शंका और विश्वास के दोराहे पर
मन में पीली धुंधली उदास गहरी
बेमाप वेदना यथार्थों की लिए
स्वीकार कर लेता हूँ सभी झूठ
कि जाने कब कहाँ किस झूठ में भी
किसी की विवशता दिख जाए, या
मिल जाए उसकी सच्चाई का संकेत
कि जानता हूँ मैं, यह ठंडी पुरवाई
यह फैली हुई धूप नदी-झील-तालाब
सब कहते हैं ...
वह कभी झूठी नहीं थी
ऊँची उठती है कोई उभरती कराह
स्वपनों के अनदेखे विस्तार में
विद्रोह करते हैं मेरे…
ContinueAdded by vijay nikore on March 15, 2017 at 7:32pm — 12 Comments
122 122 122 122
है हर सू फ़क़त धूप,साया कहाँ है?
ये आख़िर मुझे इश्क़ लाया कहाँ है!
अमीरी को अपनी दिखाया कहाँ है?
तुम्हें शह्र-ए-दिल ये घुमाया कहाँ है?
अभी सहरा में एक दरिया बहेगा
अभी क़ह्र अश्क़ों ने ढाया कहाँ है?
अभी देखिएगा अँधेरों की हालत
उफ़ुक़ पर अभी शम्स आया कहाँ…
ContinueAdded by जयनित कुमार मेहता on March 8, 2017 at 3:30pm — 6 Comments
उसके मन में चल रहा अंतर्द्वंद चेहरे पर सहज ही परिलक्षित हो रहा था। वह अपनी पत्नी के बारे में सोच रहा था, “चार साल हो गए इसकी बीमारी को, अब तो दर्द का अहसास मुझे भी होने लगा है, इसकी हर चीख मेरे गले से निकली लगती है।“
और उसने मुट्ठी भींच कर दीवार पर दे मारी, लेकिन अगले ही क्षण हाथ खींच लिया। कुछ मिनटों पहले ही पत्नी की आँख लगी थी, वह उसे जगाना नहीं चाहता था। वह वहीँ ज़मीन पर बैठ गया और फिर सोचने लगा, “सारे इलाज कर लिये, बीमारी बढती जा रही है, क्यों न इसे इस दर्द से हमेशा के लिए…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on March 6, 2017 at 11:00am — 6 Comments
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