उत्तुंग शृंखलाओ को
चीर कर
रफ्ता रफ्ता
उतरती चली आती है
सदा ही अवनत
मचलती लहराती वो
करती धरा का आलिंगन
सहर्ष ..... वलयित हो
मुसकाती
बढ़ती जाती निरंतर
सागर की बाँहों मे
समा जाने को विकल
अद्भुत निरखता सौम्य रूप
कुछ उच्छृंखल
राह के अवरोध समेट
तरण तारिणी
सागर से मिलन की
मधुर बेला मे
पूर्ण समर्पण लखता
अहा ! क्या ही अद्भुत
विहंगम दृश्य.......
धारा का जलध…
ContinueAdded by annapurna bajpai on March 23, 2014 at 12:00am — 15 Comments
(1)
गोरा गोरा निर्मल तन है
उसके बिन सब सूनापन है
न पाये तो जाएँ बच्चे रूठ
क्या सखि साजन ? ना सखी दूध !!
(2)
हर दम उसको शीश सजाऊँ
पाकर उसको खिल खिल जाऊँ
अधूरी उस बिन रहूँ न दूर
क्या सखि साजन ? न सखि सिंदूर !!
(3)
कोमल कोमल तन है प्यारा
मन भावे लागे अति न्यारा
छुप जाये जो डालूँ अचरा
क्या सखि साजन ? न सखि गजरा !!
(4)
रूप सलोना…
ContinueAdded by annapurna bajpai on March 12, 2014 at 12:00pm — 6 Comments
मूक नहीं है वो लिखते जाना ही उसकी जात है ,
तम की स्याही से वो लिखती नित्य नव प्रभात है ।
उजियारा फैलाने को रोज नया सूरज वो लाती है ,
जो मूक हो जीते है उनकी जुबान वो बन जाती है ।
पढ़ लिख कर सम्मान की अलख वो जगाती है ,
झूठे हो चाहे जितने पर सच्चाई की धार लगाती है ।
अज्ञानता के घोर तमस को समूल उखाड़ भगाती है,
होती जिसके हाथ कलम ज्ञान भंडार लगाती है॰
पैनी कितनी भी हो तलवारें पर भीत नहीं ये खाती…
ContinueAdded by annapurna bajpai on March 3, 2014 at 10:30pm — 11 Comments
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