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हार्दिक बधाई आदरणीय मोहन बेगोवाल जी।बेहतरीन लघुकथा।
बढ़िया लघुकथा है आदरणीय मोहन बेगोवाल जी। थोड़े से सम्पादन से और बढ़िया हो जाएगी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
अवशेष
घंटों से मीटिंग जारी थी, लेकिन बात किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पा रही थीl क्योंकि बूढ़े बाबा, युवक मंडली के विचारों से बिल्कुल भी सहमत न थेl विचार-विमर्श अब वाद-विवाद का रूप धारण कर चुका थाl
“मैं तो कहता हूँ कि ये काम जल्दी ही कर लिया जाएl दुबारा ऐसा मौक़ा हाथ नहीं आएगाl”
“सही कह रहे हो भाईl जैसे उन्होंने हमारा धर्मस्थान तोड़ा था, उसी तरह उनके धर्मस्थान का भी नामोनिशान मिटा देंगेl” युवा नेता ने एकत्र भीड़ से कहाl
“नहीं, नहीं! ऐसा करना सरासर ग़लत होगा बेटाl” बाबा ने समझाना चाहाl
“हमनें जो ठाना है, वो तो कर के ही रहेंगेl” युवक अपनी ज़िद पर क़ायम थाl
“ऐसा करने से हासिल क्या होगा?” बाबा ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछाl
“बदला! बदला हासिल होगा बाबाl”
“लेकिन इससे तो हालात और भी ख़राब होंगेl”
“ये बात आपने उन लोगों को क्यों नहीं समझाई थी जिन्होंने हमारा धर्मस्थान मिट्टी में मिला दिया था?” एक अन्य युवक ने उग्र स्वर में प्रश्न दागाl
“हो सकता है कि उन्हें भी किसी ने समझाया हो... मगर...” बाबा ने सफ़ाई देने का प्रयास कियाl लेकिन उनकी बात काटते हुए एक लंबे-चौड़े युवा ने चेताया,
“आप इस मामले से दूर रहो बाबाl जल्दी ही हमारे बहुत से बाहर वाले साथी भी यहाँ पहुँच रहे हैंl”
“बाहर वाले? यही बाहर वाले तो आग में घी डालते हैं बेटा... यही बाहर वाले!”
“बाबा, आपको उन लोगों से इतनी हमदर्दी क्यों है?” एक और युवा ने पूछाl
“मुझे हमदर्दी है, लेकिन अपनी ज़मीन से...” बाबा का स्वर अब भी संयत थाl
“मतलब?”
बाबा ने कहा उत्तर देने की बजाय प्रश्न किया,
“क्या तुम्हें पता है कि जिस ज़मीन पर वो धर्मस्थान बना हुआ है उस ज़मीन का मालिक कौन था?”
उसे बगलें झाँकते देख, बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा,
“तुम्हारे परदादा जी... जो इस इलाक़े के माने हुए रईस थेl”
“दादा-परदादा तो ऊपर पहुँच चुके हैं बाबा, उन्हें छोड़ोl” एक अधेड़ ने कहाl
“सुन छोटू! तेरे चार-पाँच भाई-बहन पैदा होते ही मर गए थे, पता है तुझे?” बाबा ने उससे पूछाl
“हाँ, हाँ! पता हैl” एक नैमित्तिक-सा उत्तर मिलाl
“क्या तुझे ये पता है कि जब तू पैदा होने वाला था तो तेरी दादी हर रोज़ उस धर्मस्थान की सीढ़ियाँ धोया करती थी? और तेरी माँ सुबह-शाम वहाँ माथा रगड़ा करती थी ताकि उसके आँगन में बच्चे की किलकारियाँ गूँज सकेंl”
“इनकी बातों में मत आओ भाइओl और जो सोचा है उस काम को पूरा करोl” एक अन्य स्वर ने आग उगलीl उसकी ओर मुड़ते हुए बाबा ने कहा,
