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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-64

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 64 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह उस्ताद शायर जनाब "मंगल नसीम" साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|

 
"पाले हुए पंछी के, पर अपने नहीं होते"

221 1222 221 1222

मफ़ऊलु मुफाईलुन मफ़ऊलु मुफाईलुन 

(बह्र: बहरे हज़ज़ मुसम्मन अखरब)
रदीफ़ :- अपने नहीं होते 
काफिया :- अर (गर, घर, पर, दर आदि)
विशेष: इस बहर में ऐब-ए- शिकस्ते नारवा होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है इसलिए इस तरफ विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है| पहले दो रुक्नों के बाद एक अंतराल आता है वहां पर हमें ऐसे लफ्ज़ नहीं रखने हैं जो अगले रुक्न तक चले जाएँ जिससे लय में अटकाव की स्थिति उत्पन्न हो | यहाँ तीन या उससे ज्यादा हर्फी  काफियों से भी यह ऐब पैदा हो रहा है इसलिए केवल दो हर्फी काफिये ही इस्तेमाल में लाये जा सकते हैं |

 

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 23 अक्टूबर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 24 अक्टूबर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 23 अक्टूबर दिन शुक्रवार  लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन
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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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जनाब समर साहब मत्ला मेरे खयाल से बेऐब है। जो शेर आपने कोट किया है उसका ऊला बह्र से कैसे खारिज है और सानी में जो ऐब है ज़रा तफ़सील से बतायें

आप सही कह रहे हैं ..मतले में कोई ऐब नहीं है ..कोटेड शेर का मिसरा ए ऊला भी बहर में है ..अलबत्ता शेर में ऐब-ए-शुतुर्गुर्बा है|

राणा साहब हमारा के साथ अपने या अपना तो हो सकता है ना?

ज़र के लिए मिसरा ए ऊला में "जिसकी" प्रयोग किया है जो एकवचन है ..फिर सानी में उसी ज़र के लिए "अपने" और "होते" प्रयोग किया है जो बहुवचन है ...बहुत बारीकी से देखेंगे तभी समझ आयेगा|

अरे हाँ मैंने सुधारा था शायद सेव नहीं हुआ होगा आप कृपया संकलन के समय इसे सुधार दीजियेगा।
जनाब शिज्जु शकूर जी,आदाब,अगर उर्दू के लिहाज़ से देखें तो गर-घर के क़ाफ़िये में ईताए जली का दोष एक अटल हक़ीक़त है,आपके जिस मिसरे को मैंने बह्र से ख़ारिज बताया है उसमें आप सही हैं क्यूँकि रात को बहुत देर हो गई थी और मेरे बेटे ने आपका मिसरा एक रुक्न बढ़ा कर सुना दिया था ,इसलिये मैंने लिख दिया कि वो बह्र से ख़ारिज है,इसके लिये मैं आपसे मुआफ़ी चाहता हूँ ,और 'ज़र' वाले मिसरे पर जनाब राणा प्रताप सिंह जी आपको मार्गदर्शन दे ही चुके हैं ।

आदरणीय समर कबीर जी ईताए जली पर आपका मार्गदर्शन निवेदित है. सादर 

है जिसकी बदौलत इस दुनिया में नाम अपना
वो ज़र ही तो हैं अपने, ज़र अपने नहीं होते

है जिसकी बदौलत इस दुनिया में हमारा नाम
हैं ज़र यही अपने वो, ज़र अपने नहीं होते------वाह ! वाह ! क्या खूब कही है आपने ! बधाई कबूल फरमाएं आदरणीय शिज्जु "शकूर" जी।

आदरणीय शिज्जू भाई जी बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल हुई है

तब और पे हमले की, परवाह नहीं होती
तलवार की ज़द में जब, सर अपने नहीं होते  क्‍या शेर कहा है आपने दोनो ही मिसरों में नहीं का इस्‍तेमाल  किस खुबसूरती से किया है आपने 

तासीरे मुहब्बत है, उश्शाक़ के दिल में जो
डर दिखते हैं उनके वो, डर अपने नहीं होते  बहुत खूब  बधाई  इसी काफिया और रदीफ के साथ हमने भी शेर कह दिया है

अफ़्लाक़ नहीं होते, परवाज़ नहीं मिलती
“पाले हुये पंछी के, पर अपने नहीं होते”  गिरह भी अच्‍छी लगाई है आपने बस शिज्‍जू जी से कुछ और की उम्‍मीद थी इस गिरह में । सादर ।

तब और पे हमले की, परवाह नहीं होती
तलवार की ज़द में जब, सर अपने नहीं होते---क्या बात है 

जो आड़ में औरों के, होते हैं छुपे अक्सर
उनके कभी दीवारो- दर अपने नहीं होते---उम्दा 

बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई शिज्जू भैया दिल से बधाई लीजिये 

आदरणीय शिज्जु भाई जी बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने. बेहतरीन मतला हुआ है गिरह का शेर भी बहुत बेहतरीन है. ये अशआर मुझे बहुत पसंद आये-

तब और पे हमले की, परवाह नहीं होती
तलवार की ज़द में जब, सर अपने नहीं होते

जो आड़ में औरों के, होते हैं छुपे अक्सर
उनके कभी दीवारो- दर अपने नहीं होते

इस बेहतरीन ग़ज़ल पर शेर दर शेर दाद और मुबारकबाद कुबूल फरमाएं 

सादर 

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