आदरणीय साथिओ,
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अच्छी लघुकथा हुई है आ० डॉ विजय शंकर जीI कथा के चरमबिन्दु पर पञ्च-लाइन भी ज़बर्दस्त हैI हार्दिक बधाई स्वीकारेंI
//" कोई अउनौ नरक है का , ई के अलावा। "// क्या इस पंक्ति का अंत प्रश्नचिन्ह (?) से नहीं होना चाहिए था?
आदरणीय विजय भाईजी
सिर्फ वादे, वोट की राजनीति और आज के नेताओं पर अच्छा व्यंग्य है। ह्रदय से बधाई इस प्रस्तुति के लिए।
उठ-उठ बैठता हूँ ........ उठ-उठ जाता हूँ .///....... उठ बैठता हूँ
इस सारगर्भित लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ विजय शंकरजी |
छोटी पर बहुत सशक्त कथा सच में आजकल नेता मतदाता को डराते हैं ,कोई सांप्रदायिक दंगों का भय दिखाता है तो कोई डेगू मलेरिया का ...राजनीती का स्त रबहुत गिर गया है...हार्दिक बधाई आदरणीय
कहा जाता है कि 'साहित्य समाज की अभिव्यक्ित है (Literature is an expression of society) चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए उसका आचार-व्यवहार, भाषा-बोलचाल, रहन-सहन सब समाज से ही सीखता है । लेखक अपना विषय-वस्तु सामग्री, उद्देश्य और सराेकार समाज से ही प्राप्त करता है। मेरी व्यक्ितगत रॉय है कि कोई भी विषय पुराना अथवा नया नहीं है और कोई भी विषय वर्जित नहीं है बशर्ते कि उसे अच्छे तरीके से लिखा जाए। प्रस्तुत लघुकथा बहुत सधे ढंग से भ्रष्टाचार जैसे विषय पर करारा प्रहार कर रही है। लघुकथा का शीर्षक 'नरक' भी बहुआयामी व स्टीक शीर्षक चयन है। आदरणीय डॉ. विजयाशंकर जी को हार्दिक शुभकामनाएं ।
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ विजय शंकर जी।आपकी लघुकथा ने दिल जीत लिया।
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