“अरे तू भी सुन... जिस इमारत को तू तबाह करना चाहता है न, वो किसी और के नहीं बल्कि तेरे ही पुरखों के पैसे से बनी हुई है... समझा?” बाबा के स्वर में थोड़ी कठोरता आ गईl “तुम सब इस ज़मीन को अपनी माँ कहते हो न? झूठ कहते हो! क्या कोई अपनी माँ की माँग में राख भरने की सोच भी सकता है, बोलो?” प्रश्न पूरी भीड़ के लिए थाl
सहसा उग्र स्वर, धीरे-धीरे फुसफुसाहट में ढलने लगेl
“बाबा ये बताओ कि आख़िर हमें करना क्या चाहिए?” एक सामूहिक स्वर हवा में तैराl
भरे गले से आंतरिक पीड़ा उड़ेलते हुए बाबा ने कहा,
“देखो! ये आलीशान इमारतें हमारी पहचान हैंl जो खोना था, वो तो खो गयाl लेकिन जो बचा है; कम-से-कम उसे तो बर्बाद मत करोl”
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(मौलिक और अप्रकाशित)
क्या लघुकथा कही है आदरणीय, लघुकथा की बुनावट और कसावट बरबस आकर्षित करती है, सिखने योग्य लघुकथा, बहुत बहुत बधाई आदरणीय।
हौसला अफज़ाई के लिए हार्दिक आभार भाई गणेश बाग़ी जी.
आदरनीय योगराज जी, आज के समय पर लिखी बहुत ही सुंदर लघुकथा के लिए बधाई हो
हार्दिक आभार डॉ० मोहन बेगोवाल जी.
आदरणीय योगराज सर, सादर नमन। बहुत अच्छी लघुकथा हुई है। गजब संयोग है समांतर कथ्य और कथानक पर एक लघुकथा इसी गोष्ठी में पहले भी पढ़ने को मिली। सादर बधाई!
शुक्रिया भाई सतविन्द्र कुमार जी.
एक सजग रचनाकार अतीत की पृष्भूमि पर खड़ा होकर भविष्य की ओर देखता है किंतु टकराता अपने वर्तमान समय से है जिसे साहित्यिक जन वास्तविक जीवन कहते है (इसका सबंध ही वर्तमान से ही है) आजकल समाज में जो संकीर्ण साेच व्याप्त हो चुकी है उसे अपनी रचना का आधार बनाकर प्रभावशाली व सार्थक लघुकथा की रचना की है। क्योंकि एक सहृदय रचनाकार अपने आसपास घटित घटनाओं से निरपेक्ष नहीं रहा सकता। इस रचना के माध्यम से भूत का सम्यक दर्शन करने के साथ-साथ वर्तमान की कठोर आलोचना करते हुए सुनहरी भविष्य के शिलान्यास की साकारत्मक कोशिश इसे प्रासंगिक बनाते हैं। श्रेष्ठ शीर्षक चयन और प्रभावशाली प्रस्तुति। हालॉंक कथानक बेगोवाल जी की प्रस्तुति से मेल खा रहा है परंतु मेरा मानना है कि कथानक नवीन नहीं होते अपितु बेहतरीन प्रस्तुतिकरण रचना को विलक्ष्ण पहचान देता है। । एक ही कथानक पर श्रेष्ठ रचनाऍं रची जा सकती हैं। वाल्मीकि रचित रामायण और तुलसी के मानस के मानस से बढ़िया और उदाहरण हो ही नहीं सकते। लघुकथा की अंतिम पंक्ति / “देखो! ये आलीशान इमारतें हमारी पहचान हैंl जो खोना था, वो तो खो गयाl लेकिन जो बचा है; कम-से-कम उसे तो बर्बाद मत करोl”/ इस लघुकथा का सार है। हृदयतल से शुभकामनाऍं निवेदित हैं।
इस विशद समीक्षा हेतु दिल से शुक्रिया भाई रवि प्रभाकर जी.
आदाब। आपकी इस समीक्षा से हम सभी बहुत लाभांवित हुए। हार्दिक धन्यवाद आदरणीय रवि प्रभाकर साहिब।
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