आदरणीय साथिओ,
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बहुत बहुत आभार आदरणीय मोहन जी।
बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय मनन सरजी।
आभार आदरणीया
आदाब। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से विषयांतर्गत परिवेश और परिदृश्यों को शाब्दिक करती बढ़िया रचना। हार्दिक बधाई जनाब मनन कुमार सिंह साहिब।
*अधिकार*
उन दिनो, अख़लाक़ साहब बहुत फ़िक्रमंद थे।
(एक बात को लेकर)उनके दो बेटे एक बेटी थी
तीनों शादीशुदा व बाल बच्चे-दार थे।
अख़लाक़ साहब बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कांट्रैक्टर थे, बहुत अच्छी आमदनी थी प्रॉपर्टी भी काफ़ी थी किराया भी ख़ूब आता था।
बड़ा बेटा सलीम बिल्डिंग मैटेरियल सप्लायर था।
दुसरा छोटा बेटाअसलम सिविल इंजीनियर था।
दोनों बेटों को बराबरी की तालीम दिलवाना चाहा, पर सलीम (मटेरियल सप्लायर) ने पढ़ाई में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं ली, उसे बचपन से ही पैसे कमाने का शौक़ था तो दुकान खुलवा दी गयी थी।
और छोटे बेटे व बेटी ने तालीम पूरी की,बेटी ने ग्रेजुएशन किया था उसकी शादी फर्नीचर मर्चेंट से की थी, वो भी खुशहाल थी।
अख़लाक़ साहब अब कई बीमारियों के रहते कमज़ोर होते जा रहे थे।
छोटा बेटा असलम उनका काम भी देखने लगा था, और बेहतर तरीके से मैनेज कर रहा था।
लेकिन परेशानी ये थी कि अख़लाक़ साहब मीरास (विरासत) के हिस्से करना चाह रहे धे।
बेटी को उसका हिस्सा।
बीवी को उसका हिस्सा।
बेटों को उनका हिस्सा।
बीवी और बेटी अपने हिस्से पर राज़ी थीं।
लेकिन बड़ा बेटा चाहता था बाप का ऑफ़िस जहां से बाप के सारे काम का निज़ाम चलता था।
वो आॅफ़िस भी उसके हवाले किया जाए।(जबकि वो इसका अहल नहीं था)
बड़े बेटे की ज़िद आखिर ऐसी क्यों थी?
वो(सलीम) समझ रहा था अख़लाक़ साहब ने सब कुछ इसी ऑफ़िस से हासिल किया है।
लेकिन उनकी क़ाबिलियत और मेहनत इमानदारी उसकी बुनियाद थी,न कि वो ऑफ़िस।
ख़ैर उन्होंने बड़े बेटे के ससुर रहमान साहब जो उनके अच्छे दोस्त भी थे,
उन्हें बुलवाया।
और यह मसअला उनके सामने रखा।
पूरा घर जमा था सबने अपनी-अपनी बात रखी।
बड़ा बेटा ससुर रहमान की बहुत इज़्ज़त और लिहाज़ करता था।
सलीम ने रहमान साहब का मशिवरा(फ़ैसला) सुना, जो कह रहे थे।
"सलीम तुमने अपनी मर्ज़ी से पढ़ाई छोड़ दी और अपना रास्ता ख़ुद चुना था...।
"असलम ने बाप की ख़्वाहिश पूरी की और उनका काम भी संभाला..।
'अब कुल बची प्रॉपर्टी तुम दोनों भाइयों में बराबर बाँटी जा रही है', 'जिसका किराया आता है वो तुम्हें दी जा रही है,जबकि ये तुम्हारा प्लस पाॅईंट है'।
'और इस्तेमाल की प्रॉपर्टी असलम को दी जा रही है, जिसका वह *अधिकार* रखता है,
'तुम्हें तुम्हारी हैसियत के मुताबिक, और असलम को उसकी क़ाबिलियत के मुताबिक'।
सलीम ने बात समझकर, ख़ामोशी से हां में सर हिला दिया..।
(आज समाज अयोग्यता/योग्यता के अधिकार की स्थिति से जूझ रहा है)
मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीय आसिफ ज़ैदी जी , सांकेतिक रूप से बहुत महत्व पूर्ण प्रश्न उठाती हुयी इस लघु-कथा के लिए बधाई, सादर।
बहुत बढ़िया रचना विषय पर, ऊपरी हिस्से को कांट छांट कर काफी बेहतर किया जा सकता है. बहरहाल बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए आ आसिफ जैदी साहब
वाह आसिफ़ ज़ैदी साहब व्यावहारिकता का तकाजा करती एक बेहतरीन लघुकथा
हार्दिक बधाई आदरणीय आसिफ़ जैदी साहब जी। विषयांतर्गत बेहतरीन लघुकथा।
आदरणीय अशफ जी, बहुत सुंदर लघुकथा के लिए बधाई हो
विचारात्मक, बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय आसिफ सरजी।
आदाब। विषयांतर्गत चिर-परिचित कथानक व कथ्य पर नवीन रचना। आप जो कहना चाहते हैं,सम्प्रेषित हुआ। लेकिन जैसा कि हमारे वरिष्ठ लघुकथाकारगण फ़रमाते हैं कि इस तरह की रचना पहला ड्राफ़्ट माना. जाना चाहिए। इस पर और काम करके तराशा जाना चाहिए। विवरण की नरेटिंग करने के बजाए उसके अनिवार्य अल्प हिस्से या भाव.को.मुख्य पात्रों के संवादों में पिरोया जा सकता है कम शब्दों में। यह भी कोशिश की जा सकती है कि पात्र संख्या या पात्र नाम कम हो सकें। सादर अभ्यास वास्ते विमर्श मात्र।
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