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अंत हिला देने वाला है ,बधाई आपको आ० शशि जी
बहुत अच्छी और शानदार कथा .. आदरणीय शशि जी...दुनिया के झूठे रिश्तों के ढोंग को उजागर कर दिया है आपने ... मन को झकझोर देने वाली कथा पर बहुत सारी शुभकामनायें और दिल से बधाई स्वीकार कीजिये..
वक्ती रिश्तों की परिभाषा को बड़ी ही खूबसूरती से परिभाषित किया है आ. शशि बंसल जी। बधाई स्वीकार करें।
लघुकथा .......................परिभाषा
सुधा ने बेटी की सगाई फिक्स की तो पुरानी मित्रता के चलते उसे भी सूचना भिजवा दी . जब से अरविन्द गए थे , मैच्योर बच्चों के बीच सुधा ने उसके साथ दूरिओं को जगह दे दी . उसे तकलीफ ही नहीं सदमा भी लगा था पर बच्चों के बीच सुधा के मातृत्व की गरिमा और विश्वास को कोई ठेस न लगे उसने अपने दिल की हर उलझन पर पत्थरों की परते जमा दी थीं . अरविन्द , सुधा के कमजोर कंधों पर बिटिया के विवाह की महती जिम्मेदारी छोड़कर अचानक इस दुनिया से चले गए थे . समय ने घावों को आधा - अधूरा ही सही पर भरा जरूर और जब उसे सुधा की बेटी के विवाह की सूचना मिली तो उसके हाथ ईश्वर के प्रति धन्यवाद के लिए उठ गए वह सोचने लगा आज अरविन्द जी की आत्मा निश्चय ही शांत हो गयी होगी .वह नियत समय पर विवाह स्थल पर बेटी को आशीर्वाद देने पहुंच गया .
' जरा इधर आकर मेरी बात सुनो .' भीड़भाड़ से थोड़ा अलगाव मिलते ही उसने सुधा से कहा .
' जल्दी बोलो ! कोई भी देख सकता है . बच्चे वैसे ही तुम्हे यहां देखकर मुझपर शक़ की निगाह डाल चुके हैं .
' बेटी का विवाह है और उसी की उतरी हुई साड़ी पहन कर रस्म - अदायगी कर रही हो ! हमेशा की तरह इस बार नई साड़ी नहीं ले सकती थीं ?
' फालतू बातें करनी हैं तो चले जाओ . किसी ने यह बातें करते देख - सुन लिया तो बवंडर आ जायेगा .'
' कुछ नहीं होगा . कह लेने दो मुझे . लगता है अपने ही घर में जहां हर बात की मंजूरी के लिए तुम्हारी भोहों की गति पर बात तय होती थी , वहीं पर एक अतिरिक्त बोझ की तरह रह रही हो .बहू के श्रगार के लिए चमचमाता परिधान , बेटी के लिए भी कोई कमी नहीं और इन सबके स्रोत यानी तुम्हारे लिए पुरानी उतरन ! स्वर्गवास अरविन्द जी का हुआ है और वनवास तुम भोग रही हो .'
' अब चुप भी रहो . यह सब नहीं देख सकते तो चले जाओ .'
' चाह कर भी नहीं रुक सकता ? याद करो एक - एक साड़ी के लिए दस - दस दुकानों पर जा - जा कर दस - दस साड़ियां खुलवाती थीं और तब कहीं जाकर बड़ी मुश्किल से अच्छी तरह पहनने - परखने के बाद एक साड़ी तुम्हे पसंद आती थी . अब उसी सुधा को जब बेटी की उतरन पहने हुए देखा तो रहा नहीं गया .'
' बहुत रो चुकी हूँ अब मत रुलाओ .बताओ किसके साथ जाती अपने लिए साड़ी पसंद करने .'
' बुला नहीं सकती थीं . अब भी तो बुलाया ही है न . तभी तो आया हूँ .'
' क्या कहती बच्चों को . कौन से रिश्ते की डोर से बंध कर जाती तुम्हारे साथ अपने लिए साड़ी पसंद करने ?'
' क्या जीवन में हर रिश्ते को परिभाषा देना जरूरी होता है . सब कुछ परभाषित होता तो क्यों आता तुम्हारे एक बुलावे पर !'
' ठीक है ! आये हो तो दूल्हा - दुल्हन को आशीर्वाद दो और जाओ . '
( मौलिक एवं अप्रकाशित )
आदरणीय सुरेन्द्र जी, आपने बहुत ही सधे ढंग से एक शानदार लघुकथा कही है. कई रिश्तें भय और दबाव में न केवल अपरिभाषित रह जाते है बल्कि समाप्त भी कर देना पड़ता है. इस मार्मिक प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई
कुछ रिश्तों का अपरिभाषित रहना ही बेहतर होता है शायद, आपकी यह लघुकथा प्रभाव छोड़ने में सफल रही है आ० सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा जी I ओबीओ की लघुकथा गोष्ठी में प्रतिभागिता हेतु हार्दिक अभिनन्दन स्वीकारें I
आदरणीय सुरेंद्र कुमार अरोड़ा जी, कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिनके वक्त के साथ मायने भी बदल जाते हैं बस उन यादों की टिस ही बनी रहती है लेकिन वो नहीं समझ पाता है। बदलते रिश्तों की परिभाषा को परिभाषित करती सुंदर लघुकथा। बधाई स्वीकार करें।
बहुत अच्छी लघु कथा लिखी है आ० सुरेन्द्र जी ,सही कहा कुछ रिश्तों की परिभाषा नहीं होती और ये दुनिया बस रिश्तों को परिभाषा से ही तोलती है | इस सुन्दर लघु कथा के लिए बधाई आपको
अंतिम दोनों पंक्तियाँ झकझोर देती हैं आदरणीय सुरेन्द्र अरोड़ा जी, अपरिभाषित रिश्तों की यह लघुकथा यथार्थ से जुड़ी हुई है| इस शानदार लघुकथा हेतु सादर बधाई स्वीकार करें|
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