमेश ने माधुरी को बिना कुछ बताये ही टिफिन सेंटर से खाना भर कर भिजवा दिया। संयोग से माधुरी ने भी खाना भिजवा दिया था। पिता जी की खुशियों का ठिकाना न था। आज रमेश प्रसन्नचित होकर घर पहुँचा, पिता जी भी घर की सीढ़ियां चढ़ ही रहे थे।
आअो पिता जी, आज माधूरी आपको देखकर बहुत खुश होगी।
जैसे ही बाप-बेटे घर में प्रवेश करने वाले थे, माधुरी की आवाज दोनों के कानों में पड़ी ।
माधुरी अपनी बहन से कह रही थी "रोज खाना भेजने की मेरी भी मजबूरी है। वरना बाबूजी यहाँ ही आ धमकेंगे|
मेरा जीवन एक माह में ही नरक बन जाये।
बड़े प्रयास से इस बंगले के कागजात रमेश ने अपने नाम करवाए है। इसलिए यह प्रयास रहता है कि खाना बन्द न हो।" बूढ़े पावँ देहरी पर बिना रखे ही वापस रिश्तों से बहुत दूर पलायन कर गए।
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