मेरे सबसे प्रिय रचनाकार
कभी प्रत्यक्ष मिला नहीं आपसे
सपना है मेरा ,
आपसे मिलना , बातें करना
घंटों ,
किसी झील के किनारे
सूनसान में
आपकी हर रचनायें
गढती जाती है
मेरे अन्दर आपको
बनती जाती है
आपकी छवि ,
कभी धुंधली , कभी चमक दार , साफ साफ
क़ैद है मेरे दिलो दिमाग़ में
आपकी रचनाओं की सारी खूबियों के साथ
आपकी एक बहुत प्यारी छवि
क्या आप सच में वैसे ही हैं
जैसी आपकी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 29, 2015 at 8:16am — 31 Comments
रिक्शा वाला
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आपको याद तो होगा
वो रिक्शा वाला
गली गली घूमता ,
माइक में चिल्लाता , बताता
आज फलाने टाकीज़ में , फलानी पिक्चर लगी है
पर्चियाँ हवा में उड़ाता
पर्चियों के लिये रिक्शे के पीछे भागते बच्चे
बच्चों को पर्चियाँ छीनते झपटते देख खुश होता
किसी निराश हुये बच्चे को पर्ची कभी अपने हाथों से दे देता
बिना किसी अपेक्षा के , आग्रह के ,
एक जानकारी सब से साझा करता
न कोई आग्रह , न…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 27, 2015 at 7:51am — 24 Comments
परिवर्तन
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बून्द की नाराजगी का संज्ञान
सागर ले ही
ज़रूरी नहीं
फिर भी नाराजगी बून्द की अपनी स्वतंत्रता है
प्रकृति प्रदत्त
संज्ञान अगर सागर ले भी ले तो
खुद में कोई परिवर्तन भी करे ये नितांत ज़रूरी नहीं
वैसे हर नाराजगी कोई परिर्वतन ही चाहती हो किसी में
ये भी ज़रूरी नहीं
कुछ नाराजगी व्यवहारिक खानापूर्तियाँ भी होतीं है
कुछ स्वांतः सुखाय
अपने ज़िन्दा होने के सबूत के…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 25, 2015 at 10:00am — 25 Comments
मै कभी नहीं मरता
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आप बच नहीं सकते
उलझने से
ऐसा इंतिज़ाम है मेरा
फैला दिया है मैने मेरा अहंकार हर दिशाओं मे
हर दिशाओं के हर कोणों में
बस मैं हूँ , मैं
कहीं भी जायें, उलझेंगे ज़रूर
जब भी कोई उलझता है , मेरे मैं से
चोटिल करता उसे
तत्काल मुझे ख़बर लग जाती है , और तब
मुझे खड़ा पाओगे तुम उसी क्षण
अपने विरुद्ध
तमाम हथियारों से सुसज्जित
ये भी तय है ,
हरा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 22, 2015 at 9:30am — 18 Comments
212 1222 212 1222
क्या हुआ है रातों में, झुरमुटों से पूछो तुम
रो रहीं हवायें क्यूँ , डालियों से पूछो तुम
ग़ायबाना भौंरों के , फूल क्यूँ अधूरे हैं -- ग़ायबाना - अनुपस्थिति में
सच तुम्हें बतायेंगीं , तितलियों से पूछो तुम
क्या हुआ है चंदा को, क्यूँ नज़र नहीं आता
ये चकोर क्या जाने, बदलियों से पूछो तुम
कोई ये कहे कैसे , मैं ही था गलत यारों
गोलियाँ चलीं कैसे , घाटियों से पूछो तुम
बे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 19, 2015 at 2:30pm — 23 Comments
1222 1222 1222 1222
पहन रख पैरहन, उरियानियाँ अच्छी नहीं लगतीं
कि बद को भी, कभी बदनामियाँ अच्छी नहीं लगतीं
फसादी हो अगर, तो बोलियाँ अच्छी नहीं लगतीं
वहीं बेवक़्त की खामोशियाँ अच्छी नहीं लगतीं
खुला आकाश हो सबका ,परों मे ताब हो सबके
कफस अंदर की ये आज़ादियाँ, अच्छी नहीं लगतीं
भरम रख़्ख़ें वे मौसम का , कहे कोई उन्हें जा कर
कभी बे वक़्त छाई बदलियाँ, अच्छी नहीं लगतीं
चला आया है जुगनू…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 15, 2015 at 5:30pm — 23 Comments
आपसी ताप से जलती टहनियाँ
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आँधियों की छोड़िये
हवा थोड़ी भी तेज़ बहे, स्वाभाविक गति से
टहनियाँ रगड़ खाने लगतीं हैं
एक ही वृक्ष की
आपस में ही
पत्तियाँ और फूल न चाहते हुये भी
कुसमय झड़ जाने के लिये मजबूर हो जाते हैं
टहननियों की अपनी समझ है ,
परिभाषायें हैं खुशियों की ,
गमों की
फूल और पत्तियाँ असहाय
जड़ें हैरान हैं , परेशान हैं
वो जड़ें ,
जिन्होनें सब टहनियों के लिये…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 14, 2015 at 1:16pm — 17 Comments
२१२२ १२१२ २२ /११२
फिर से उगता हुआ जो पर देखा
तो बहुत झूम झूम कर देखा
धूप में झुलसा हर बशर देखा
तन पसीने से तर ब तर देखा
जल सके आग, कोशिशें देखीं
दिल में सुलगा हुआ शरर देखा
कारवाँ साथ था चला लेकिन
खुद को ही खुद का हम सफ़र देखा
सर परस्ती रही सियासत की
ज़ुर्म कर जो झुका न सर देखा
हद के बाहर दुआ में हाथ उठे
हर ,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 12, 2015 at 10:42am — 25 Comments
कभी ठोकरों से सँभल गये
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11212 11212 11212 11212
न मैं कह सका, न वो सुन सके, मिले लम्हें थे,वो निकल गये
मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे रास्ते, ही बदल गये
तेरी यादों की, हुई बारिशों , ने बहा लिया, कभी नींद को
कभी याद हम ही न कर सके, तो उदासियों में भी ढल गये
कभी हालतों से सुलह भी की, कभी वक़्त का किया सामना
कभी रुक गये, कभी जम गये, कभी बर्फ बन के पिघल गये
कभी बिन पिये रही…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 8, 2015 at 1:12pm — 25 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२२
कभी आवाज की सूरत , कभी केवल इशारों से
बुलावा आज भी आता है , नदियों कोहसारों से
मैं प्यासा तो नहीं हूँ पर सराबों से ये पूछूंगा
कि बदली क्यूँ गुजरती ही नहीं है रेगजारों से
बड़ी बेताब सी लहरें बढ़ी तो हैं ज़रा देखें
वो कहना चाहती है क्या, अभी जाकर किनारों से
अभी मायूसियाँ छाई हुयी हैं दिल में अन्दर तक
अभी कुछ दिन न आये घर , कोई कह दे बहारों…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 3, 2015 at 6:30pm — 19 Comments
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