Added by Dr.Prachi Singh on January 31, 2016 at 2:46pm — 9 Comments
मृग छाया सी प्रीत बस, दे समीप्य का भास
मधुर मोहिनी बन करे, बैरी खुद की श्वास
बाह्य प्राप्ति से पूर्णता, मिलती कब पर्याप्त
मिले न कुछ वो भी मिटे, जो भी हो निज व्याप्त
नहीं एक भी वायदा, नहीं बंध से युक्त
प्रीत प्रखर निभती तभी, मन हों जब उन्मुक्त
प्रीत न कलुषित कर कभी, आरोपित कर चाह
मन इच्छित हर कामना, लीले सलिल प्रवाह
अकथ मौन सुन सब करें, मन ही मन संवाद
जैसी जिसकी वासना, वैसा ही…
Added by Dr.Prachi Singh on January 7, 2016 at 1:00pm — 11 Comments
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