आदरणीय साथिओ,
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सुनील भाई ! आपसे तो इससे कहीं ज़्यादा की आशा रखता हूं । सादर
कथा बहुत अच्छी है , किन्तु शीर्षक को सार्थक नहीं करती । सादर
आ. सुनील जी, "रोबोट" शीर्षक के साथ आपने आज की शिक्षा व्यवस्था पर बहुत अच्छा व्यंग्य किया है. यह आपकी इस लघुकथा की सबसे अच्छी बात है. आज की शिक्षा व्यवस्था वाकई में केवल रोबोट ही तैयार कर रही है. बाकी गुणीजन कह ही चुके हैं. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
कथा पर गुनी जन कह ही चुकें है साथ आप भी अपना पक्ष रख चुकें सो कथा सहित आयोजन में सहभागिता के लिए ह्रदय से बधाई भाई सुनील वर्मा जी.
दादाजी के कमरे में उजाला लाने वाला तो हरिया ही है तो फ़रिश्ता भी वो ही हुआ , कई बार कथा में दो भाव समानांतर चलते हैं और अंत आने तक एक भाव दूसरे पर हावी हो जाता है , यहाँ पर भी अव्यवहारिक शिक्षा पद्दति का भाव दूसरे भाव पर हावी हो गया I, कथा कहने का आपका अपना अनूठा अंदाज़ है सहज सरल गूढ़ , हार्दिक बधाई इस कथा पर आदरणीय सुनील जी
आद० सुनील जी ,बहुत बढिया लघु कथा हुई जिसके लिए बहुत बहुत बधाई किन्तु मेरे दिमाग में भी वही बात आई कि क्या एक छोटे से काम से कोई फरिश्ता हो सकता है
आपकी लघु कथा तो "पढ़े पर गुणे नहीं" कहावत को चरितार्थ कर रही है श्री सुनिल् वर्मा जी | सुंदर लघु कथा
हार्दिक बधाई आदरणीय सुनील जी ।बेहतरीन लघुकथा।
पवित्र पुस्तकें
विद्वत जनों की एक बहुत बड़ी सभा लगी थी जिसमें विभिन्न धर्म और संस्कृति के लोग एकत्र थे। चर्चा का मूल विषय यह था कि किसकी पवित्र पुस्तकें श्रेष्ठ हैं।
"हमारी पुस्तक अपौरुषेय और श्रेष्ठ है। इसमें मानव जीवन के सभी पक्षों की सविस्तार चर्चा है।"
"नहीं, आपके ग्रन्थ में बहुत कुछ मनुष्यों ने अपने से जोड़ा है। जबकि हमने उसका मूल रूप सुरक्षित रखा है। इसलिए पुस्तक तो केवल हमारी श्रेष्ठ है।" दूसरे प्रतिभागी ने पहले का प्रतिवाद करते हुए कहा।
"अच्छा! पर पहले कौन सी पुस्तक आयी है? हमारी न। तो प्राचीनतम होने के कारण कौन श्रेष्ठ होगी?"
"आपकी पुस्तक पहली है तो हमारी आख़िरी है। श्रेष्ठ पुस्तक कौन सी होती है? बाद के संस्करण वाली या पहली?"
"मतलब ईश्वर ने जो सबसे पहले पुस्तक भेजी वह अपूर्ण थी। बाद में ईश्वर को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने भूल-सुधार करते हुए उसके अन्य संस्करण निकाले। आप कहना क्या चाहते हैं? ईश्वर अपने प्रथम प्रयास में अक्षम था? वह पूर्ण है कि अपूर्ण?"
"ईश्वर पूर्ण है, अपूर्ण तो आप और आपकी पुस्तकें हैं।" अब तक दोनों की बातें शान्ति से सुन रहे तीसरे विद्वान ने कहा। "यदि कालक्रम में हमारी पुस्तक बाद में आयी तो इसका यह अर्थ कहाँ से निकलता है कि वह अधम है? प्राचीनता अथवा नवीनता किसी पुस्तक को श्रेष्ठ नहीं बनाती। उसे श्रेष्ठ बनाती हैं उसमें कही गयी बातें, और इस सन्दर्भ में ईश्वर के सच्चे सिद्धान्तों का उल्लेख मात्र हमारी पुस्तक में है। वही सच्ची देववाणी है। इसलिए वही श्रेष्ठ है।"
खचाखच भरे सभागार में काफी समय तक इसी प्रकार वाद-विवाद का दौर जारी रहा। तभी एक अर्धनग्न फ़कीर जो बहुत देर से सभा के बाहर खड़ा हो कर उनकी बातें सुन रहा था, धड़धड़ाता हुआ अन्दर आया और लगभग चीखते हुए बोला:
"आपका ईश्वर सिर्फ पवित्र पुस्तकें ही भिजवाता है या कभी-कभार एक-आध रोटी भी?"
(मौलिक व अप्रकाशित)
भाई महेंद्र कुमार जी, वाह वाह वाह! क्या कहने हैं. इस लघुकथा की पंच-पंक्ति एक ज़ोरदार झटका देती है. यह पंक्ति बाकी सभी दावों को धत्ता बताकर दिल-ओ-दिमाग पर गहरा प्रहार करती है. रचना अपना सन्देश देने में सफल रही है जिस हेतु हार्दिक बधाई प्रेषित है. मुझे इस रचना में कुछ कमियाँ महसूस हुईं जिसका ज़िक्र करना चाहूँगा:
1. //चर्चा का मूल विषय यह था कि किसकी पवित्र पुस्तकें श्रेष्ठ हैं।// भाई, तुलनात्मक अध्ययन तक तो ठीक है मगर ऐसे विवादास्पद मुद्दे पर अमूमन ऐसी चर्चा नहीं हुआ करती. हा, इस बात को (कि किसकी पवित्र पुस्तक सर्वश्रेष्ट है) इशारे में अवश्य कहा जा सकता है.
2. चर्चा (बहस) के दौरान विभिन्न वक्ताओं के ब्यान से दूसरों ने कैसे रिएक्ट किया, माहौल कैसा बना, यदि इसका भी थोडा थोडा विवरण साथ में दे दिया जाये तो "दृश्य-चित्रण" होगा और लघुकथा का प्रभाव द्विगुणित होगा.
आ. योगराज सर, लघुकथा को पसन्द करने के लिए आपका हृदय से आभारी हूँ. आपने जिन दो बिन्दुओं की चर्चा की है मैं उनसे सहमत हूँ. देखता हूँ कि दृश्य-चित्रण कैसे प्रभावी हो सकता है. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
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