१२२२ १२२ १२२२ १२२
मैं अपना घर सम्भालूँ वो अपना घर संभालें
ये बंदूकें हटा लें अमन से हल निकालें
झुलसती अब है धरती नहीं जमता हिमानी
अगन पीकर मही की चलो नदियाँ बचा लें
गले रोजाना मिलते , मिलाते हाथ भी हैं
कभी तो ऐ पड़ोसी दिलों को भी मिला लें
कली मुरझा रही है सिसकते हैं ये भंवरे
जहाँ में है अँधेरा चरागों को जला लें
बहुत रूठे हुए हैं हमारे अपने हमसे
चलो खुद आगे बढ़कर के रूठों…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on January 1, 2016 at 10:34am — 8 Comments
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