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बहुत शानदार ग़ज़ल है। मजा आ गया पढ़कर। बचपन याद आ गया। बधाई
आदरणीय शेषधर भाई जी,
कोई शक नहीं कि आपने बहुत ही सशक्त ग़ज़ल कही है ! लेकिन मेरी नाचीज़ राय में तरही मुशायरे के असूलों के हवाले से काफिया और रदीफ़ दिए गए मिसरे के मुताबिक ही होने चाहियें थे ! इस ग़ज़ल में आपने दिया गया मिसरा तो इस्तेमाल कर लिया लेकिन उस मिसरे के काफिया-रदीफ़ से बाहर चले गए ! आशा है कि आप भविष्य में इसका ख्याल रखेंगे !
बहरहाल आपके आशार पर मेरे नाचीज़ ता'स्सुरात पेश हैं !
//मुझे तू न समझे न मैं जान पाऊँ/कभी तू रुलाये कभी मैं रुलाऊँ//
ना ना ना ना ना - शेषधर भाई जी, ये रुलाने वाली बात से मैं तो सहमत नहीं हूँ, शायरी और मोहब्बत की रू से भी ये बात जच नहीं रही है ! वो रुलाये तो रुलाये लेकिन खुद उसको रुलाने की बात ठीक नहीं लगी !
//दिखाएँ चलो एक ऐसा नजारा/कि तू रूठ जाए तुझे मैं मनाऊँ//
ये हुई ना बात - वाह !!
//सुकूं क़े लिए आज से ये करें हम/न तू याद आये न मैं याद आऊँ//
क्या बात है - क्या बात है ! सही कहा आपने कई दफा ऐसी कैफियत हो जाती है कि एक दूसरे को भूलना ही बेहतर लगता है !
//बड़ी कोशिशें भूलने कि हुईं पर/न तू भूल पाए न मैं भूल पाऊँ //
बहुत खूब !
//मैं साँपों क़े ही बीच जीता रहा हूँ /भला आज मैं इनसे क्यों खौफ खाऊँ//
"बीच जीता" उच्चारण में "बीज्जीता" हो रहा है भाई जी, थोड़ी सी नजर-ए-सानी दरकार है यहाँ !
//मुझे याद आती हैं बचपन कि बातें /तू पकडे जो तितली उसे मैं उडाऊं//
हाय हाय हाय - ये है शेअर, जो उंगली पकड़ कर माज़ी की गलियों में ले जाए - कमाल !
//तुझे हो मुबारक तुम्हारी वो मस्ती /मैं होली दिवाली अकेले मनाऊँ//
बहुत खूब !
//बहाने बहाने तुम्हे था बताना/जो गुडिया कि तेरी मैं जोड़ी बनाऊँ//
यहाँ पहले और दूसरे मिसरे में सामंजस्य नहीं है !
//मुझे देख क़े तेरा आँचल गिराना/तुझे थी तवक्को कि मैं मुस्कराऊँ//
दो मिसरों में कहानी कह दी आपने शेषधर भाई जी, एक पूरा दृश्य आँखों के सामने आ गया ! आँचल गिराना और उस पर ये उम्मीद कि कोई मुस्कुराये भी - वाह वाह वाह ! //
//खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत /कि मैं आज दुनियाँ में पागल कहाऊँ //
दोनों मिसरे अपनी अपनी जगह मुकम्मिल होते हुए भी रेल की पटड़ी की तरह दूर दूर ही रह गए हुज़ूर, गिरह बहुत ही ढीली रह गई यहाँ !
(एक दिन में केवल एक रचना पोस्ट करने वाली बात भी शायद आप भूल गए !)
वाह.. वाह.. शेषधर जी. मैं तो ग़ज़ल नहीं जानता पर भी योगराज जी माहिर हैं. उनके सुझावों पर आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया आपके स्वस्थ मन की बानगी है. सुधर की कोशिश सराहनीय है. अब इस पर योगराज जी का मत मिले तो मैं भी कुछ सीखूंगा.
दिखाएँ चलो एक ऐसा नजारा
कि तू रूठ जाए तुझे मैं मनाऊँ
आप के दिल में कितनी मोहब्बत भरी पड़ी है इस शेर से खूब जाहिर हो रहा है..
बहुत सुंदर ग़ज़ल
वाह ..शेष धर जी ..
क्या शब्दों की सुंदर माला पिरोई है आपने.........
वाह वाह सर , बहुत बढ़िया , आऊँ को काफिया बना कर बगैर रदीफ़ की खुबसूरत ग़ज़ल कही है आपने | बधाई और जय हो ...
वन्दे मातरम आदरणीय गुनीजनो,
यूँ स्वतंत्र रूप में शेर या गजल लिखना अलग बात है और किसी पंक्ति या शव्द पर कुछ लिखना खासकर एक कम जानकार व्यक्ति के लिए थोडा मुश्किल है....... पहली बार तरही मुशायरे में लिखने की कोशिश की है मेरी गलतियों की और ध्यान जरूर दिलाये .......
राकेश भाई, आपके लफ़्ज़ों को फूल चढाते हुए मैंने अपनी ईमानदाराना राय आपकी ग़ज़ल के बारे में दे दी है !
आदरणीय प्रभाकर जी,
पहली कोशिश मे आपको चन्द पँकतियाँ ठीक लगी मेरी हौस्ला अफजाई के लिए इतना ही काफ़ी है बाकी आप सभी के सहयोग से सीखना ही है
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत,
जमाने में सबसे है प्यारी मुहब्बत........
waah waa !
वन्दे मातरम दोस्तों,
अरविन्द भाई जी हौसला अफजाई के लिए आपका हार्दिक आभार
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